शनिवार, सितंबर 20, 2014

क्या हिंदी संचार माध्यमों द्वारा प्रयुक्त हिंदी में अंग्रेजी की मिलावट जायज़ है?

कुछ साल पहले तक कार्यालयी जीवन में हिंदी दिवस राजभाषा पखवाड़े के तहत कुछ पुरस्कार अर्जित करने का बस एक अच्छा अवसर हुआ करता था।  पर हिंदी के प्रचार प्रसार के लिए राजभाषा पखवाड़ा मनाना मुझे अब बेतुका सा लगने लगा है। राजभाषा के नाम पर कार्यालयों में जो भाषा परोसी जाती है उससे अन्य आंचलिक भाषाओं को बोलने वालों के मन में उसके प्रति प्यार कैसे पनपेगा ये मेरी समझ के बाहर है। पर सरकारी क़ायदे कानून हैं वो तो चलेंगे ही उससे हिंदी का भला हो ना हो किसको फर्क पड़ता है। दरअसल भाषा का अस्तित्व उसकी ताकत उसे बोलने वाले तय करते हैं और जब तक ये प्रेम जनता में बरक़रार है तब तक इसका कोई बाल भी बाँका नहीं कर सकता। पिछले हफ्ते हिंदी दिवस पर हिंदी से जुड़े मसलों पर समाचार चैनल ABP News पर एक घंटे की परिचर्चा हुई जिसमें प्रसिद्ध गीतकार प्रसून जोशी नीलेश मिश्र, कवि कुमार विश्वास और पत्रकार पंकज पचौरी ने हिस्सा लिया। चर्चा में तमाम विषय उठाए गए पर जो मुद्दा मेरे दिल के सबसे करीब रहा वो था संचार माध्यमों द्वारा हिंदी वाक्यों में अंग्रेजी के शब्दों का धड़ल्ले से उपयोग।

इस विषय पर मेरी राय प्रसून जी से मिलती जुलती है जिन्होंने कहा कि पारंपरिक भाषा में वैसे शब्द जिनकी उत्पत्ति दूसरे देशों में हुई है उन्हैं वैसे ही स्वीकार करने में कोई हर्ज नहीं है। मिसाल के तौर पर ट्रेन, टेलीफोन, सिनेमा, क्रिकेट आदि शब्द हिंदी में ऐसे घुलमिल गए हैं कि उन्हें हिंदी शब्दकोश में अंगीकार करना ही श्रेयस्कर होगा पर इसका मतलब ये भी नहीं कि दूरभाष और चलचित्र का उपयोग ही बंद कर दिया जाए। नीलेश मिश्र ने ये तो कहा कि जहाँ तक सरल शब्द उपलब्ध हों वहाँ अंग्रेजी के शब्द की मिलावट बुरी भी नहीं है। उनके संपादित समाचार पत्र का नाम गाँव कनेक्शन है और रेडियो पर कहानी सुनाते समय उन्हें अवसाद जैसे शब्दों के लिए उन्हें डिप्रेशन कहना ज्यादा अच्छा लगता है। 

दरअसल दिक्कत ये है कि इन सरल और कठिन शब्दों की परिभाषा कौन तय करेगा? किसी भी भाषा में अगर आप कोई शब्द इस्तेमाल नहीं करेंगे तो वो देर सबेर अप्रचलित हो ही जाएगा। इसका मतलब तो ये हुआ कि हम धीरे धीरे इन शब्दों को मार कर पूरी भाषा का ही गला घोंट दें?  ऊपर नवभारत टाइम्स की सुर्खियाँ देखिए बार्डर पर आमने सामने। एशियन गेम्स आज से। 

मतलब सीमा और एशियाई खेल कहना इस अख़बार के लिए दुरुह हो गया। राजस्थान पत्रिका का युवा पृष्ठ कह रहा है - थीम बेस्ड होगा पेंटिंग कम्पटीशन। अब अगर ऐसे शीर्षक आते रहे तो चित्रकला और प्रतियोगिता जैसे सामान्य शब्दों को भी नीलेश मिश्र सरीखे लोग कठिन शब्दों की श्रेणी में ले आएँगे। नीलेश जी से मेरा सीधा सवाल ये है कि क्या अंग्रेजी के समाचार पत्र अपनी भाषा के कठिन शब्दों का सरल हिंदी शब्द में अनुवाद कर कभी अपने शीर्षक लिखेंगे? क्या TOI कभी लिखेगा   Armies in front of each other at SEEMA ? क्या एक सामान्य अंग्रेजीभाषी को ऐसा पढ़ना अच्छा लगेगा?

हिंदी और आंचलिक भाषाएँ रोज़गार के अवसर तो अब प्रदान करती नहीं। दसवीं तक छात्र इन्हें पढ़ लेते हैं फिर तो इनका साबका अपनी भाषा से रेडिओ, टीवी व समाचार के माध्यमों से पड़ता है। अगर ये माध्यम भी भाषा की शुद्धता नहीं बरतेंगे तब तो किसी भी भाषा का भविष्य अंधकारमय हो जाएगा। मुझे आज भी याद है कि पिताजी हिंदी के सही वाचन के लिए मुझे आकाशवाणी और बीबीसी की हिंदी सेवा नियमित सुनने की हिदायत देते थे। हर भाषा की एक गरिमा होती है। ये सही है समय के साथ भाषा में अन्य भाषाओं से शब्द जुड़ते चले जाते हैं पर इसका मतलब ये नहीं कि उनका इस तरह प्रयोग हो कि वे भाषा के कलेवर को ही बदल दें। ना ऐसी मिलावट मुझे अंग्रेजी के लिए बर्दाश्त होगी ना हिंदी के लिए।

कुमार विश्वास ने कहा कि उनकी कविता में शुद्ध हिंदी भी रहती है और सामान्य प्रचलित हिंदी भी। यानि वो भाषा को उसके हर रूप में प्रस्तुत करते हैं और उनका अनुभव है कि दोनों तरह की कविताओं को युवाओं से उतना ही प्रेम मिलता है। सच तो ये है कि हमें अच्छी हिंदी को इस तरह प्रचारित प्रसारित करना है कि वो पूरी जनता की आवाज़ बने ना कि उसे हिंग्लिश जैसा बाजारू बना दिया जाए कि जिसे पढ़ते भी शर्म आए।

हिंदों से जुड़े अन्य विषयों पर भी सार्थक चर्चा चली पर वातावरण को हल्का फुल्का बनाया प्रसून जोशी, कुमार विश्वास और नीलेश मिश्र की कविताओं ने। नीलेश मिश्र ने अपनी कविता में मिश्रित भाषा का प्रयोग किया है पर जो शब्द अंग्रेजी से उन्होंने लिए हैं वो कविता की रवानी को बढ़ाते हैं। मुझे तो प्रसून, नीलेश और कुमार विश्वास की अलग अलग अंदाज़ों में लिखी तीनों कविताएँ पसंद आयीं। आशा है आपको भी आएँगी..

 

प्रसून जोशी की कविता लक्ष्य

लक्ष्य ढूंढ़ते हैं वे जिनको वर्तमान से प्यार नहीं है
इस पल की गरिमा पर जिनका थोड़ा भी अधिकार नहीं है
इस क्षण की गोलाई देखो आसमान पर लुढ़क रही है,
नारंगी तरुणाई देखो दूर क्षितिज पर बिखर रही है.
पक्ष ढूँढते हैं वे जिनको जीवन ये स्वीकार नहीं हैं
लक्ष्य ढूँढते हैं वे जिनको वर्तमान से प्यार नहीं है

नाप-नाप के पीने वालों जीवन का अपमान न करना
पल-पल लेखा-जोखा वालों गणित पे यूँ अभिमान न करना
नपे-तुले वे ही हैं जिनकी बाहों में संसार नहीं है
लक्ष्य ढूँढते हैं वे जिनको वर्तमान से प्यार नहीं है

ज़िंदा डूबे-डूबे रहते मृत शरीर तैरा करते हैं
उथले-उथले छप-छप करते, गोताखोर सुखी रहते हैं
स्वप्न वही जो नींद उडा दे, वरना उसमे धार नहीं है
लक्ष्य ढूँढते हैं वे जिनको वर्तमान से प्यार नहीं है

कहाँ पहुँचने की जल्दी है नृत्य भरो इस खालीपन में
किसे दिखाना तुम ही हो बस गीत रचो इस घायल मन में
पी लो बरस रहा है अमृत ये सावन लाचार नहीं है
लक्ष्य ढूँढते हैं वे जिनको वर्तमान से प्यार नहीं है

कहीं तुम्हारी चिंताओं की गठरी पूँजी ना बन जाए
कहीं तुम्हारे माथे का बल शकल का हिस्सा न बन जाए
जिस मन में उत्सव होता है वहाँ कभी भी हार नहीं है
लक्ष्य ढूँढते हैं वे जिनको वर्तमान से प्यार नहीं है

नीलेश मिश्र की कविता 'बकवास परस्ती'

चल सर से सर टकराते है
चल सड़क पे नोट लुटाते हैं
चल मोटे स्केच पेन से एक दिन हम चाँद पे पेड़ बनाते हैं
जो हँसना भूल गए उनको गुदगुदी जरा कराते हैं
चल लड़की छेड़ने वालों पे आज सीटी जरा बजाते हैं
इन बिगड़े अमीरजादों से चल भीख जरा मँगवाते हैं
पानी में दूध मिलाया क्यूँ चल भैंस से पूछ के आते हैं
नुक्कड़ पर ठेले वाले से चल मुफ्त समोसे खाते हैं
चल गीत बेतुके लिखते है और गीत बेसुरे गाते हैं
क्या करना अक्ल के पंडों का हमें ज्ञान कहाँ हथकंडों का
चल बेअक्ली फैलाते हैं चल बातें सस्ती करते हैं
चल बकवास परस्ती करते हैं, चल बकवास परस्ती करते हैं
 

चल तारों का 'बिजनेस' करके सूरज से 'रिच' हो जाते  हैं
उस पैसे से मंगल ग्रह पे एक 'प्राइमरी' स्कूल चलाते हैं
चल रेल की पटरी पे लेटे हम ट्रेन की सीटी बजाते हैं
चल इनकम टैक्स के अफसर से क्यूँ है 'इनकम' कम कहते हैं
चल किसी गरीब के बच्चे की सपनों की लंगोटी बुनते हैं
मुस्कान जरा फेंक आते हैं जहाँ गम हमेशा रहते हैं
चल डाल 'सुगर फ्री' की गोली मीठा पान बनाते हैं
जो हमको समझे समझदार उसका चेकअप कराते हैं
चल
'बोरिंग-बोरिंग' लोगों से बेमतलब मस्ती करते हैं
चल बकवास परस्ती
करते हैं चल बकवास परस्ती करते हैं।

पुनःश्च : हिंदी के प्रमुख समाचार चैनल ABP News ने गत रविवार हिंदी दिवस के अवसर पर कई और कार्यक्रम किए जिनमें से एक का विषय था कि हिंदी माध्यम से पढ़ कर आपने क्या परेशानियाँ झेलीं और उनसे जूझते हुए कैसे अलग अलग क्षेत्रों में अपना मुकाम बनाया। इस श्रंखला में साथी ब्लॉगर प्रवीण पांडे के आलावा संतोष मिश्र, अमित मित्तल,निखिल सचान के साथ मुझे भी अपनी बात रखने का मौका मिला। ये मेरे लिए अपनी तरह का पहला अनुभव था। वैसे आधे घंटे से चली इस बातचीत को कैसे संपादक पाँच मिनट में उसके मूल तत्त्व को रखते हुए पेश करते हैं इस कला से मेरा पहली बार परिचय हुआ।


साक्षात्कार के दौरान दिए जा रहे कैप्शन में दो तथ्यात्मक त्रुटियाँ रहीं। एक तो ब्लागिंग की शुरुआत जो मैंने 2005 में की को 1995 दिखाया गया और दूसरी IIT Roorkee से किए गए MTech को BTech बताया गया। आधे घंटे की बातचीत को पाँच मिनट में संपादित करने की वज़ह से बहुत सारी बातें उन संदर्भों के बिना आयीं जिनको ध्यान में रखकर वो कही गयी थीं। मसलन स्कूल की बातों को पूरे परिपेक्ष्य में समझने के लिए आपको मेरी ये पोस्ट पढ़नी होगी। नौकरी के सिलसिले में ये बताना शायद मुनासिब हो कि सेल की सामूहिक चर्चा में हिंदी के प्रयोग के पहले अंग्रेजी में दिए साक्षात्कारों की बदौलत मेरा चयन ONGC और NTPC में हो चुका था।
Related Posts with Thumbnails

7 टिप्पणियाँ:

Parmeshwari Choudhary on सितंबर 20, 2014 ने कहा…

हिंदी एक सहज,सरल,सुगम भाषा है। यदि हम इसे भरी भरकम और भोंडे दुरूह अनुवादित शब्दों से ना लादें तो इसका पठन-पाठन बना रहेगा।मेरे विचार से विज्ञान और कानून की किताबों में पाई जाने वाली हिन्दी सरकारी दफ्तरों वाली हिन्दी से भी ज्यादा दुरूह और ऊटपटाँग है और इसे सुधार की सख्त जरूरत है।

Manish Kumar on सितंबर 20, 2014 ने कहा…

विज्ञान की ज्यादतर खोजें भारत के बाहर की हैं और उच्च सत्र पर आगे पढ़ाई के लिए भी आपको अंग्रेजी का सहारा लेना पड़ता है। इसलिए जरूरत उन शब्दों को यथा संभव उसी रूप में ले लेने की है। भौतिकी की कक्षा में पढ़ा हुआ प्रत्यास्थता, घर्षण, बल आघूर्ण, बल युग्म दशकों से दोबारा प्रयोग नहीं कर पाया।

जहाँ तक कानून की बात है वहाँ अरबी फ़ारसी की पुरानी शब्दावली चली आ रही है जिसे सरलीकृत किया जाना संभव है। साथ ही हिंदी को सिर्फ मनोरंजन की भाषा ना बनाए रखने के लिए तमाम क्षेत्रों में सरल अनुवाद की सख्त जरूरत है।

Manish Kumar on सितंबर 21, 2014 ने कहा…

हार्दिक आभार मेरे विचारों को चर्चा मंच तक पहुँचाने के लिए !

Sonroopa Vishal on सितंबर 21, 2014 ने कहा…

शब्द शब्द सहमत !

Unknown on सितंबर 22, 2014 ने कहा…

your are superfine

Sonal Singh ने कहा…

Loved this piece. read it today.

And i totally agree with you. And prasoon joshi for that matter. And NBT has been revolting my sense of hindi usage (though that was minimal until two months ago) outrageously. Every day, their headlines have prominent english words. it's almost as if they are on a mission to eliminate proper hindi. And keep it as a mere assistant to English.

Vishal Sharma ने कहा…

It is a very big topic for me to talk because I respect Hindi I love to talk write and communicate in hindi

 

मेरी पसंदीदा किताबें...

सुवर्णलता
Freedom at Midnight
Aapka Bunti
Madhushala
कसप Kasap
Great Expectations
उर्दू की आख़िरी किताब
Shatranj Ke Khiladi
Bakul Katha
Raag Darbari
English, August: An Indian Story
Five Point Someone: What Not to Do at IIT
Mitro Marjani
Jharokhe
Mailaa Aanchal
Mrs Craddock
Mahabhoj
मुझे चाँद चाहिए Mujhe Chand Chahiye
Lolita
The Pakistani Bride: A Novel


Manish Kumar's favorite books »

स्पष्टीकरण

इस चिट्ठे का उद्देश्य अच्छे संगीत और साहित्य एवम्र उनसे जुड़े कुछ पहलुओं को अपने नज़रिए से विश्लेषित कर संगीत प्रेमी पाठकों तक पहुँचाना और लोकप्रिय बनाना है। इसी हेतु चिट्ठे पर संगीत और चित्रों का प्रयोग हुआ है। अगर इस चिट्ठे पर प्रकाशित चित्र, संगीत या अन्य किसी सामग्री से कॉपीराइट का उल्लंघन होता है तो कृपया सूचित करें। आपकी सूचना पर त्वरित कार्यवाही की जाएगी।

एक शाम मेरे नाम Copyright © 2009 Designed by Bie