कुछ लोग इब्न ए इंशा को बतौर शायर जानते हैं तो कुछ उनके सफ़रनामों को याद करते हैं। फिर उनके व्यंग्य लेखन को कौन भूल सकता है? इन तीनों विधाओं में उन्होंने जो भी लिखा उसमें एक तरह की सादगी और साफगोई थी। पर गंगा जमुनी तहज़ीब से भिगोयी उनकी लेखनी में जब आप इंशा के भीतर का शख़्स टटोलने की कोशिश करते हैं तो उनके बारे में कोई राय बना पाना बेहद मुश्किल होता है। उर्दू की आख़िरी किताब के हर पन्ने को पढ़ कर आप उनके मजाकिया व्यक्तित्व से निकलते हर तंज़ पर दाद देने को आतुर हो उठते हैं, वहीं चाँदनगर में उनकी शायरी को पढ़कर लगता है कि किसी टूटे उदास दिल की कसक रह रह कर निकल रही है। ये बच्चा किसका बच्चा है, बगदाद की इक रात, सब माया है जैसी कृतियाँ उनके वैश्विक, सामाजिक और आध्यात्मिक सरोकारों की ओर ध्यान खींचती हैं। जब जब लोगों ने उनसे इस सिलसिले में प्रश्न किये उन्होंने बात यूँ ही उड़ा दी या फिर साफ कह दिया कि मुझे उन बातों को सबसे बाँटने की कोई इच्छा नहीं। इंशा जी की ही पंक्तियों में अगर उनके मन की बात कहूँ तो...
दिल पीत की आग में जलता है
हाँ जलता रहे इसे जलने दो
इस आग से लोगों दूर रहो
ठंडी ना करो पंखा ना झलो
कल इंटरनेट पर बरसों पहले किया हुआ उनका एक साक्षात्कार सुन रहा था। इंटरव्यू लेने वाले हज़रत उनकी तारीफ़ में एक से एक नायाब विशेषणों का इस्तेमाल कर रहे थे और इ्ंशा जी अपने उसी खुशनुमा अंदाज़ में श्रोताओं को उन तारीफ़ों के वज़न को कम करने की सलाह दे रहे थे। ये तो मैं आपको पहले भी बता चुका हूँ कि 1927 में जालंधर जिले में जन्मे इब्न ए इ्ंशा का वास्तविक नाम शेर मोहम्मद खाँ था। पर इंशा जी का इस नाम से सरोकार बहुत कम रहा। आपको जान कर ताज्जुब होगा कि जनाब ने छठी कक्षा से ही अदब की ख़िदमत करनी शुरु कर दी थी, पर शेर मुहम्मद खाँ के नाम से नहीं बल्कि इब्ने इंशा के नाम से। हाई स्कूल के दिनों में रूमानियत दिल पर हावी थी। वैसे भी जब वो गाँव से पहली बार लुधियाना शहर आए तो अकेलापन और उदासी उनके ज़ेहम में समा सी गई। इसका असर ये हुआ कि उन्होंने अपना तखल्लुस यानि उपनाम बदल कर मायूस अदमाबादी रख दिया। बाद में किसी उस्ताद ने धर्म की दुहाई देकर उन्हें ये समझाया कि ऐसा नाम रखना गुनाह है तो उन्होंने अपना नाम क़ैसर सहराई कर लिया।
क़ैसर का शाब्दिक अर्थ बादशाह होता है। पर इ्ंशा जी का जीवन इस बादशाहत से कोसों दूर था। अपनी किताब चाँदनगर की भूमिका में उन्होंने कविता के प्रति अपने झुकाव के बारे में लिखा है
मैं स्वाभाव से रोमंटिक रहा हूँ पर मेरा जीवन किसी राजकुमार सा नहीं था। मेरी लंबी नज़्में ज़िदगी की कड़वी सच्चाईयों को रेखांकित करती हैं। मेरी कविताएँ मेरी रूमानियत और ज़माने के सख़्त हालातों के संघर्ष से उपजी है।
पिछली दफ़े मैंने उर्दू की आख़िरी किताब का जिक्र करते है उनके बेहतरीन sense of humor को उभारा था। आज उनकी जिस नज़्म को आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ वो उसके उलट उनके व्यक्तित्व के दूसरे पहलू को सामने लाती है। ये सराय है... उन मुसाफ़िरों की दास्तान है जिन्हें हालात ने रिश्तों के धागे तोड़ते हुए जीवन पथ पर आगे बढ़ने को मज़बूर कर दिया। शायद इंशा जी भी कभी इस मजबूरी का शिकार रहे होंगे..बहरहाल इस नज़्म और उसमें छुपे दर्द को आप तक अपनी आवाज़ में पहुँचाने की कोशिश की है। कुबूल फरमाइएगा..
ये सराय है यहाँ किसका ठिकाना लोगों
याँ तो आते हैं मुसाफ़िर, सो चले जाते हैं
हाँ यही नाम था कुछ ऐसा ही चेहरा मोहरा
याद पड़ता है कि आया था मुसाफ़िर कोई
सूने आँगन में फिरा करता था तन्हा तन्हा
कितनी गहरी थी निगाहों में उदासी उसकी
लोग कहते थे कि होगा कोई आसेबज़दा
हमने ऐसी भी कोई बात न उसमें देखी
ये भी हिम्मत ना हुई पास बिठा के पूछें
दिल ये कहता था कोई दर्द का मारा होगा
लौट आया है जो आवाज़ न उसकी पाई
जाने किस दर पे किसे जाके पुकारा होगा
याँ तो हर रोज़ की बाते हैं ये जीती मातें
ये भी चाहत के किसी खेल में हारा होगा
एक तस्वीर थी कुछ आपसे मिलती जुलती
एक तहरीर थी पर उसका तो किस्सा छोड़ो
चंद ग़ज़लें थीं कि लिक्खीं कभी लिखकर काटीं
शेर अच्छे थे जो सुन लो तो कलेजा थामो
बस यही माल मुसाफ़िर का था हमने देखा
जाने किस राह में किस शख़्स ने लूटा उसको
गुज़रा करते हैं सुलगते हुए बाकी अय्याम
लोग जब आग लगाते हैं बुझाते भी नहीं
अजनबी पीत के मारों से किसी को क्या काम
बस्तियाँवाले कभी नाज़ उठाते भी नहीं
छीन लेते हैं किसी शख्स के जी का आराम
फिर बुलाते भी नहीं , पास बिठाते भी नहीं
एक दिन सुब्ह जो देखा तो सराय में न था
जाने किस देस गया है वो दीवाना ढूँढो
हमसे पूछो तो न आएगा वो जानेवाला
तुम तो नाहक को भटकने का बहाना ढूँढो
याँ तो आया जो मुसाफ़िर यूँ ही शब भर ठहरा
ये सराय है यहाँ किस का ठिकाना ढूँढो ।
आसेबज़दा : प्रेतों के वश में, अय्याम : दिन
दरअसल हर इंसान का व्यक्तित्व इंशा जी की ही तरह अनेक परतों में विभाजित रहता है। कार्यालय. मोहल्ले, परिवार, मित्रों, माशूक और फिर अकेलेपन के लमहों में इस फर्क को आप स्वयम् महसूस करते होंगे। कम से कम अपने बारे में मैं तो ऐसा ही अनुभव करता हूँ। आप क्या सोचते हैं इस बारे में ?
एक शाम मेरे नाम पर इब्ने इंशा
5 टिप्पणियाँ:
वो जिस बुक का जिक्र आपनें किया है, वो हमनें भी आर्डर किया था, पर वो आया ही नहीं...
:(
अदब की दुनिया में जीने वालों के लिए जन्नत है आपका ब्लॉग
इन्शाँ जी की याद दिला कर शाम खुशनुमा डाली आपने।
आपसे गुज़ारिश है,कभी "चाँद" पूरी सुनवाइये :
" रोशनियों की पीली किरचें , पूरब पच्छम फैल गयीं
तूने ये किस शै के धोखे में पत्थर पर दे पटका चाँद "
अदब की स्टूडेंट हूँ, और इन्शाँ साहब की एक नज़्म की तलाश में हूँ, जिसमे उन्होंने " लेडी ऑफ़ शैलट" का ज़िक्र शालात की रानी कह कर किया है.... अगर आप कुछ पता दे तो मेहरबानी !
इतनी प्यारी तहरीर के लिए शुक्रिया.
लोरी वैसे तो चाँद से लगाव में इ्शा जी का कोई सानी नहीं है। इतनी नज़्में लिखी है इस चाँद पर। ऐसा ही लगाव मैं गुलज़ार में भी देखता हूँ। बहरहाल इंशा जी और चाँद पर एक लेखमाला लिखने का मन है। उसमें आपने जिस नज़्म का जिक्र किया है उसे भी स्थान दूँगा। वैसे मुझे उनकी लिखी चाँद के तमन्नाई बोल कर पढ़ना सबसे ज्यादा पसंद है।
आपने जिस दूसरी नज़्म का जिक्र किया है वो मेरे पास है। उस नज़्म का नाम है पिछले पहर के सन्नाटे में... आपको मेल पर भेजने की कोशिश करता हूँ।
प्रशांत मैंने तो इसे राजकमल प्रकाशन से नेट पर आर्डर दे कर मँगवाया था। शायद आब आउट आफ प्रिंट हो गई हो।
आग क़ायम रहे, जीवन का स्वाद क़ायम है
एक टिप्पणी भेजें