मंगलवार, अप्रैल 29, 2014

आमाय भाशाइली रे ..क्या था गंगा आए कहाँ से..का प्रेरणास्रोत ? Aamay Bhashaili Ray..Ganga Aaye Kahan Se

कुछ दिनों पहले कोक स्टूडियो के सीजन 6 के कुछ गीतों से गुजर रहा था तो अचानक ही  बाँग्ला शीर्षक वाले  इस नग्मे पर नज़र पड़ी। मन में उत्सुकता हुई कि कोक स्टूडियो में बांग्ला गीत कब से संगीतबद्ध होने लगे। आलमगीर की गाई पहली कुछ पंक्तियाँ कान में गयीं तो लगा कि अरे इससे मिलता जुलता कौन सा हिंदी गीत मैंने सुना है? ख़ैर दिमाग को ज़्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ी और तुरंत फिल्म काबुलीवाला के लिए सलिल चौधरी द्वारा संगीतबद्ध और गुलज़ार द्वारा लिखा वो गीत याद आ गया  गंगा आए कहाँ से, गंगा जाए कहाँ रे..लहराए पानी में जैसे धूप छाँव रे....

जब इस ब्लॉग पर सचिन देव बर्मन के गाए गीतों की श्रंखला चली थी तो उसमें माँझी और भाटियाली  गीतों पर मैंने विस्तार से चर्चा की थी। बाँग्लादेश के लोक संगीत को कविता में ढालने वाले कवि जसिमुद्दीन की रचनाओं और धुनों से प्रेरित होकर सचिन दा ने बहुतेरे गीतों की रचना की। जब मैंने आमाय भाशाइली रे. सुना तो सलिल दा को भी उनसे प्रेरित पाया।  वैसे पाकिस्तान के पॉप संगीत के कर्णधारों में से एक आलमगीर ने कवि जसिमुद्दीन के लिखे जिस गीत को अपनी आवाज़ से सँवारा है उसे सलिल दा काबुलीवाले के प्रदर्शित होने से भी पहले बंगाली फिल्म में मन्ना डे से गवा चुके थे।


ख़ैर मन्ना डे तो मन्ना डे हैं ही पर पन्द्रह साल की आयु में अपना मुल्क बाँग्लादेश छोड़कर कराची में बसने वाले आलमगीर ने भी इस गीत को इतने दिल से गाया है कि मात्र दो मिनटों में ही वो इसमें प्राण से फूँकते नज़र आते हैं। इस गीत की लय ऐसी है कि अगर आपका बाँग्ला ज्ञान शून्य भी हो तो भी आप अपने आप को इसमें डूबता उतराता पाते हैं। कोक स्टूडिओ की इस प्रस्तुति में खास बात ये है कि इस लोकगीत में संगीत सर्बियन बैंड का है जो कि गीत के साथ ही बहता सा प्रतीत होता है।

तो आइए देखें इस लोकगीत में कवि जसिमुद्दीन हमसे क्या कह रहे हैं

आमाय भाशाइली रे आमाय डूबाइली रे
अकूल दोरियर बूझी कूल नाई रे


मैं भटकता जा रहा हूँ..मुझे कोई डुबाए जा रहा है इस अथाह जलराशि में जिसका ना तो कोई आदि है ना अंत

चाहे आँधी आए रे चाहे मेघा छाए रे
हमें तो उस पार ले के जाना माँझी रे

कूल नाई कीनर नाई, नाई को दोरियर पाड़ी
साबधाने चलइओ माँझी आमार भंग तोरी रे
अकूल दोरियर बूझी कूल नाइ रे


इस नदी की तो ना कोई सीमा है ना ही कोई किनारा नज़र आता है। माँझी मेरी इस टूटी नैया को सावधानी पूर्वक चलाना ताकि हम सकुशल अपने ठिकाने पहुँचें।

दरअसल कवि सांकेतिक रूप से ये कहना चाहते हैं कि ये जीवन संघर्ष से भरा है। लक्ष्य तक पहुँचने के लिए जोख़िमों का सामना निर्भय और एकाग्र चित्त होकर करना पड़ेगा वर्ना इस झंझावत में डूबना निश्चित ही है।

काबुलीवाला में  गुलज़ार ने  गंगा की इस प्रकृति को उभारा है कि उसमें चाहे जितनी भी भिन्न प्रकृति की चीज़ें मिलें वो बिना उनमें भेद किए हुए उन्हें एक ही रंग में समाहित किए हुए चलती है। गीत के अंतरों में आप देखेंगे कि किस तरह गंगा के इस गुण को गुलज़ार प्रकृति और संसार के अन्य रूपकों में ढूँढते हैं?

गंगा आए कहाँ से, गंगा जाए कहाँ रे
आए कहाँ से, जाए कहाँ रे
लहराए पानी में जैसे धूप छाँव रे

रात कारी दिन उजियारा मिल गए दोनों साए
साँझ ने देखो रंग रूप के कैसे भेद मिटाए रे
लहराए पानी में जैसे धूप छाँव रे, गंगा आए कहाँ से....

काँच कोई माटी कोई रंग बिरंगे प्याले
प्यास लगे तो एक बराबर जिस में पानी डाले रे
लहराए पानी में जैसे धूप छाँव रे, गंगा आए कहाँ से....

गंगा आए कहाँ से, गंगा जाए कहाँ रे
आए कहाँ से, जाए कहाँ रे
लहराए पानी में जैसे धूप छाँव रे

नाम कोई बोली कोई लाखों रूप और चहरे
खोल के देखो प्यार की आँखें सब तेरे सब मेरे रे
लहराए पानी में जैसे धूप छाँव रे, गंगा आए कहाँ से....

 
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10 टिप्पणियाँ:

Unknown on अप्रैल 29, 2014 ने कहा…

आमाय भाशाइली रे, यह गीत सुनकर मन को बड़ा सुकून मिला। :)

Mamta Swaroop on अप्रैल 29, 2014 ने कहा…

बाँगला गाना का अर्थ बहुत अच्छा है। धन्यवाद।

Manish Kumar on अप्रैल 29, 2014 ने कहा…

मुझे तो इसे सुन कर ऐसा लगा नम्रता कि अथाह जल राशि के बीच अपनों से मिलने की हूक वेदना के स्वरों में उभर रही हो।


ममता जी आपको बाँग्ला गीत सार्थक लगा जान कर प्रसन्नता हुई़।

Smita Rajan on अप्रैल 29, 2014 ने कहा…

Lovely song..female voice is also very good

Manish Kumar on अप्रैल 29, 2014 ने कहा…

हम्म वो आवाज़ फारिहा परवेज़ की है स्मिता जी !

AlokTheLight on अप्रैल 29, 2014 ने कहा…

Soulful and touching.. Aamaye dubaaeli re.. and Nobody help me please.. :)

Ranjan Ghosh on अप्रैल 30, 2014 ने कहा…

मनीष जी,इस गाने को मैंने रूना लैला क़ी आवांज में सुना था(1983 )में । गजब की कसक है
इस गाने में विरह की वेदना में 12 महीनों का सुन्दर वर्णन है

रणविजय सिंह राजपूत on अप्रैल 30, 2014 ने कहा…

वाह ... मजा आ गया .....

Manish Kumar on अप्रैल 30, 2014 ने कहा…

सही कह रहे हैं Ranjan Ghosh जी इसी कसक ने पूरा गीत बार बार सुनने और समझने पर मजबूर कर दिया मुझे

Aarna Singh on अप्रैल 30, 2014 ने कहा…

100000000000........अनंत likes.

 

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