आदमी की शुरुआती ज़िदगी भले किसी भी मोड़ पर शुरु हो मगर उसमें शायरी का कीड़ा है तो देर सबेर उभरता ही है। अब देखिए मोहब्बतों का शायर कहे जाने वाले क़तील शिफ़ाई एक ज़माने में पहलवानी किया करते थे। आनंद नारायण 'मुल्ला' को शायरी के लिए जब साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाज़ा गया तो वो इलाहाबाद हाई कोर्ट में जज की कुर्सी पर आसीन थे। पर इन सबसे विस्मित करने वाले एक शायर थे अहसान दानिश जिन्होंने मेहनत मजदूरी करते हुए शायरी की और उस मुकाम तक पहुँचे कि देश की ओर से उन्हें तमगा ए इम्तियाज़ का सम्मान प्राप्त हुआ। आज उन्ही दानिश साहब की पुण्य तिथि है तो सोचा उनकी शख़्सियत के साथ उनकी कुछ कृतियों की चर्चा कर ली जाए।
अहसान दानिश का जन्म भारत के मुजफ्फरनगर जिले के कांधला में हुआ था। वे एक बेहद गरीब परिवार से ताल्लुक रखते थे सो चौथी कक्षा से आगे नहीं पढ़ पाए। पर शायरी का शौक़ उन्हें तीसरी ज़मात से ही लग गया था। शुरुआती दौर में उन्होंने खेती बाड़ी में बतौर मज़दूरी की। फसलें काटी, हल चलाया। तीस के दशक में जब लाहौर पहुँचे तो भवन निर्माण के काम में लग गए। अपनी आत्मकथा और साक्षात्कारों में उन्होंने इस बात का जिक्र किया है कि पंजाब यूनिवर्सिटी के निर्माण में उन्होंने गारा ढोया। दीवारों पे रंग रोगन किया।
वक़्त का कमाल या मेहनत की मिसाल देखिए कि जिस यूनिवर्सिटी के निर्माण में बतौर मजदूर उनका पसीना गया , उसी यूनिवर्सिटी ने उन्हें बाद में एम ए के प्रश्नपत्र को बनाने का जिम्मा सौंपा। दानिश कहा करते थे कि उस दौर में वे दिन भर मशक्क़त करते और रात में अपने इल्म की कमी को पूरा करने के लिए पढ़ाई करते और कभी कभी समय निकालकर मुशायरों में बतौर श्रोता शिरक़त करते। बाद में लोग जब ये जानने लगे कि ये कुछ लिखना पढ़ना और शायरी करना जानता है तो प्रूफ रीडिंग और नज़्म लिखने का काम मिलने लगा। चौंकिए मत तब दानिश दो रुपये में अपनी नज़्म दूसरों के लिए लिख कर बेचा करते थे।
एहसान दानिश ने इस दौर में जो कष्ट सहे, जिन परिस्थितियों को झेला उन्हें ही अपनी शायरी का मुख्य विषय बनाया। मजदूरों की ज़िदगी पर लिखी उनकी नज़्में इतनी मकबूल हुई कि ऊन्हें शायर ए मज़दूर की उपाधि दी गई। उनकी नज़्म मज़दूर की बेटी में आर्थिक तंगी के बीच होते विवाह उत्सव का मार्मिक चित्रण हैं। अब देखिए अपने मालिक के कुत्ते द्वारा दौड़ाए जाने को दानिश ने अपनी नज़्म 'मज़दूर और कुत्ता' में किस तरह चित्रित किया है।
कुत्ता इक कोठी के दरवाज़े पे भूँका यक़बयक़
रूई की गद्दी थी जिसकी पुश्त से गरदन तलक
रास्ते की सिम्त सीना बेख़तर ताने हुए
लपका इक मज़दूर पर वह सैद गरदाने हुए
जो यक़ीनन शुक्र ख़ालिक़ का अदा करता हुआ
सर झुकाए जा रहा था सिसकियाँ भरता हुआ
पाँव नंगे फावड़ा काँधे पे यह हाले तबाह
उँगलियाँ ठिठुरी हुईं धुँधली फ़िज़ाओं पर निगाह
जिस्म पर बेआस्तीं मैला, पुराना-सा लिबास
पिंडलियों पर नीली-नीली-सी रगें चेहरा उदास
ख़ौफ़ से भागा बेचारा ठोकरें खाता हुआ
संगदिल ज़रदार के कुत्ते से थर्राता हुआ
क्या यह एक धब्बा नहीं हिन्दोस्ताँ की शान पर
यह मुसीबत और ख़ुदा के लाडले इन्सान पर
क्या है इस दारुल -अमाँ1 में आदमीयत का वक़ार2
जब है इक मज़दूर से बेहतर सगे सरमायादार3
एक वो हैं जिनकी रातें हैं गुनाहों के लिए
एक वो हैं जिनपे शब आती है आहों के लिए
1.सुख से रहने का स्थान, 2.शील,व्यवहार, 3. पूँजीपति
1.सुख से रहने का स्थान, 2.शील,व्यवहार, 3. पूँजीपति
वे कहा करते थे कि मजदूरों के बारे में लिखने के पीछे उनका मकसद यही था कि मालिक उनके हालातों को समझ सकें और उनके श्रम को वो उचित मूल्य और इज्ज़त दें जिसके वे वाकई हक़दार हैं। पर ये नहीं कि उनकी शायरी मजदूरों के हालात तक ही सिमट गई। अन्य शायरों की तरह उन्होंने रूमानी शायरी पर भी हाथ आज़माया। उनका कहना था कि
"जो आदमी हुस्न से मुतासिर नहीं होता उसे मैं आदमी ही नहीं समझता। ये अलग बात है कि मेरी ज़िदगी कुछ यूँ रही कि इसमें ज्यादा उलझने का अवसर मुझे नहीं मिला।"
उनकी लिखी इस ग़ज़ल के चंद अशआर याद आ रहे हैं..
कभी मुझ को साथ लेकर, कभी मेरे साथ चल के
वो बदल गये अचानक, मेरी ज़िन्दगी बदल के
कोई फूल बन गया है, कोई चाँद कोई तारा
जो चिराग़ बुझ गये हैं, तेरी अंजुमन में जल के
एहसान दानिश एक आवामी शायर थे और इसी वज़ह से उनकी भाषा में वो सहजता थी जो आम आदमी के दिल को छू सके। मिसाल के तौर पर इस ग़ज़ल को देखिए। कितनी सहजता से प्रेम और विरह की पीड़ा को इन अशआरों में ढाला है उन्होंने। मेहदी हसन ने भी पूरी तबियत से लफ़्जों के अंदर के अहसासों को और उभार दिया है।
यूँ न मिल मुझ से ख़फ़ा हो जैसे
साथ चल मौज़-ए-सबा हो जैसे
लोग यूँ देख कर हँस देते हैं
तू मुझे भूल गया हो जैसे
इश्क़ को शिर्क की हद तक न बढ़ा
यूँ न छुप हमसे ख़ुदा हो जैसे
मौत भी आई तो इस नाज़ के साथ
मुझ पे एहसान किया हो जैसे
ऐसे अनजान बने बैठे हो
तुम को कुछ भी न पता हो जैसे
हिचकियाँ रात को आती ही रहीं
तू ने फिर याद किया हो जैसे
ज़िन्दगी बीत रही है "दानिश"
एक बेजुर्म सज़ा हो जैसे
अहसान दानिश का कर्मठ जीवन हमेशा काव्य प्रेमियों के लिए प्रेरणा का स्रोत बना रहेगा ऐसी उम्मीद है।
3 टिप्पणियाँ:
एक लाजवाब पोस्ट।
दानिश साहब की नज़्म ज़ेहन को कौंधते हुये गुज़र जाती है।
शुक्रिया अंकित !
बेहतरीन प्रस्तुति ...
ज़िन्दगी बीत रही है "दानिश"
एक बेजुर्म सज़ा हो जैसे ...
वाह क्या खूब! गाया है मेहदी हसन साहब ने ...
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