पिछले हफ्ते की बात है। दफ़्तर के काम से रविवार की शाम पाँच बजे दिल्ली पहुँचा। पता चला पास ही मैक्स मुलर मार्ग पर स्थित इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में संगीतकार मदनमोहन की स्मृति में संगीत के कार्यक्रम का आयोजन हो रहा है। कार्यक्रम साढ़े छः बजे शुरु होना था पर दस मिनट की देरी से जब हम पहुँचे तो वहाँ तिल धरने की जगह नहीं थी। श्रोताओं में ज्यादातर चालीस के ऊपर वाले ही बहुमत में थे पर पुराने गीतों की महफिल में ऐसा होना लाज़िमी था। कुछ मशहूर हस्तियाँ जैसे शोभना नारायण भी दर्शक दीर्घा में नज़र आयीं।
उद्घोषकों ने मदनमोहन के संगीतबद्ध गीतों के बीच बगदाद में जन्मे इस संगीतकार की ज़िंदगी के छुए अनछुए पहलुओं से हमारा परिचय कराया। मुंबई की आरंभिक पढ़ाई, देहरादून के बोर्डिंग स्कूल में रहना, पिता के आग्रह पर सेना में नौकरी करना, उनका कोपभाजन बनते हुए भी फिल्मी दुनिया में अपने बलबूते पर संगीतकार की हैसियत से पाँव जमाना, लता के साथ उनके अद्भुत तालमेल, फिल्मी ग़ज़लों को लयबद्ध करने में उनकी महारत, उनका साहबों वाला रोबीला व्यक्तित्व, हुनर के हिसाब से उनको लोकप्रियता ना मिलने का ग़म और शराब में डूबी उनकी ज़िदगी के कुछ आख़िरी साल ..उन ढाई घंटों में उनका पूरा जीवन वृत आँखों के सामने घूम गया।
पर इन सबके बीच उनके कुछ मशहूर और कुछ कम बज़े गीतों को सुनने का अवसर भी मिला। ऐसे कार्यक्रमों में कितना भी चाहें आपके सारे पसंदीदा नग्मों की बारी तो नहीं आ पाती। फिर भी 'ना हम बेवफ़ा है ना तुम बेवफ़ा हो...', 'लग जा गले से हसीं रात हो ना हो...', 'तुम्हारी जुल्फों के साये में शाम कर दूँगा..', 'झुमका गिरा रे...' जैसे सदाबहार नग्मों को सुनने का अवसर मिला तो वहीं 'इक हसीं शाम को दिल मेरा खो गया...', 'तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रखा क्या है...', 'नैनों में बदरा छाए...', 'ज़रा सी आहट होती है....', 'कोई शिकवा भी नहीं कोई भी शिकायत भी नहीं...' जैसे गीतों को live सुन पाने की ख़्वाहिश..ख़्वाहिश ही रह गयी।
इन्हीं गीतों के बीच एक युगल गीत भी पेश किया गया जिसे कई सालों बाद अचानक और सीधे आर्केस्ट्रा के साथ मंच से सुनने में काफी आनंद आया। एक हल्की सी छेड़छाड़ और चंचलता लिए इस गीत को 1965 में आई फिल्म "नीला आकाश" में मोहम्मद रफ़ी और आशा ताई ने गाया था। इस गीत को लिखा था राजा मेहदी अली खाँ ने। मदनमोहन और राजा साहब की संगत ने हिंदी फिल्म संगीत को कितने अनमोल मोती दिए वो तो आप सब जानते ही हैं। राजा साहब से जुड़े इस लेख में आपको पहले ही उनके बारे में विस्तार से बता चुका हूँ। उसी लेख में इस बात का भी जिक्र हुआ था कि किस तरह उन्होंने हिंदी फिल्मी गीतों में 'आप' शब्द का प्रचलन बढ़ाया। आज जिस गीत की बात मैं आपसे करने जा रहा हूँ वो भी इसी श्रेणी का गीत है।
देखिए तो इस खूबसूरती से राजा साहब ने गीत की पंक्तियाँ गढ़ी हैं कि हर अगली पंक्ति पिछली पंक्ति का माकूल जवाब सा लगती है।
आप को प्यार छुपाने की बुरी आदत है
आप को प्यार जताने की बुरी आदत है
आपने सीखा है क्या दिल के लगाने के सिवा,
आप को आता है क्या नाज दिखाने के सिवा,
और हमें नाज उठाने की बुरी आदत है
किसलिए आपने शरमा के झुका ली आँखें,
इसलिए आप से घबरा के बचा ली आँखें,
आपको तीर चलाने की बुरी आदत है
हो चुकी देर बस अब जाइएगा, जाइएगा,
बंदा परवर ज़रा थोड़ा-सा क़रीब आइएगा,
आपको पास न आने की बुरी आदत है
तो आइए सुनते हैं राग देस पर आधारित इस मधुर युगल गीत को
वैसे तो सर्वव्यापी धारणा रही है लड़कों में अपने प्यार का इज़हार करने का उतावलापन रहता है, वहीं लड़कियाँ शर्म ओ हया से बँधी उसे स्वीकार करने में झिझकती रही हैं। पर वक़्त के साथ क्या आप ऐसा महसूस नहीं करते कि मामला इतना स्टीरियोटाइप भी नहीं रह गया है। पहल दोनों ओर से हो रही है। सोच रहा हूँ कि अगर आज गीतकार को ये परिस्थिति दी जाए तो वो क्या लिखेगा। है आपके पास कोई कोरी कल्पना ?
उद्घोषकों ने मदनमोहन के संगीतबद्ध गीतों के बीच बगदाद में जन्मे इस संगीतकार की ज़िंदगी के छुए अनछुए पहलुओं से हमारा परिचय कराया। मुंबई की आरंभिक पढ़ाई, देहरादून के बोर्डिंग स्कूल में रहना, पिता के आग्रह पर सेना में नौकरी करना, उनका कोपभाजन बनते हुए भी फिल्मी दुनिया में अपने बलबूते पर संगीतकार की हैसियत से पाँव जमाना, लता के साथ उनके अद्भुत तालमेल, फिल्मी ग़ज़लों को लयबद्ध करने में उनकी महारत, उनका साहबों वाला रोबीला व्यक्तित्व, हुनर के हिसाब से उनको लोकप्रियता ना मिलने का ग़म और शराब में डूबी उनकी ज़िदगी के कुछ आख़िरी साल ..उन ढाई घंटों में उनका पूरा जीवन वृत आँखों के सामने घूम गया।
पर इन सबके बीच उनके कुछ मशहूर और कुछ कम बज़े गीतों को सुनने का अवसर भी मिला। ऐसे कार्यक्रमों में कितना भी चाहें आपके सारे पसंदीदा नग्मों की बारी तो नहीं आ पाती। फिर भी 'ना हम बेवफ़ा है ना तुम बेवफ़ा हो...', 'लग जा गले से हसीं रात हो ना हो...', 'तुम्हारी जुल्फों के साये में शाम कर दूँगा..', 'झुमका गिरा रे...' जैसे सदाबहार नग्मों को सुनने का अवसर मिला तो वहीं 'इक हसीं शाम को दिल मेरा खो गया...', 'तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रखा क्या है...', 'नैनों में बदरा छाए...', 'ज़रा सी आहट होती है....', 'कोई शिकवा भी नहीं कोई भी शिकायत भी नहीं...' जैसे गीतों को live सुन पाने की ख़्वाहिश..ख़्वाहिश ही रह गयी।
इन्हीं गीतों के बीच एक युगल गीत भी पेश किया गया जिसे कई सालों बाद अचानक और सीधे आर्केस्ट्रा के साथ मंच से सुनने में काफी आनंद आया। एक हल्की सी छेड़छाड़ और चंचलता लिए इस गीत को 1965 में आई फिल्म "नीला आकाश" में मोहम्मद रफ़ी और आशा ताई ने गाया था। इस गीत को लिखा था राजा मेहदी अली खाँ ने। मदनमोहन और राजा साहब की संगत ने हिंदी फिल्म संगीत को कितने अनमोल मोती दिए वो तो आप सब जानते ही हैं। राजा साहब से जुड़े इस लेख में आपको पहले ही उनके बारे में विस्तार से बता चुका हूँ। उसी लेख में इस बात का भी जिक्र हुआ था कि किस तरह उन्होंने हिंदी फिल्मी गीतों में 'आप' शब्द का प्रचलन बढ़ाया। आज जिस गीत की बात मैं आपसे करने जा रहा हूँ वो भी इसी श्रेणी का गीत है।
देखिए तो इस खूबसूरती से राजा साहब ने गीत की पंक्तियाँ गढ़ी हैं कि हर अगली पंक्ति पिछली पंक्ति का माकूल जवाब सा लगती है।
आप को प्यार छुपाने की बुरी आदत है
आप को प्यार जताने की बुरी आदत है
आपने सीखा है क्या दिल के लगाने के सिवा,
आप को आता है क्या नाज दिखाने के सिवा,
और हमें नाज उठाने की बुरी आदत है
किसलिए आपने शरमा के झुका ली आँखें,
इसलिए आप से घबरा के बचा ली आँखें,
आपको तीर चलाने की बुरी आदत है
हो चुकी देर बस अब जाइएगा, जाइएगा,
बंदा परवर ज़रा थोड़ा-सा क़रीब आइएगा,
आपको पास न आने की बुरी आदत है
तो आइए सुनते हैं राग देस पर आधारित इस मधुर युगल गीत को
वैसे तो सर्वव्यापी धारणा रही है लड़कों में अपने प्यार का इज़हार करने का उतावलापन रहता है, वहीं लड़कियाँ शर्म ओ हया से बँधी उसे स्वीकार करने में झिझकती रही हैं। पर वक़्त के साथ क्या आप ऐसा महसूस नहीं करते कि मामला इतना स्टीरियोटाइप भी नहीं रह गया है। पहल दोनों ओर से हो रही है। सोच रहा हूँ कि अगर आज गीतकार को ये परिस्थिति दी जाए तो वो क्या लिखेगा। है आपके पास कोई कोरी कल्पना ?
5 टिप्पणियाँ:
मनीष जी ..यही मैं सोच रही थी 'हम्प्टी शर्मा की दुल्हनिया'देखते वक़्त कि अब गीतकार क्या लिख पायेगा ऐसा गीत ...'आपको प्यार छुपाने की बुरी आदत है ?खैर वक़्त बदलने के साथ-साथ गीतों के शब्द भी बदल जाते हैं और बदल भी रहे हैं :)
कस्बों में पता नहीं कितना बदलाव आया है पर महानगरों में तो प्यार का इज़हार करने का अंदाज़ जरूर बिंदास हो गया है।
Yeh geet meri pasandita gaano mein se ek hai. :) wakei kya sur aur kya bol hai!!
नम्रता जानकर खुशी हई कि तुम्हें भी ये गीत पसंद है वैसे गीत के बोल को आज की परिस्थितियों के मद्देनज़र देखो तो क्या ये लगता है कि हालात आज भी वैसे हैं?
खुबसूरत शब्द संयोजन, लाजवाब प्रस्तुति
मदनमोहन साब अपने आप में एक स्कूल साबित हुए हे उन दिनों से आज तक राजा साहब ने गजलो में भी लाजवाब नगमे दिऎ हे मदनमोहन जी के लिए रफ़ी साहब कमाल करते हे यहाँ
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