पहाड़ों पर कौन नहीं जाता ? कभी मैदानों की भीषण गर्मी से निज़ात पाने, तो कभी बर्फ के गिरते फाहों के बीच अपने दिल को थोड़ी ठंडक पहुँचाने। या फिर निकल जाते हैं लोग यूँ ही बैठे ठाले प्रकृति के नैसर्गिक रूप का एक दो दिन ही सही.. स्वाद चख़ने। सारा दिन घूमते हैं। कभी जानी तो कभी अनजानी राहों पर। शाम आती है तो थोड़ी बाजार की तफ़रीह और थोड़ी पेट पूजा के बाद यूँ थक के चूर हो रात बिस्तर पे गिरते हैं कि पता ही नहीं चलता कब सुबह हो गई? इसलिए एक आम घुमक्कड़ कहाँ जान पाता है कि रात पहाड़ों की कैसी होती है? और गाहे बगाहे अगर ऐसा अवसर मिला भी तो क्या वो हम देख पाते हैं जो इस नज़्म में गुलज़ार साहब हमें दिखा रहे हैं?
अपनी कहूँ तो मुन्नार की वादी में गुजारी वो रात याद आती है जिसकी सुंदरता को व्यक्त करते हुए शब्दों ने भी साथ छोड़ दिया था। पर गुलज़ार तो जब चाहें जहाँ चाहें शब्दों का ऐसा तिलिस्म खड़ा करने में माहिर हैं जिसके जादू से प्रकृति के वो सारे देखे और महसूस किए गए रूप एकदम से आँखों के सामने आ जाते हैं। अंधकार मयी रात को प्रकाशित करते चंद्रमा और तारों, पास बहती नदी का कलरव, बालों को उड़ाती और पत्तों को फड़फड़ाती हवा का संगीत और कहीं दूर गिरते झरनों की चिंघाड़ से आप भी कहीं ना कहीं रूबरू अवश्य हुए होंगे। पर देखिए तो गुलज़ार ने इन सबको को कितनी खूबसूरती से पिरोया है एक लड़ी में इस नज़्म के माध्यम से
रात पहाड़ों पर कुछ और ही होती है
आस्मान बुझता ही नहीं
और दरिया रौशन रहता है
इतना ज़री का काम नज़र आता है फ़लक़ पे तारों का
जैसे रात में प्लेन से रौशन शहर दिखाई देते हैं
पास ही दरिया आँख पे काली पट्टी बाँध के
पेड़ों की झुरमुट में
कोड़ा जमाल शाही, "आई जुमेरात आई..पीछे देखे शामत आई
दौड़ दौड़ के खेलता है
कंघी रखके दाँतों में
आवाज़ किया करती है हवा
कुछ फटी फटी...झीनी झीनी
बालिग होते लड़कों की तरह !
इतना ऊँचा ऊँचा बोलते हैं दो झरने आपस में
जैसे एक देहात के दोस्त अचानक मिलकर वादी में
गाँव भर का पूछते हों..
नज़म भी आधी आँखें खोल के सोती है
रात पहाड़ों पर कुछ और ही होती है।
आस्मान बुझता ही नहीं
और दरिया रौशन रहता है
इतना ज़री का काम नज़र आता है फ़लक़ पे तारों का
जैसे रात में प्लेन से रौशन शहर दिखाई देते हैं
पास ही दरिया आँख पे काली पट्टी बाँध के
पेड़ों की झुरमुट में
कोड़ा जमाल शाही, "आई जुमेरात आई..पीछे देखे शामत आई
दौड़ दौड़ के खेलता है
कंघी रखके दाँतों में
आवाज़ किया करती है हवा
कुछ फटी फटी...झीनी झीनी
बालिग होते लड़कों की तरह !
इतना ऊँचा ऊँचा बोलते हैं दो झरने आपस में
जैसे एक देहात के दोस्त अचानक मिलकर वादी में
गाँव भर का पूछते हों..
नज़म भी आधी आँखें खोल के सोती है
रात पहाड़ों पर कुछ और ही होती है।
आज जबकि हम सभी गुलज़ार का 80 वाँ जन्मदिन मना रहे हैं यही गुजारिश है कि साहब ऐसे अनेकानेक लमहे यूँ ही अपने गीतों, नज़्मों और ग़ज़लों के माध्यम से इन सफ़हों पर परोसते रहें। पहाड़ भले बूढ़े हो जाएँ पर ये शायर कभी बूढ़ा ना हो। ( Gulzar's 80 th birthday )
एक शाम मेरे नाम पर गुलज़ार की पसंदीदा नज़्में
- कैसे देखते हैं गुलज़ार 'बारिश' को अपनी नज़्मों में... (Barish aur Gulzar)
- रात भर बुझते हुए रिश्ते को तापा मैंने
- बहुत दिन हो गए सच्ची तेरी आवाज़ की बौछार में भींगा नहीं हूँ मैं
- पूरे का पूरा आकाश घुमा कर बाजी देखी मैंने
- बस एक लमहे का झगड़ा था
- तेरे उतारे हुए दिन टँगे है लॉन में अब तक
- मोड़ पर देखा है वह बूढ़ा सा इक पेड़ कभी
- शहतूत की शाख पे बैठी मीना बुनती है रेशम के धागे
12 टिप्पणियाँ:
रात पहाड़ो पर भी होती है :)
wah aaj gulzar jee ka jandim tha aur kuch padhna chahate the mila,par sayad aapne aaj apni lekhni mai kuch kkanjoosi kar lee,aur bhi bahut kuch padhne ka dil kar raha hai,aur aapse ummide kuch jyada thi subah se hi aapke post ka intejar tha,par dhanyavaad ek pahlu unka dikhana ke liye...
Amal Awasthi चलिए आपके लिए अपनी पसंदीदा नज़्मों की फेरहिस्त के साथ उनकी लिंक पोस्ट पर डाल दी है आपका दिन गुलज़ारमय करने के लिए।
Very beautiful.Thanks for sharing.
वैसे तो गीतकार हुए कई बढ़िया वो भी बेशुमार हैं।
पर
बात जिनकी अलग है ,वो एक ही यानि श्री गुलज़ार हैं.
शब्द जिनके गुनगुनाते हैं
दर्द ए दिल सहलाते हैं
सरलता व सुकोमलता जगाते हैं
अर्थ जिनकी जुबान के
बरसों में समझ आते हैं
संगीत नदी में जो पोएट्री नाव के अकेले खेवन हार हैं
बात जिनकी अलग है ,वो एक ही यानि श्री गुलज़ार हैं.
एक सार्थक जीवन जीने वाले शख्स हैं वो
जिंदगी की पेंटिंग में अनुशासन रूपी अक्स हैं वो
पंचम के ये सफ़ेद कौवे बड़े ही सौम्य और दिलदार है
बात जिनकी अलग है ,वो एक ही यानि श्री गुलज़ार हैं.
हमारे दिल से उनके लिए निकली
सच्ची दुआ जैसे की उनका प्यारा चाँद
ही उनके लिए अप्नत्व भरा उपहार है
बात जिनकी अलग है ,वो एक ही यानि श्री गुलज़ार हैं.
Thanks & regards,
CA Navin Khandelwal
लिल्लाह !
कितना खूबसूरत है सब कुछ, शायर भी और शायर की चाहत में लिखे अलफ़ाज़ भी.
सच है, यह शायर सदा चमकता रहे , पुखराज के चाँद की तरह.…
आप इंजीनियर साहब हैं, मगर लफ़्ज़ों से आपका लगाव आपको
बड़ी ही अलग पर्सनेलिटी बना देता है
दुआ है, आपके क़लम की उम्र भी दराज़ हो
- आमीन
शब्द-शब्द खुद पर इ़तरा उठता है,
जब भी उसे किसी ऐसी क़लम
के किनारे से
उतरना होता है मन के पार
सारी उलझनों का क़तरा-क़तरा पाक़ हो जाता है
रूहें रश्क़ करती हैं ऐसी जिंदगी पर
जो हर किसी को नसीब नहीं होती
.... आदरणीय गुलज़ार साहब के लिये
अनेकानेक शुभकामनाएँ
आपका आभार
Kya baat behtareen shayri.....ek behtar aawaj me .....
Thank u Manish for posting this..
नवीन जी गुलज़ार के प्रति आपका प्रेम इन पंक्तियों में निकल आया। बहुत खूब !
लोरी अली शु्क्रिया इतने प्यारे शब्दों में सराहना करने के लिए !
सदा बड़ी खूबसूरत पंक्तियाँ से नवाज़ा है आपने गुलज़ार को..
परमेश्वरी, सरिता जी शरत जी पसंद करने के लिए आभार !
hanks for blog share sir , A big fan of gulzar i am , I wrote this just a few day ago
तुम
और तुम्हारे दरियाओं के कांटे
तुम्हारे दीवारों पे उभरते स्केच
सारी बेचैन परछाइयाँ
तुम्हारे बोस्की ब्याहने का वक़्त
तुम्हारे सुर , तुम्हारी शहनाइयां
रातों के सन्नाटे
जुम्बिश , आहट , सरगोशियाँ
तुम्हारे जले बुझे अधकहे ख्यालों के राख
एक खामोश अपनापन है
हर एक पूर्णविराम में ||
तुम्हें देखते देखते मैंने
कितने लम्हें छिले हैं
कितनी बातें काटी है ,
कितनी रातें काटी है |
न है , न होगा कभी तुम सा कोई गुलज़ार |
बहुत खूब अनुपम यूँ ही लिखते रहें।
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