कभी कभी सोचता हूँ कि आख़िर भगवान के मन में ऐसा क्या आया होगा कि उसने मानव मात्र की रचना करने की सोची। क्या फर्क पड़ जाता अगर इस दुनिया में पेड़ पौधे, पर्वत, नदियाँ, सागर और सिर्फ जानवर होते? आख़िर जिस इंसान को प्रेम, करुणा, वातसल्य से परिपूर्ण एक सृजक के रूप में बाकी प्रजातियों से अलग किया जाता है उसी इंसान ने आदि काल से विध्वंसक के रूप में घृणा, द्वेष, क्रूरता और निर्ममता के अभूतपूर्व प्रतिमान रचे हैं और रचता जा रहा है।
आख़िर इंसानों ने आपने आप को इस हद तक गिरने कैसे दिया है? मानवीय मूल्यों के इस नैतिक पतन की एक वज़ह ये भी है कि हमने अपने आप को परिवार, मज़हब, शहर, देश जैसे छोटे छोटे घेरों में बाँट लिया है। हम उसी घेरे के अंदर सत्य-असत्य, न्याय अन्याय की लड़ाई लड़ते रहते हैं और घेरे के बाहर ऐसा कुछ भी होता देख आँखें मूँद लेते हैं क्यूँकि उससे सीधा सीधा नुकसान हमें नहीं होता। यही वज़ह है कि समाज के अंदर जब जब हैवानियत सर उठाती है हम उसे रोकने में अक़्सर अपने को असहाय पाते हैं क्यूँकि हम अपने घेरे से बाहर निकलकर एकजुट होने की ताकत को भूल चुके हैं।
पेशावर हमले में मारे गए मासूम |
पेशावर में जो कुछ भी हुआ वो इसी हैवानियत का दिल दहला देने वाला मंज़र था। पर ये मत समझिएगा कि ये मानवता का न्यूनतम स्तर है। हमारी मानव जाति में इससे भी ज्यादा नीचे गिरने की कूवत है। ये गिरावट तब तक ज़ारी रहेगी जब तक ये दुनिया है और जब तक इंसान अपने चारों ओर बनाई इन अदृश्य दीवारों को तोड़कर एकजुट होने की कोशिश नहीं करता।
पेशावर से जुड़ी इस घटना पर प्रसून जोशी जी की दिल को छूती इस कविता को पढ़ा तो लगा कि मेरी भावनाओं को शब्द मिल गए। आज मन में उठती इन्हीं भावनाओं को अपनी आवाज़ के माध्यम से आप तक पहुंचाने की कोशिश की है..'
जब बचपन तुम्हारी
गोद में आने से कतराने लगे
जब मां की कोख से झांकती जिंदगी
बाहर आने से घबराने लगे
समझो कुछ गलत है।
जब तलवारें फूलों पर जोर आजमाने लगें
जब मासूम आँखों में खौफ़ नजर आने लगे
समझो कुछ गलत है।
जब ओस की बूँदों को हथेलियों पर नहीं
हथियारों की नोक पर तैरना हो
जब नन्हे नन्हे तलवों को
आग से गुजरना हो
समझो कुछ गलत है...।
जब किलकारियाँ सहम जाएँ
जब तोतली बोलियाँ खामोश हो जाएँ
समझो कुछ गलत है।
कुछ नहीं बहुत कुछ गलत है
क्योंकि जोर से बारिश होनी चाहिए थी
पूरी दुनिया में
हर जगह टपकने चाहिए थे आँसू
रोना चाहिए था ऊपर वाले को
आसमान से, फूटफूटकर।
शर्म से झुकनी चाहिए थी
इंसानी सभ्यता की गर्दनें
शोक नहीं, सोच का वक्त है
मातम नहीं, सवालों का वक्त है।
अगर इसके बाद भी
सर उठाकर खड़ा हो सकता है इंसान
समझो कुछ गलत है।
वे बच्चे तो इस दुनिया में नहीं है पर शायद उनकी असमय मौत हममें से कुछ को जरूर सोचने में मदद करे कि हम कहाँ गलत थे।
3 टिप्पणियाँ:
मर्मस्पर्शी कविता ...
सही कहा।इन्सान का होना ही गलत है।
Kya kahun ispe?
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