सोमवार, मार्च 16, 2015

बेअदब साँसें : राहुल वर्मा की त्रिवेणियाँ Beadab Saansein

उपन्यास, कहानी, कविता, ग़ज़ल, नज़्म इन सब से इतर गुलज़ार साहब ने अपनी लेखनी से त्रिवेणी जैसी नई विधा को विकसित किया। वैसे वे ख़ुद कहते हैं कि त्रिवेणी जैसा ही कुछ एक समय टाइम्स ग्रुप की साहित्यिक पत्रिका सारिका में सत्तर के दशक के आरंभ में छपा करता था। पर गुलज़ार के प्रयासों का ही परिणाम था कि पिछले डेढ़ दशक में त्रिवेणी उनकी किताब के माध्यम से सबसे पहले 2001 में आम लोगों के बीच पहुँची। 

ज़ाहिर है उनके चाहने वालों में भी इस विधा को अपनाने की चाहत बढ़ी। इंदौर में पले बढ़े राहुल वर्मा का भी  अहसास के साथ शब्दों के फ़न को बरतने वाली त्रिवेणी के प्रति आकर्षण बढ़ा और अगस्त 2013 में उनकी ये किताब गुलज़ार की किताब के बारह साल बाद बाज़ार में आई। राहुल वर्मा की ये किताब कैसी है ये बताने से पहले एक आम कविता प्रेमी पाठक का ये जान लेना जरूरी है कि आख़िर त्रिवेणी होती क्या है? बकौल गुलज़ार
"शुरू शुरू में तो जब यह फॉर्म बनाई थी, तो पता नहीं था यह किस संगम तक पहुँचेगी - त्रिवेणी नाम इसीलिए दिया था कि पहले दो मिसरे, गंगा-जमुना की तरह मिलते हैं और एक ख़्याल, एक शेर को मुकम्मल करते हैं लेकिन इन दो धाराओं के नीचे एक और नदी है - सरस्वती जो गुप्त है नज़र नहीं आती; त्रिवेणी का काम सरस्वती दिखाना है तीसरा मिसरा कहीं पहले दो मिसरों में गुप्त है, छुपा हुआ है ।"
दो मिसरे कह कर तीसरे में सत्य उद्घाटित करने की इस कला में महारत हासिल करना इतना सरल भी नहीं है। गुलज़ार की इन दो मशहूर त्रिवेणियों को गौर से देखिए

उड़ के जाते हुए पंछी ने बस इतना ही देखा
देर तक हाथ हिलाती रही वह शाख़ फ़िज़ा में
अलविदा कहने को ? या पास बुलाने के लिए ?

सामने आए मेरे देखा मुझे बात भी की
मुस्कराए भी ,पुरानी किसी पहचान की खातिर
कल का अखबार था ,बस देख लिया रख भी दिया

आकाश में उड़ रहे पंछी और हिलती शाख मामूली से ख़याल लगते हैं पर उसमें जब तीसरी पंक्ति जुड़ती है तो दिल के अंदर एक टीस सी उठती है जो पहली दो पंक्तियों में छिपे भाव को मुकम्मल बना देती है। अब दूसरी त्रिवेणी को देखें किसी पुराने परिचित से हल्की सी मुस्कारहट के दो बोल बोल लेने भर से ही उस रिश्ते के अंदर की पीड़ा कहाँ उभर पाती अगर तीसरी पंक्ति में उसकी तुलना गुलज़ार कल के अख़बार से नहीं करते। 

अगर सहज भाषा में कहूँ तो त्रिवेणी एक चलचित्र की तरह है जो पहली दो पंक्तियों में कहानी को गढ़ती तो है पर फिल्म की सोच, उसकी परिपूर्णता तीसरी पंक्ति के माध्यम से उसके क्लाइमेक्स में व्यक्त करती है।

राहुल कोई पूर्णकालिक साहित्यकार नहीं हैं। वकालत जैसे व्यवसाय से जुड़े होने के बावज़ूद उनका कविता प्रेम उन्हें पिछले सोलह वर्षों से त्रिवेणियों की रचना में संलग्न किए हुए है। अपने त्रिवेणी प्रेम की शुरुआत कैसे हुई ये उन्होंने इसी विधा के ज़रिए व्यक्त करना चाहा है..

नज़्म और ग़ज़ल से इतर करूँ, ये उसने टोका था
मेरे लिए भी अब दहलीज़ उलाँघने का, एक मौक़ा था
त्रिवेणी कुछ इस तरह से मिली है मुझे

राहुल वर्मा की इस किताब में दो सौ के करीब त्रिवेणियाँ है।  इन दौ सौ त्रिवेणियों में अधिकांश प्रेम से जुड़ी भावनाओं से ओतप्रोत हैं पर इसके आलावा कई त्रिवेणियों में उन्होंने अपने स्कूल, शहर और ज़िदगी की मुश्किलातों का भी जिक्र किया है। पर मेरा मानना है त्रिवेणियों की प्रकृति के हिसाब से ये संख्या बहुत ज्यादा है।

राहुल किताब की प्रस्तावना में कहते हैं कि आज के इस मशीनी युग में जहाँ वक़्त की मारामारी है वहाँ पाठक तीन पंक्ति में ही भावनाओं की इस त्रिधारा में बह जाता है। पर इस बहाव की निरंतरता बनाए रखने के लिए जज़्बातों की गहराई से निकलते जिन तेज थपेड़ों की जरूरत पड़ती है उसकी कमी इस पुस्तक को पढ़ते हुए पाठक को महसूस होती है।

जब आप उनकी इस किताब से गुजरते हैं तो बीच बीच में अहसासों की सरगर्मियाँ आपके दिल को झकझोरती जरूर हैं पर किताब के कुछ हिस्सों में भावनाओं की सरिता बिना किसी आवेग के शिथिलता से भी बहती जाती है। कई जगह शब्दों, विचारों और एक जगह तो पूरी त्रिवेणी का दोहराव खटकता है।  मुझे लगता है कि अगर इस किताब को लेखक अपनी पचास बेहतरीन त्रिवेणियों तक सीमित रखते तो पाठकों को इसका एक एक पन्ना बार बार उलटने की इच्छा होती।

राहुल वर्मा की इस किताब से मैंने अपनी कुछ पसंदीदा त्रिवेणियाँ चुनी हैं। इन त्रिवेणियों को पढ़ कर मुझे जो आनंद मिला वो अपनी आवाज़ के माध्यम से आप तक पहुंचाने की कोशिश कर रहा हूँ...


 (1)
सहर आई थी कितनी शरमाई हुई
रतजगी शब की यादें लिए अलसाई हुई
रातभर चाँद साथ ही तो था मेरे

(2)
क़तरा क़तरा मिलती है, क़तराते हुए मिलती है
ज़िदगी अब हमपे तरस खाते हुए मिलती है
तुम्हारे साथ होने का बड़ा ही फ़र्क था शायद

 (3)
चीखें थमती नहीं, आवाज़ें आती रहती हैं
कानों में डाल दो उँगली या रूई के फाहे
मेरे माज़ी के पन्ने फड़फड़ाते रहते हैं

 (4)
मैं तेरे दम से ज़िदा था
मैं तेरे ग़म से ज़िंदा हूँ
मेरे जीने की वज़ह हरदम ही रहे हो तुम

(5)
कौन दे जाता है रोज़ इनकी जड़ों में पानी
कौन है जो इनको किसी भी सूरत मरने नहीं देता
जख़्म ये मेरे अब तक किसकी रसद से ज़िंदा हैं

(6)
फिर किसी दर्द की कराह बढ़ी
फिर किसी टीस का दम घुटता है
फिर आज मेरी ये कलम, उम्मीद से है

(7)
घेरे रहते हैं हर पल पुरानी यादों के हसीं मंज़र
जेहन में माज़ी के कई किस्से भी चलते रहते हैं
लोग तन्हाई में भी तनहा कहाँ रहते हैं..

(8)
नज़रे मिली हो और सामने आ जाए चिलमन
चेहरे का नूर आँखें मुसलसल नहीं पी पातीं
बादलों के बीच आ के धूप तुतलाती बहुत है

 (9)
वो कि जब अलविदा कहा था ना तुमने मुझे
ज़िदगी अब तलक उसी रात पर अटकी सी पड़ी है
अब तो बस कहने को ही रोज़ सुबह होती है

(10)
तेरी वहशत, तेरी उम्मीदें और तेरे ख़याल
तेरी हसरत, तेरी यादें और तेरे ख़्वाब
बड़ी मसरूफियत रहती है, इन दिनों मुझे

(11)
मुझको बस एक ही शामत है बहुत
देर करने की तुमको आदत है बहुत
ऐ ज़िदगी! कब से तेरी राह तक रहा हूँ मैं

 (12)
पहली आई थी,बिना मेरी मर्ज़ी के
आख़िरी भी,बिन बताये आ जायेगी
बड़ी बेअदब होती हैं,ये साँसें..

पर लेखक की हिम्मत की इस बात के लिए दाद जरूर देनी चाहिए कि जिस आकाश पर गुलज़ार ने त्रिवेणी को बैठा रखा है उस विधा को अपनी पहली किताब का विषय बनाते समय ज़रा भी हिचकिचाहट महसूस नहीं की, ये जानते हुए भी कि इन्हें गुलज़ार की त्रिवेणियों के स्तर से तौला जाएगा।

बहरहाल उन्होंने एक ज़मीं तो तैयार की ही है जिसे नई पीढ़ी के लेखक समय के साथ और पुख्ता बनाते जाएँगे। जिस तरह अदम गोंडवी व दुष्यन्त कुमार जैसे शायरों ने ग़ज़ल को इश्क़ की सीमाओं से बाहर निकाल कर उसका दायरा बढ़ाया है वैसा ही कुछ त्रिवेणियों में आगे देखने को मिलेगा ऐसी उम्मीद है।

पुस्तक के बारे में
प्रकाशक :  हिन्द युग्म, पृष्ठ संख्या :112, मूल्य Rs 150
Related Posts with Thumbnails

4 टिप्पणियाँ:

Vishwa Deepak on मार्च 17, 2015 ने कहा…

उम्दा..... Rahul भाई बड़ी हीं अच्छी त्रिवेणियाँ लिखते हैं.. मैंने भी पढी हैं। मनीष जी, वैसे कभी मेरी भी किताब ’ख़ैर छोड़ो’ पर गौर फरमाईयेगा। साठ-सत्तर त्रिवेणियाँ उसमें भी हैं

vishaldhamora on मार्च 26, 2015 ने कहा…

बहुत खूबसूरत त्रिवेणी लिखते है राहुल भाई .........

विभा रानी श्रीवास्तव on जनवरी 07, 2016 ने कहा…

आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शनिवार 09 जनवरी 2016 को लिंक की जाएगी ....
http://halchalwith5links.blogspot.in
पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!

Archana Chaoji on जनवरी 17, 2016 ने कहा…

इनकी कुछ त्रिवेणियाँ मैंने भी रिकार्ड की थी ,बहुत गहराई लिए हैं कुछ त्रिवेणियाँ

 

मेरी पसंदीदा किताबें...

सुवर्णलता
Freedom at Midnight
Aapka Bunti
Madhushala
कसप Kasap
Great Expectations
उर्दू की आख़िरी किताब
Shatranj Ke Khiladi
Bakul Katha
Raag Darbari
English, August: An Indian Story
Five Point Someone: What Not to Do at IIT
Mitro Marjani
Jharokhe
Mailaa Aanchal
Mrs Craddock
Mahabhoj
मुझे चाँद चाहिए Mujhe Chand Chahiye
Lolita
The Pakistani Bride: A Novel


Manish Kumar's favorite books »

स्पष्टीकरण

इस चिट्ठे का उद्देश्य अच्छे संगीत और साहित्य एवम्र उनसे जुड़े कुछ पहलुओं को अपने नज़रिए से विश्लेषित कर संगीत प्रेमी पाठकों तक पहुँचाना और लोकप्रिय बनाना है। इसी हेतु चिट्ठे पर संगीत और चित्रों का प्रयोग हुआ है। अगर इस चिट्ठे पर प्रकाशित चित्र, संगीत या अन्य किसी सामग्री से कॉपीराइट का उल्लंघन होता है तो कृपया सूचित करें। आपकी सूचना पर त्वरित कार्यवाही की जाएगी।

एक शाम मेरे नाम Copyright © 2009 Designed by Bie