करीब तीन हफ्तों के लंबे अंतराल के बाद इस ब्लॉग पर लौट रहा हूँ। क्या करूँ घर की एक शादी, फिर कनाडा का अनायास दौरा और वापस लौटकर कार्यालय की व्यस्तताओं ने यहाँ चाह कर भी आने की मोहलत नहीं दी। पर कभी कभी इन व्यस्तताओं के बीच भी कुछ मधुर सुनने को मिल जाता है। अब इसी गीत की बात लीजिए। इसे पिछले हफ्ते अपने कार्यालयी दौरों के बीच एक शाम मित्रों के साथ गाने गुनगुनाने की बैठक में पहली बार सुना और तबसे ही इसकी गिरफ्त में हूँ। तो सोचा आप तक इसे पहुँचा कर इस गिरफ़्त से आज़ादी ले लूँ।
इस गीत को गाया है हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के साथ हिंदी पॉप में भी अपना दखल देने वाली शुभा मुद्गल जी ने। शुभा जी की आवाज़ जहाँ एक ओर पारंपरिक ठुमरी, ख़याल और दादरा की याद दिला देती है वहीं अली मोरे अँगना, अब के सावन, प्यार के गीत सुना जा रे जैसे गैर फिल्मी गीतों की भी, जो दस पन्द्रह साल पहले बेहद लोकप्रिय हुए थे और आज भी लोगों के दिलो दिमाग से गए नहीं हैं। 1999 में उनका एक एलबम आया था 'अब के सावन' जिसे संगीतबद्ध किया था शान्तनु मोइत्रा ने । इस एलबम का एक गीत था 'सीखो ना नैनों की भाषा पिया..' जिसे लिखा था प्रसून जोशी ने।
काव्यात्मक गीतों की रचना में आज प्रसून जोशी अग्रणी गीतकारों में माने जाते हैं। ये गीत इस बात को साबित करता है कि उनका ये हुनर उनके शुरुआती दिनों से उनके साथ रहा है। रूपा पब्लिकेशन द्वारा पिछले साल अपनी प्रकाशित पुस्तक Sunshine Lanes में इस गीत की चर्चा करते हुए उन्होंने लिखा है..
"मैंने इस गीत पर दिल्ली में काम करना शुरु किया क्यूँकि उस वक़्त वही मेरा ठिकाना था। पर जब 'अब के सावन' एलबम के गीतों की रिकार्डिंग शुरु हुई तो मुझे रिकार्डिंग टीम के साथ मुंबई जाना पड़ा। वहीं जुहू के शांत होटल के एक कमरे में ये गीत अपनी आख़िरी शक़्ल ले सका। ठुमरियाँ लिखना मुझे हमेशा से प्रिय रहा है। ये गीत भले ठुमरी की परिभाषा में पूरी तरह ख़रा नहीं उतरता पर फिर भी उसकी सुगंध को गीत की अदाएगी के साथ आप महसूस कर सकते हैं।
किसी भी प्रेमी की सबसे बड़ी हसरत उसे समझे जाने की होती है। सिर्फ शब्दों के ज़रिए नहीं पर उन छोटी छोटी बातों से जो उसकी भावनाओं और भाव भंगिमाओं में रह रह कर प्रकट होती हैं। मैंने इस गीत में इसी भाव को और गहराई से परखने की कोशिश की। वैसे तो ये गीत नारी मनोभावों को ज़रा ज्यादा छूता है पर ऐसा भी नहीं है कि पुरुषों में अपने आप को समझे जाने की चाहत नहीं होती।"
प्रसून की बातें तो आपने पढ़ लीं। ज़रा देखिए उन्होंने इस गीत में लिखा क्या है..
सीखो ना नैनों की भाषा पिया
कह रही तुमसे ये खामोशियाँ
सीखो ना
लब तो ना खोलूँगी मैं समझो दिल की बोली
सीखो ना नैनों की भाषा पिया...
सुनना सीखो तुम हवा को
सनन सन सनन सन कहती है क्या
पढ़ना सीखो.. सल..वटों को
माथे पे ये बलखा के लिखती हैं क्या
आहटों की है अपनी जुबाँ
इनमें भी है इक दास्तान
जाओ जाओ जाओ जाओ जाओ पिया
सीखो ना नैनों की भाषा...
ठहरे पानी जैसा लमहा
छेड़ो ना इसे हिल जाएँगी गहराइयाँ
थमती साँसों के शहर में
देखो तो ज़रा बोलती हैं क्या परछाइयाँ
कहने को अब बाकी है क्या
आँखों ने सब कह तो दिया
हाँ जाओ जाओ जाओ जाओ जाओ पिया
इसीलिए हुज़ूर अगली बार जब अपने प्रियतम के साथ हों तो बहती हवा की सनसनाहट में ये देखना ना भूलिए कि वो उन्हें गुदगुदा रही है या उकता रही है। अगर वो एकटक आपकी आँखों में आँखें डाले बैठे हों तो कुछ बोल कर प्रेम में डूबे उन गहरे जज़्बातों को हल्का ना कीजिए।बल्कि उनके साथ उनमें और डूबिए। वो लमहा तो गुजर जाएगा पर उसकी कसक, उसकी मुलायमियत आप वर्षों महसूस कर सकेंगे।
बहरहाल मैंने जिस दिन ये गीत सुना उस दिन ना तो फिज़ाओं में हवाएँ थीं और ना तो आकाश की गोद में उमड़ती घटाएँ। थी तो बस ढलती शाम में एक प्यारी सी आवाज़ जो गीत के बोलों के उतार चढ़ावों , उसकी भावनाओं को भली भांति प्रतिध्वनित करती हुई गर्मी की उस उष्णता को शीतलता में बदल रही थी। शायद यही कारण था कि शाखों से झूलते पत्ते भी बिना हिले डुले एकाग्रचित्त होकर इस गीत का आनंद ले रहे थे।
इस गीत को सुनने के बाद मैंने तुरंत घर आकर शुभा मुद्गल की आवाज़ में इस गीत को सुना। पर अपने प्रिय संगीतकार शान्तनु मोइत्रा के संगीत संयोजन ने मुझे बेहद निराश किया। इस गीत को एक ठहराव और सुकून वाले न्यूनतम संगीत संयोजन की जरूरत थी जिसका मज़ा शान्तनु ने गीत के साथ चलती ताल वाद्यों की गहरी बीट्स से थोड़ा तो जरूर खराब कर दिया। अगर ऐसा नहीं होता तो शुभा जी की गायिकी और निखर कर सामने आती।
नेट पर मैंने इस गीत को बिना संगीत के सुनना चाहा और मुझे कई अच्छी रिकार्डिंग्स हाथ लगी। उनमें से एक थी निकिता दाहरवाल की सो वही आपको पहले सुना रहा हूँ। इसी गीत को युवा गायिका और फिलहाल इंग्लैंड में अपनी शिक्षा पूरी कर रही निकिता दहरवाल ने भी पूरे मनोयोग से गाया है। निकिता की आवाज़ की तुलना शुभा जी की खुले गले वाली गहरी आवाज़ से तो नहीं की जा सकती पर उसने गीत की भावनाओं को सहजता से अपनी आवाज़ में पकड़ने की कोशिश जरूर की है।
नेट पर मैंने इस गीत को बिना संगीत के सुनना चाहा और मुझे कई अच्छी रिकार्डिंग्स हाथ लगी। उनमें से एक थी निकिता दाहरवाल की सो वही आपको पहले सुना रहा हूँ। इसी गीत को युवा गायिका और फिलहाल इंग्लैंड में अपनी शिक्षा पूरी कर रही निकिता दहरवाल ने भी पूरे मनोयोग से गाया है। निकिता की आवाज़ की तुलना शुभा जी की खुले गले वाली गहरी आवाज़ से तो नहीं की जा सकती पर उसने गीत की भावनाओं को सहजता से अपनी आवाज़ में पकड़ने की कोशिश जरूर की है।
और अब सुनिए इसे शुभा मुद्गल की आवाज़ में..
वैसे लोचनों की इस भाषा को पढ़ने में आपका अनुभव कैसा रहा है? क्या ऐसा तो नहीं कि आपने समझ कर भी उसे नज़रअंदाज़ कर दिया हो या फिर उनमें निहित भावनाओं को जरूरत से ज्यादा आँका हो ?
पुनःश्च दिसंबर 2019 इसी हफ्ते इस शानदार गीत को अपनी प्यारी आवाज़ से एक नई ऊँचाई पर पहुँचाया है हिमानी कपूर ने। जिन्हें इस गीत से प्यार है उन्हें ये वर्सन भी पसंद आएगा ऐसी मुझे उम्मीद है
।
9 टिप्पणियाँ:
प्रसून जी के बारे में बहुत सुन्दर प्रस्तुति
Beautiful
ये गीत मेरे पसंदीदा गीतों मे रहा है.. वैसे शुभा जी का एल्बम 'द अवेकनिंग' बेहतरीन है, कभी समय निकाल कर इसे भी सुनिए... ये सुबह, मति का फेर, बरसो तो जरा, इत्यादि गाने मन मोह लेते हैं...
कविता जी व नम्रता पसंद करने के लिए शुक्रिया !
प्रशांत आपने कहा है तो मौका लगते ही सुन कर देखता हूँ !
For those who already loved the song...this post has made it even more endearing
Bahut khubsurat geet.. Premiyon Ki manobhavna ko yeh geet sachmuch bari hi baariki k sath sath prastut karta hai....
प्रसून जी के बारे में बहुत सुन्दर प्रस्तुति
I love this song..
शास्त्रीय संगीत की एक सुन्दर रचना है यह गीत।और शुभा मुदगल जी का तो कोई जवाब ही नहीं।
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