तकरीबन बीस साल हो गए इस बात को। इंजीनियरिंग कॉलेज से निकले हुए एक साल बीता था। नौकरी तो तुरंत लग गई थी अलबत्ता काम करने में मन नहीं लग रहा था। मार्च का महीना था। फरीदाबाद में उस वक़्त गर्मियाँ आई नहीं थी। कार्यालय की मगज़मारी के बाद रात को ही फुर्सत के कुछ पल नसीब होते थे। रात्रि भोज ढाबे में होता था और वहीं दोस्त यारों से बैठकी का अड्डा जमा करता था। कभी कोई नहीं मिला तो यूँ ही सेक्टर चौदह के छोटे से बाजार के चक्कर अकेले मार दिया करता था। ऐसी ही चहलकदमी में एक छोटी सी दुकान में बजता ये गीत पहली बार कानों में पड़ा था और मेरे कदम वहीं ठिठक गए थे।
गीत को पहली बार सुनते ही फिल्म देखने का मन हो आया था। आख़िर क्या खास था इस गाने में? जावेद अख्तर के लिखे वो इक्कीस रूपक जो दिल में एक मखमली अहसास जगाते थे, या फिर कुमार शानू जिनकी आवाज़ का सिक्का आशिकी (पहली वाली) के लोकप्रिय नग्मों के बाद हर गली नुक्कड़ पर चल रहा था। पर सच कहूँ तो दूर से आती इस गीत की धुन ही थी जिसने मेरा इस गीत की ओर उस रात ध्यान खींचा था। तब तो मुझे भी ये भी नहीं पता था कि इस गीत के पीछे पंचम का संगीत है। ताल वाद्यों से अलग तरह की आवाज़ पैदा करने में पंचम को महारत हासिल थी। यहाँ भी ताल वाद्यों के साथ गिटार का कितनी खूबसूरती से उपयोग किया था गीत के आरंभ में पंचम ने। ये गीत वैसे गीतों में शुमार किया जाता है जिसमें मुखड़े और अंतरे को एक साथ ही पिरोया गया है। इंटरल्यूड्स पर आप ध्यान दें तो पाएँगे कि हर एक मुखड़े अंतरे के खत्म होते ही गूँजते ढोल को बाँसुरी का प्यारा साथ मिलता है।
पर क्या आपको पता है कि फिल्म में ये गीत कैसे आया? जावेद अख़्तर साहब ने कुछ अर्से पहले इस गीत के बारे में चर्चा करते हुए बताया था कि पहले ये गीत फिल्म में ही नहीं था। स्क्रिप्ट सुनते वक़्त जावेद साहब ने सलाह दी थी कि यहाँ एक गाना होना चाहिए। पंचम और निर्देशक विधु विनोद चोपड़ा ने तब जावेद साहब से कहा कि अगर आपको ऐसा लगता है तो गाना लिखिए। अगर हमें अच्छा लगा तो फिल्म में उसके लिए जगह बना लेंगे।
अगली सिटिंग में जब जावेद जी को जाना था तब उन्हें ख्याल आया कि मैंने सलाह तो दे दी पर लिखा कुछ भी नहीं। रास्ते में वो गीत के बारे में सोचते रहे और एक युक्ति उनके मन में सूझी कि गीत की शुरुआत इक लड़की को देखा तो ऐसा लगा ...से की जाए और आगे रूपकों की मदद से इसे आगे बढ़ाया जाए.. जैसे ये जैसे वो। जावेद साहब सोच रहे थे कि ये विचार शायद ही सबको पसंद आएगा और बात टल जाएगी। पर जब उन्होंने पंचम को अपनी बात कही तो उन्होंने कहा कि तुरंत एक अंतरा लिख कर दो। जावेद साहब ने वहीं बैठ कर अंतरा लिखा और पंचम ने दो मिनट में अंतरे पर धुन तैयार कर दी। जावेद साहब बताते हैं कि पहला अंतरा जिसमें सात रूपक थे तो उन्होंने वहाँ जल्दी ही मुकम्मल कर लिया था पर बाकी हिस्सों में चौदह बचे रूपको को रचने में उन्हें तीन चार दिन लग गए।
अगली सिटिंग में जब जावेद जी को जाना था तब उन्हें ख्याल आया कि मैंने सलाह तो दे दी पर लिखा कुछ भी नहीं। रास्ते में वो गीत के बारे में सोचते रहे और एक युक्ति उनके मन में सूझी कि गीत की शुरुआत इक लड़की को देखा तो ऐसा लगा ...से की जाए और आगे रूपकों की मदद से इसे आगे बढ़ाया जाए.. जैसे ये जैसे वो। जावेद साहब सोच रहे थे कि ये विचार शायद ही सबको पसंद आएगा और बात टल जाएगी। पर जब उन्होंने पंचम को अपनी बात कही तो उन्होंने कहा कि तुरंत एक अंतरा लिख कर दो। जावेद साहब ने वहीं बैठ कर अंतरा लिखा और पंचम ने दो मिनट में अंतरे पर धुन तैयार कर दी। जावेद साहब बताते हैं कि पहला अंतरा जिसमें सात रूपक थे तो उन्होंने वहाँ जल्दी ही मुकम्मल कर लिया था पर बाकी हिस्सों में चौदह बचे रूपको को रचने में उन्हें तीन चार दिन लग गए।
बताइए तो जिन गीतों के बारे में हम इतनी लंबी बातें कर लेते हैं। जिनकी भावनाओं में हम बरसों डूबते उतराते हैं वो इन हुनरमंदों द्वारा चंद मिनटों में ही तैयार हो जाती हैं. ये होता है कलाकार। ख़ैर आपको ये गाना इसके बोलों के साथ एक बार फिर सुनवाए देते हैं।
इक लड़की को देखा तो ऐसा लगा
जैसे खिलता गुलाब
जैसे शायर का ख्वाब
जैसे उजली किरण
जैसे वन में हिरण
जैसे चाँदनी रात
जैसे नरमी की बात
जैसे मन्दिर में हो एक जलता दिया
इक लड़की को देखा तो ऐसा लगा!
इक लड़की को देखा तो ऐसा लगा
जैसे सुबह का रूप
जैसे सरदी की धूप
जैसे वीणा की तान
जैसे रंगों की जान
जैसे बल खाये बेल
जैसे लहरों का खेल
जैसे खुशबू लिये आये ठंडी हवा
इक लड़की को देखा तो ऐसा लगा!
इक लड़की को देखा तो ऐसा लगा
जैसे नाचता मोर
जैसे रेशम की डोर
जैसे परियों का राग
जैसे सन्दल की आग
जैसे सोलह श्रृंगार
जैसे रस की फुहार
जैसे आहिस्ता आहिस्ता बढ़ता नशा
इक लड़की को देखा तो ऐसा लगा!
फिल्म आई और इसके सारे गीत खूब बजे। मनीषा कोइराला फिल्म में गीत में बयाँ की गई लड़की सी प्यारी दिखीं। ये अलग बात है कि जावेद साहब ने ये गीत तब मनीषा को नहीं बल्कि माधुरी दीक्षित को ध्यान में रखकर लिखा था। यूँ तो मैं फिल्म दोबारा देखता नहीं पर इस फिल्म को तब मैंने एक बार अकेले और दूसरी बार दोस्तों के साथ देखा।
पर फिल्म के संगीत निर्देशक पंचम स्वयम् इस गीत की लोकप्रियता को जीते जी नहीं देख सके। वैसे उन्हें इस फिल्म का संगीत रचते हुए ये यकीन हो चला था कि इस बार उनकी मेहनत रंग लाएगी। पंचम पर लिखी गई किताब R D Burman The Man The Music में इस गीत को याद करते हुए फिल्म के निर्देशक विधु विनोद चोपड़ा बताते हैं कि
31 दिसम्बर 1993 को फिल्म सिटी के टाउन स्कवायर में नए साल के उपलक्ष्य में इस एक पार्टी का आयोजन हुआ था। पार्टी में यूनिट के सभी सदस्यों और कामगारों ने हिस्सा लिया था। हमने साउंड सिस्टम पर इक लड़की को देखा तो ऐसा लगा...बजाया। मुभे याद है कि सारे लोगों को उत्साह बढ़ाते और तालियाँ बजाते देख पंचम समझ चुके थे कि उनका काम इस बार जरूर सराहा जाएगा।
शायद पंचम के लिए वो आख़िरी मौका था कि वो अपने रचे संगीत को सबके साथ सुन रहे थे। उसके तीन दिन बाद ही हृदयाघात की वज़ह से उनका देहांत हो गया था।पंचम भले आज हमारे बीच नहीं हों पर ये गीत, इसकी धुन इसके रूपक को हम हर उस सलोने चेहरे के साथ जोड़ते रहेंगे जिसने हमारे दिल में डेरा जमा रखा होगा। क्यूँ है ना?
7 टिप्पणियाँ:
Bahut khoob.
अब तो इस गीत के पीछे की कहानी भी याद रहेगी...
वाकई ऐसा ही था
मनीष क्या आप गीत की धुन के संबंध में कह रहे हैं?
धुन और बोल दोनों
इस गीत में जो मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित करता है वो है इसका संगीत... और इसे जिस खूबसूरती से सानुजी ने गाया है...
गीत में शब्दों का चयन बहुत खूब किया है।।
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