मंगलवार, सितंबर 09, 2014

एक नौकरानी की डॉयरी : क्या आपने पढ़ी है कभी उनके मन की बात ? Ek Naukarani ki Diary Krishna Baldev Vaid

हमारे देश, हमारे समाज में किसी व्यक्ति को आँकने का दृष्टिकोण हमेशा से बेहद संकुचित रहा है। छोटे कार्यों को करने वाले इस देश में हेय दृष्टि से देखे जाते है चाहे वो अपने निर्धारित कार्य में कितने कुशल क्यूँ ना हों। श्रम को सम्मान देना हमारी परंपरा में कब आया है? पर कनाडा और जापान जैसे विकसित देशों में मैंने देखा कि किस तरह लोग वेटरों, चालकों व सफाई कर्मचारियों से सम्मान से बातें करते हैं। उन्हें वाजिब वेतन देते हैं। इसीलिए वहाँ अच्छे घरों के बच्चे भी इन कार्यों को खुशी खुशी करते दिखाई देते हैं। 

क्या हम अपने बच्चों को किसी घर में सफाई या अन्य किसी काम में मदद में भेज सकते हैं? सोचने से भी दिल दहल जाता है ना ? इज़्जत नहीं चली जाएगी अपनी, पुरखों की नाक नहीं कटेगी क्या कि अपने बेटे बेटियों को नौकर नौकरानी बनाने को तैयार हो गए। समाज की ऐसी सोच के बीच जो मजबूरीवश इन कामों को अंजाम देते हैं उन्हें कैसा लगता होगा?



वयोवृद्ध कथाकार कृष्ण बलदेव वैद्य ने अपने उपन्यास 'एक नौकरानी की डॉयरी' में समाज के इसी उपेक्षित वर्ग के मन को एक युवा होती नौकरानी शन्नो की दृष्टि से टटोलने की कोशिश की है। राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित दो सौ तीस पृष्ठों वाला उपन्यास हमारे घर के कामों में हाथ बँटाने वाली महिलाओं और किशोरियों की रोजमर्रा की ज़िदगी और उनके कष्टों को ना केवल करीब से देखने की कोशिश करता है बल्कि साथ ही साथ हमारे पढ़े लिखे कुलीन समाज के मानसिक पूर्वाग्रहों की परत दर परत भी खोलता जाता है।

आज भी दो गृहणियाँ मिलती हैं तो उनकी बातें घूम फिर कर अपने यहाँ काम करने वालियों पर आ ही जाती हैं। हर मालकिन के पास नौकरानियों द्वारा पैदा किए दर्द भरे  किस्से हैं। पर नौकरानियाँ अपने मालिक मालकिन को किन नज़रों में देखती हैं ये भी आपने कभी सोचा है? कृष्ण बलदेव वैद्य पुस्तक के शुरुआती पन्नों में ही उनकी सोच को इन शब्दों में व्यक्त करते हैं..
"माँ कहती है मालिक लोग बहुत कमीने होते हैं। उनका कोई भरोसा नहीं उन्हें हम लोगों से कोई हमदर्दी नहीं, उनकी बातों में कभी मत आना।

आज डस्टिंग कर रही थी तो मोटी मेम ने फिर से टोकना शुरु कर दिया। बोली इतना ज़ोर कहाँ से आ जाता है तुम लोगों में, क्या खाती हो, सब तोड़ फोड़ डालोगी। .... मोटी बहुत बकती है। मन करता है मनमन की गालियाँ दूँ। मन ही मन देती रहती हूँ। मन करता है किसी दिन झाड़न उसके मुँह पर दे मारूँ। माँ कहती है, सब मालकिनें बकती हैं। कोई कम कोई ज्यादा। कोई मन ही मन, कोई मुँह से। माँ ठीक ही कहती है। उन्नीस बीस का फ़रक हो तो हो। सब परले दर्जे की शक्की और कंजूस। मालिक बकवास तो नहीं करते पर बेहयाई से बाज नहीं आते....           

मिसिज वर्मा मुझे अच्छी लगती है, उसकी बातें भी। मुझे वो सब लोग अच्छे लगते हैं जो मेरे साथ ठीक तरह से बातें करें। मुझे ये पता ना लगने दें कि मैं नौकरानी हूँ। मिसिज वर्मा में बस एक खराबी है उसे सफाई का वहम है। दस बार हाथ पैर धोने पड़ते थे, हर तीसरे दिन नाख़ून दिखाने पड़ते थे, हर रोज़ कपड़े बदलने पड़ते थे। इसलिए मैंने उसका घर छोड़ दिया था। बूढ़ियों को सफाई का वहम कुछ ज्यादा ही होता है। पढ़ी लिखी बूढ़ियों को भी।"

दरअसल इस किताब में कृष्ण बलदेव वैद्य ने शन्नो से उसकी डॉयरी में वो सब लिखवाया है जो आए दिन हम अपने घरों में देखते हैं। काम कराने वालों की प्राथमिकता होती है कि वो हर रोज़ समय पर आएँ, काम पर ध्यान दें , सफाई से काम करें, जबान ना लड़ाएँ और चुपचाप अपना काम कर चली जाएँ। पर कितनों को इस बात की फिक्र होती है कि वो घर से पिट कर आयी हैं,  तबियत नासाज़ है, मालिकों की वहशियाना नज़रों से परेशान है या आज उनका काम करने का मन ही नहीं है। सबसे बड़ी बात ये कि उनके अंदर भी एक आत्मसम्मान की भावना है जिसे हम जानते तो हैं पर उसे तोड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ते।
"छोटी थी तो दूसरों के दिए लत्थड़ कपड़े पहन लेती थी, पहन कर खुश होती थी। जब से बड़ी हुई हूँ । मैंने जूठा खाना और पहनना छोड़ दिया है। मैं नख़रे नहीं करती। बस मुझे अब दूसरों के लत्थड़ पहनने में शर्म आने लगी है। अच्छा नहीं लगता। लगता है जैसे किसी के उतारे हुए नाख़ूनों को चबाना पड़ रहा हो और ये कहना कि उनका स्वाद बहुत अच्छा है। 

मैं आजकल खूब मज़े में नहाती हूँ। पानी तो ज्यादा नहीं लगाती, देर बहुत लगाती हूँ। नहाने से पहले अच्छी तरह से सफाई करती हूँ। कपड़े उतार कर। बीच बीच में शीशा देखती रहती हूँ। बीजी के तौलिए बढ़िया हैं। साबुन भी. तेल भी शैम्पू भी। शैम्पू की झाग सारे बदन पर मल लेती हूँ। बहुत मजा आता है. दो तीन दिनों में ही एड़ियाँ साफ हो गयी हैं। खूब करीम लगाती हूँ उन पर। और ये सब करते हुए डर जाती हूँ यह सोच कर कि कहीं कोई भूल तो नहीं हो रही मुझसे, कहीं कोई चोरी तो नहीं कर रही मैं।"

मैं पूरे विश्वास से कह सकता हूँ कि आज भी अस्सी प्रतिशत भारतीय इसी विचारधारा को हृदय में आत्मसात किए है कि नौकरानी है तो नौकरानी की तरह रहे ज्यादा नखरे ना दिखाए। मध्यम और उच्च मध्यम वर्गीय घरों में काम करते करते उनमें भी उसी जीवन स्तर, मनोरंजन के उन्हीं साधनों का उपभोग करने की इच्छा जागी है। नकल करने की ये प्रवृति घातक तो है पर उससे निज़ात पाना इतना आसान भी नहीं। कभी इन चीजों की आवश्यकता पर वो चोरी करने से भी नहीं हिचकती। ये बिल्कुल गलत प्रवृति है है पर छोटे छोटे शहरों और कस्बों में इनको जो पगार दी जाती है वो क्या उनके सम्मानपूर्वक जीवन जीने के लायक है? उपन्यास में शन्नो भी मासिक के दौरान बाथरूम में पड़ा  विस्पर का एक पैड चुरा लेती है आप कहेंगे ऐसी दिक्कत होने से वो माँग भी सकती थी? कितने लोग देंगे?

शन्नो को काम करने में सबसे ज्यादा सुकून मिलता है अख़बार वाले साब  के यहाँ क्यूँकि वहाँ उसे कभी डाँट नहीं मिलती, वो जो बनाती है साहब खा लेता है और उसके काम में कोई टोकाटाकी भी नहीं करता। मिसेज वर्मा वहीं उसे पढ़ने लिखने पर भी ज़ोर देती हैं। सफाई तो करवाती हैं पर वहाँ की वस्तुओं के इस्तेमाल करने की उसे आज़ादी है। शन्नो सोचती है कि अख़बार वाले साब और मिसिज वर्मा एक साथ क्यूँ नहीं रहते ? पर जब उसकी सोच सच हो जाती है और उन्हें उन लोगों के साथ रहना पड़ता है तो क्या शन्नो की ज़िदगी बदलती है? ये जानने के लिए तो आपको ये किताब पढ़नी पड़ेगी।

कृष्ण बलदेव वैद्य की इस पुस्तक के ज्यादा पन्ने शन्नो की सोच से रँगे हैं जिसे हर रात अपनी खोली में वो कॉपी के पन्नों पर भरती है। शन्नों के मन में आने वाले ख़यालात उसे अपने अन्तरमन का आईना दिखाते हैं और पाठक को समाज के दोगले चेहरे का। समाज के उस वर्ग से जिससे हम सभी रोज़ निबटते हैं की सोच  को जानने और समझने की जरूरत है और ये किताब इसमें हमारी मदद करती है।

इस चिट्ठे पर आप इन पुस्तकों के बारे में भी पढ़ सकते हैं 
पीली छतरी वाली लड़की**, उर्दू की आख़िरी किताब     भाग :1    भाग :2 ***1/2, गुनाहों का देवता ****, कसप ****, गोरा ***, महाभोज ***,मधुशाला ****, मुझे चाँद चाहिए  ***, मित्रो मरजानी ***, घर अकेला हो गया, भाग १ , भाग २ ***             वैसे पुस्तक चर्चा में शामिल किताबों की
 पूरी सूची यहाँ है
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14 टिप्पणियाँ:

अनूप शुक्ल on सितंबर 10, 2014 ने कहा…

हां हमने पढी है यह किताब! किताब के बारे में अच्छा लिखा है!

मीनाक्षी on सितंबर 10, 2014 ने कहा…

शुक्रिया टिवटर का जिसके ज़रिए यहाँ पहुँचे...इतनी बढिया समीक्षा को पढ़कर इच्छा है कि पूरा उपन्यास पढ़ा जाए...नौकरानी के चरित्र का गहन चित्रण प्रभावित करता है..वक्त इस सोच को बदलने में कामयाब हो यही कामना है !

Prashant Priyadarshi on सितंबर 10, 2014 ने कहा…

अनूप जी जब पहली बार मिले थे तब उन्होंने भेंट दी थी.. आपके लिखे से सहमत हूँ इस किताब के बारे में.

अर्चना चावजी on सितंबर 10, 2014 ने कहा…

जाना किताब के बारे में , मन हुआ कि कभी मिले तो खरीदूंगी

Manish Kumar on सितंबर 10, 2014 ने कहा…

अनूप जी शुक्रिया ! जानकर अच्छा लगा।

मीनाक्षी जी वक़्त के साथ कुछ बदलाव तो आ रहा है ..पर हमें अभी अपनि सोच को उस स्तर तक लाने के लिए लंबा फासला तय करना है।

Prashant इस किताब को पढ़कर आपने भी वैसा ही महसूस किया जानकर खुशी हुई।

अर्चना जी ये किताब हमें उल्टे नज़रिए से अपनी ओर देखने के लिए बाध्य करती है।

अर्चना चावजी on सितंबर 10, 2014 ने कहा…

सही है ... हममें ये सोच विकसित होनी चाहिए

Unknown on सितंबर 10, 2014 ने कहा…

मनीष जी,‘नौकरानी की डायरी’ने तो दिल को छू लिया।आशा करती हूँ इस किताब के जरिये लोगों की सोंच कुछ हद तक बदल जाये।इस पोस्ट को साझा करने के लिए धन्यवाद।

Shaily Sharma on सितंबर 10, 2014 ने कहा…

"सबसे बड़ी बात की उसके अंदर भी एक आत्मसम्मान की भावना है जिसे हम जानते तो हैं पर उसे तोड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ते"

बहुत अच्छी पोस्ट

ANULATA RAJ NAIR on सितंबर 10, 2014 ने कहा…

कितनी सहजता से लिखीं हैं बातें...बेहद सटीक...
खुद सुनती हूँ अपने आस पास ऐसा ही कुछ..
बढ़िया पोस्ट...
किताब पढूंगी ज़रूर !

शुक्रिया
अनु

रश्मि शर्मा on सितंबर 11, 2014 ने कहा…

मैंने पढ़ी है ये कि‍ताब....बहुत अच्‍छी लगी।

Pallavi Trivedi on सितंबर 14, 2014 ने कहा…

सच बात .. हम व्यक्ति के श्रम को मान नहीं देते ! कम पैसे वाला आदमी हमारे समाज की द्रष्टि मे छोटा आदमी होता है! व्यक्ति को आंकने का नजरिया बहुत अमानवीय है हमारे समाज में !

Jyoti Dehliwal on सितंबर 14, 2014 ने कहा…

नौकरानी के आत्मसम्मान को दर्शाती बहुत अच्छी पोस्ट...

Unknown on अगस्त 01, 2017 ने कहा…

Very nice

drhadi.masoom on सितंबर 25, 2018 ने कहा…

पढुंगा

 

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