कल आबिदा परवीन जी को सुन रहा था। बाबा ज़हीन साहब ताजी का लिखा कलाम गा रही थीं "कहूँ दोस्त से दोस्त की बात क्या.. क्या.." । ग़ज़ल तो मतले के बाद किसी और रंग में रंग गयी पर इस मिसरे ने माज़ी के उन लमहों की याद ताजा कर दी जब जब इस शब्द की परिभाषा पर कोई ख़रा उतरा था। बचपन के दोस्तों की खासियत या फिर एक सीमा कह लीजिए कि वो जीवन के जिस कालखंड में हमसे मिले बस उसी के अंदर की छवि को मन में समाए हम जीवन भर उन्हें स्नेह से याद कर लिया करते हैं। ख़ुदा ना खास्ता उनसे आज मिलना हो जाए तो खुशी तो होगी पर शायद ही आप उनसे उस सहजता से बात कर पाएँ क्यूँकि उनके बदले व्यक्तित्व में शायद ही वो अंश बचा हो जिसकी वज़ह से वो कभी आपके खास थे। शायद यही बदलाव वो मुझमें भी महसूस करें।
मुझे याद है कि बचपन में एक छोटी बच्ची से इसलिए दोस्ती थी क्यूँकि वो अपने घर के सारे खिलौनों से मुझे खेलने देती थी। दूसरी से पाँचवी कक्षा तक राब्ता बस उन्हीं बच्चों से था जो रिक्शे में साथ आया जाया करते थे। हाईस्कूल के दोस्तों में दो तीन से ही संपर्क रह पाया है। बाकी सब कहाँ है पता नहीं। पर उनका ख्याल रह रह कर ज़हन में आता रहता है। ये नहीं कि वे मेरे बड़े जिगरी दोस्त थे पर बस इतना भर जान लेना कि वो कहाँ हैं और क्या कर रहे हैं मन को बड़ा संतोष देता है।
हॉस्टल और वो भी कॉलेज हॉस्टल के दोस्तों की बात जुदा है। वो जब भी मिलें जितने सालों के बाद मिले उनसे गप्प लड़ाना उन बेफिक्र पलों को फिर से कुछ देर के लिए ही सही पा लेना होता है। वो पढ़ाई का तनाव, साझा क्रश, फालतू की शैतानियाँ, नौकरी पाने की जद्दोज़हद कितना कुछ तो हमेशा रहता है फिर से उन स्मृतियों में गोते लगाने के लिए।
हॉस्टल और वो भी कॉलेज हॉस्टल के दोस्तों की बात जुदा है। वो जब भी मिलें जितने सालों के बाद मिले उनसे गप्प लड़ाना उन बेफिक्र पलों को फिर से कुछ देर के लिए ही सही पा लेना होता है। वो पढ़ाई का तनाव, साझा क्रश, फालतू की शैतानियाँ, नौकरी पाने की जद्दोज़हद कितना कुछ तो हमेशा रहता है फिर से उन स्मृतियों में गोते लगाने के लिए।
ये तो हुई गुजरे वक़्त की बातें। आज तो अंतरजाल पर हजारों किमी दूर बैठे किसी शख्स को आप चुटकियों में दोस्त बना लेते हैं। पर दोस्तों की इसभारी भीड़ में अगर कोई ये पूछे कि इनमें से कितनों के साथ आपके मन के तार जुड़े हैं? कौन हैं वो जो बिना बोले आपकी मन की भावनाओं को समझ लेते हैं? अपनी हताशा अपनी पीड़ा को किसके सामने बिना झिझक के बाँट सकते हैं आप? तो लगभग एक सा ही जवाब सुनने को मिलेगा।
हममें से हर किसी के लिए ये संख्या उँगलिओं पे गिनी जा सकती है। ऐसे दोस्तों के बारे में जितनी भी बात की जाए कम है। दरअसल हम अपने चारों ओर अपना अक्स ढूँढने की जुगत में रहते हैं। जानते हैं जो शख़्स हमारी तरह का होगा उसे उतनी ही मेरी भावनाओं की कद्र होगी। पर इस दोस्ती में गर प्रेम का रंग मिल जाए तो ? तो फिर मन की भावनाएँ कुछ वैसी ही हो जाती हैं जो बाबा ज़हीन साहब ताजी इस कलाम में व्यक्त कर रहे हैं।
हममें से हर किसी के लिए ये संख्या उँगलिओं पे गिनी जा सकती है। ऐसे दोस्तों के बारे में जितनी भी बात की जाए कम है। दरअसल हम अपने चारों ओर अपना अक्स ढूँढने की जुगत में रहते हैं। जानते हैं जो शख़्स हमारी तरह का होगा उसे उतनी ही मेरी भावनाओं की कद्र होगी। पर इस दोस्ती में गर प्रेम का रंग मिल जाए तो ? तो फिर मन की भावनाएँ कुछ वैसी ही हो जाती हैं जो बाबा ज़हीन साहब ताजी इस कलाम में व्यक्त कर रहे हैं।
बाबा के लिए तो वो दोस्त अराध्य सा हो जाता है, वो उसे जब चाहे देख लेते हैं जब चाहें बातें कर लेते हैं और यहाँ तक कि उस के जलवों की कल्पना कर मन ही मन उल्लासित भी होते रहते हैं। सूफ़ियत के चश्मे से देखें तो इन पंक्तियों में छलकता प्रेम ईश्वर से है पर सभी को ऊपरवाला तो नहीं मिल सकता ना, हाँ इक अच्छा दोस्त जरूर मिल सकता है जो मन के तारों को जोड़ते जोड़ते हृदय की गहराइयों तक पहुँच जाए। तो आइए गौर करें बाबा की लिखी इन पंक्तियों पर
कहूँ दोस्त से दोस्त की बात क्या.. क्या..
रही दुश्मनों से मुलाकात क्या क्या
आख़िर मैं उस दोस्त के बारे में क्या कहूँ जिसने मेरे दिल को अपना घर बना लिया है। अब उससे ये भी तो नहीं कहा जा सकता कि उसका ख्याल दिल में रहते हुए किसी रकीब से मिलने की मैं कल्पना भी नहीं कर सकता।
वो इश्वे वो ग़मज़े वो नग्मे वो जलवे
तलब कर रहे हैं हम आफात क्या क्या
कहूँ दोस्त से दोस्त की बात क्या.. क्या..
ओह उनकी वो कातिल निगाहें ,वो नाज़ , वो नखरे, उनके होठों पर थिरकते गीत व उनकी अदाएँ ...देखिए हम सब जानते हुए भी इन क़यामतों के तलबगार बन बैठे हैं।
जहाँ मुझ को आया ख्याल...आ गए वो
दिखाई हैं दिल ने करामात क्या क्या
कहूँ दोस्त से दोस्त की बात क्या.. क्या..
अब तो ये हालत है कि उनके बारे में कभी कुछ सोचूँ तो जनाब एक दम से सामने ही दिखने लगते हैं ।अगर ये शुरुआत है तो पता नहीं ये दिल आगे कौन कौन से चमत्कार दिखाने वाला है।
न थी गुफ्तगू दरमियाँ भी उनसे
पस ए पर्दा ए दिल हुई बात क्या क्या
कहूँ दोस्त से दोस्त की बात क्या.. क्या.
अब देखिए ना, पर्दे की ओट में दिलों ने जो प्यार भरी गुफ्तगू की उसे आमने सामने बात ना हो पाने के मलाल को मिटा दिया
आबिदा जी की गायिकी हमेशा से बेमिसाल रही है। इस गीत में जिस तरह से उन्होंने 'कहूँ', 'क्या क्या' या 'गुफ्तगू' जैसे टुकड़ों को अलग अलग तरीके से भावनाओं डूब कर दोहराया है कि मन सुन कर गदगद हो जाता है। अगर आपने कोक स्टूडियो के सीजन सात में उनकी ये प्रस्तुति नहीं देखी तो जरूर देखिए..
8 टिप्पणियाँ:
बहुत सुंदर पोस्ट, आज दिन में कई कई बार इस बहाने आबिदा बेगम को सुना, शुक्रिया आपका बनता है इस भागमभाग में फुर्सत के ऐसे खूबसूरत लम्हे दिलाने के लिए
Alka Kaushik आपने आबिदा जी के गाए इस सूफ़ी कलाम को दिल से पसंद किया जान कर खुशी हुई :)
Post and Abida both :)
I appreciate and 'am privileged to count both of you, two fine wordsmiths as my friends
बेहद उम्दा पोस्ट...
प्रीत "wordsmith"Thank u Thank u :)
सराहने का शुक्रिया ज्योति !
मनिष भाई बहुत बहुत शुक्रिया
बहुत सुन्दर गाना एक खूबसूरत आवाज़ के साथ....वाकई हम ऐसे दोस्त की तलाश में होते हे जिसमे हमें अपना अक्स नज़र आये... बहुत बेहतरीन तरीके से दोस्त और दोस्ती की व्याख्या की आपने...
गाने के बोल सूफियाने हे... और सूफी गीत की यही विशेषता होती हे ना की यह एक व्यक्ति विशेष में भी ईश्वर ढूंढ लेती हे.. आबिदा परवीन जी की आवाज़ तो जैसे सूफी संगीत के लिए ही बनी हे...उनका पहला गाना जो मैंने सुना था वो ये था..
"यार को हमने जा ब जा देखा
कही ज़ाहिर कही छुपा देखा"
और में तभी से उनकी आवाज़ की कायल हु..
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