अस्सी के दशक में जब जगजीत सिंह ग़ज़ल गायिकी को एक नया स्वरूप दे रहे थे तो उनके साथ साथ ग़जल गायकों की एक अच्छी पौध तैयार हो रही थी। उस दौर में पंकज उधास, पीनाज़ मसानी, तलत अज़ीज़ के साथ जो एक और नाम चमका वो चंदन दास का था।
आप सोच रहें होंगे कि अचानक चंदन दास की याद मुझे कैसे आ गई। दरअसल पिछले हफ्ते चंदन दास का जन्मदिन था। अंतरजाल पर एक मित्र ने उनकी एक ग़ज़ल बाँटी। जबसे वो ग़ज़ल सुनी है तबसे उसी की ख़ुमारी में जी रहे हैं। ख़ैर ग़ज़ल सुनी तो फिर शायर पर भी ध्यान गया। शायर थे वसीम बरेलवी साहब।
ज़ाहिर है बरेलवी साहब का ताल्लुक उत्तर प्रदेश के बरेली शहर से है। जनाब रुहेलखंड विश्वविद्यालय में उर्दू के प्राध्यापक भी रहे। कुछ ही साल पहले वे फिराक़ इ्टरनेशनल अवार्ड से सम्मानित हुए हैं। वसीम साहब से सबसे पहला तआरुफ जगजीत सिंह की गायी ग़ज़लों से ही हुआ था। अब भला मिली हवाओं में उड़ने की वो सज़ा यारो, कि मैं जमीं के रिश्तों से कट गया यारों या फिर अपने चेहरे से जो ज़ाहिर है छुपायें कैसे जैसी ग़ज़लों को कोई कैसे भूल सकता है। वैसे जगजीत की गाई ग़ज़लों में में ये वाली ग़ज़ल मुझे सबसे पसंद है जिसमें वसीम कहते हैं
आप सोच रहें होंगे कि अचानक चंदन दास की याद मुझे कैसे आ गई। दरअसल पिछले हफ्ते चंदन दास का जन्मदिन था। अंतरजाल पर एक मित्र ने उनकी एक ग़ज़ल बाँटी। जबसे वो ग़ज़ल सुनी है तबसे उसी की ख़ुमारी में जी रहे हैं। ख़ैर ग़ज़ल सुनी तो फिर शायर पर भी ध्यान गया। शायर थे वसीम बरेलवी साहब।
ज़ाहिर है बरेलवी साहब का ताल्लुक उत्तर प्रदेश के बरेली शहर से है। जनाब रुहेलखंड विश्वविद्यालय में उर्दू के प्राध्यापक भी रहे। कुछ ही साल पहले वे फिराक़ इ्टरनेशनल अवार्ड से सम्मानित हुए हैं। वसीम साहब से सबसे पहला तआरुफ जगजीत सिंह की गायी ग़ज़लों से ही हुआ था। अब भला मिली हवाओं में उड़ने की वो सज़ा यारो, कि मैं जमीं के रिश्तों से कट गया यारों या फिर अपने चेहरे से जो ज़ाहिर है छुपायें कैसे जैसी ग़ज़लों को कोई कैसे भूल सकता है। वैसे जगजीत की गाई ग़ज़लों में में ये वाली ग़ज़ल मुझे सबसे पसंद है जिसमें वसीम कहते हैं
आपको देख कर देखता रह गया
क्या कहूँ और कहने को क्या रह गया
आते-आते मेरा नाम-सा रह गया
उस के होंठों पे कुछ काँपता रह गया
दिल हुआ कि जनाब वसीम बरेलवी को कुछ और पढ़ा जाए। पिछले चार पाँच दिनों में उनकी कई ग़ज़ले पढ़ डालीं। बरेलवी साहब का अंदाजे बयाँ मुझे बहुत कुछ बशीर बद्र साहब जैसा लगा यानि लफ्ज़ ऐसे जो कोई भी सहजता से समझ ले और गहराई ऐसी कि आप वाह वाह भी कर उठें। तो आइए आज की इस पोस्ट में उनके कुछ चुनिंदा अशआर आप की नज़र।
आज के दौर में समाज में बड़बोले और अपनी बेज़ा ताकत इस्तेमाल करने वालों का ही बोलबाला है। बरेलवी साहब बड़ी खूबसूरती से समाज के इस तबके पर इन अशआरों में तंज़ कसते नज़र आते हैं...
ज़रा सा क़तरा कहीं आज अगर उभरता है
समन्दरों ही के लहजे में बात करता है
शराफ़तों की यहाँ कोई अहमियत ही नहीं
किसी का कुछ न बिगाड़ो तो कौन डरता है
मैं हमेशा ये मानता हूँ कि व्यक्ति किसी विधा के बारे में कितना भी जान ले सीखने की गुंजाइश बनी रहती है। जैसे ही ये दंभ आया कि हम तो महारथी हो गए.. औरों की मेरे आगे क्या औकात तो समझो कि अपने सीखने की प्रक्रिया तो वहीं बंद हो गई। वसीम बरेलवी विनम्रता की जरूरत को कितने प्यारे ढंग से अपने इस शेर में समझाते नज़र आते हैं
अपने हर इक लफ़्ज़ का ख़ुद आईना हो जाऊँगा
उसको छोटा कह के मैं कैसे बड़ा हो जाऊँगा
एक जगह और वो लिखते हैं
तुम्हारी राह में मिट्टी के घर नहीं आते
इसीलिए तो तुम्हें हम नज़र नहीं आते
ये तो हुई हमारे आचार और व्यवहार की बातें। अब ज़रा देखें कि इंसानी रिश्तों और प्रेम के बारे में वसीम बरेलवी की कलम क्या कहती है? अव्वल इश्क़ तो जल्दी होता नहीं और एक बार हो गया जनाब तो उसकी गिरफ्त से निकलना भी आसान नहीं। इसीलिए बरेलवी साहब कहते हैं
बिसाते -इश्क पे बढ़ना किसे नहीं आता
यह और बात कि बचने के घर नहीं आते
और रिश्तों के बारे में उनके इन अशआरों की बात ही क्या
कितना दुश्वार है दुनिया ये हुनर आना भी
तुझी से फ़ासला रखना तुझे अपनाना भी
ऐसे रिश्ते का भरम रखना बहुत मुश्किल है
तेरा होना भी नहीं और तेरा कहलाना भी
तो आइए अब उस ग़ज़ल की ओर रुख किया जाए जिसकी वज़ह से ये पोस्ट अस्तित्व में आई...
क्या मतला लिखा है बरेलवी साहब ने ! और अंत के दो शेर तो भई कमाल ही कमाल हैं ..एक बार सुन लीजिए फिर दिल करता है कि अपने ''उन'' के ख़यालों में डूबते हुए बार बार सुनें। क्यूँ आपको नहीं लगता ऐसा?
मैं इस उम्मीद पे डूबा कि तू बचा लेगा
अब इसके बाद मेरा इम्तिहान क्या लेगा
ये एक मेला है वादा किसी से क्या लेगा
ढलेगा दिन तो हर एक अपना रास्ता लेगा
मैं बुझ गया तो हमेशा को बुझ ही जाऊँगा
कोई चराग़ नहीं हूँ जो फिर जला लेगा
कलेजा चाहिए दुश्मन से दुश्मनी के लिए
जो बे-अमल (बिना ताकत /हुकूमत के) है वो बदला किसी से क्या लेगा
मैं उसका हो नहीं सकता, बता ना देना उसे
लकीरें हाथ की अपनी वो सब जला लेगा
हज़ार तोड़ के आ जाऊँ उस से रिश्ता वसीम
मैं जानता हूँ वो जब चाहेगा बुला लेगा
चंदन दास और उनकी ग़ज़लों में कुछ और डूबना चाहते हों तो उनकी पसंदीदा ग़ज़लों से जुड़ी मेरी फेरहिस्त ये रही....
15 टिप्पणियाँ:
चन्दन दास कि कुछ और लाजवाब गज़लों में से ये भी हैं ...
दुआ करो कि ये पोधा सदा हरा ही रहे ...
न जी भए के देखा न कुछ बात कि ...
जिंदगी तुझको मनाने निकले ...
और वसीम बरेलवी जी को तो सूना है मैंने कई मुशायरों में ... उनकी सादगी ही उनके शेर कहती है ...
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 27-03-2014 को चर्चा मंच पर दिया गया है
आभार
Aapki sabse lazabab posto me se ek hai ye post. Bahut bahut dhanywad manish ji...............
i still remember listening to chandan das on tv.. belated bday wishes to him.
Bahut Khoob manish !
वाह.
बरेलवी साहब की रचनाओं ने सदा ही प्रभावित किया है।
मैं इस उम्मीद पे डूबा के तू बचा लेगा
मैं बुझ गया तो हमेशा बुझ ही जाऊंगा ,
कोई चराग नहीं है जो फिर जला लेगा।
सुन्दर बंदिश है
दिगंबर नासवा जी अपनी पसंद साझा करने के लिए धन्यवाद !
दिलबाग, प्रवीण,अनिल, दिलीप, वीरेद्र जी, पूनम, ओम प्रकाश आप सब को ये प्रविष्टि पसंद आयी जानकर प्रसन्नता हुई।
Waseem Barelvi ki ghazal saajha karne ke liye koti koti dhanyavad.Tumhare bhenje link se kai bar suna karta hoon.Vaise bhi main tumhara purana murid hoon.Tareef ke liye shabd kam padenge.Itna hi kahoon ki tum insaan behatareen evam kaamyab ho.Meri dili shubh kaamana aur saari duayen tumhare saath hain.
मैं इस उम्मीद पे डूबा कि तू बचा लेगा
अब इसके बाद मेरा इम्तिहान क्या लेगा
ये एक मेला है वादा किसी से क्या लेगा
ढलेगा दिन तो हर एक अपना रास्ता लेगा
मैं बुझ गया तो हमेशा को बुझ ही जाऊँगा
कोई चराग़ नहीं हूँ जो फिर जला लेगा
वाह वाह बहुत खुब
यदुनाथ जी व युधिष्ठिर ग़ज़ल और ये आलेख पसंद करने के लिए धन्यवाद !
बात कहने के सलीके के बारे में उनका ये शे'र भी प्रासंगिक है -
कौनसी बात कहाँ, कैसे कही जाती है
ये सलीका हो तो हर बात सुनी जाती है
शुक्रिया इस शेर को यहाँ साझा करने के लिए धवल !
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