स्कूल के ज़माने तक जो कहानियाँ पढ़ीं सो पढ़ी पर उसके बाद कॉलेज में गुजारे वक़्त से लेकर आज तक कहानियों से ज्यादा उपन्यास पढ़ने के प्रति मेरा रुझान रहा है। तो जो अब तक डेढ़ दो सौ किताबें पढ़ी हैं उनमें कहानी संग्रह का हिस्सा दहाई से कम ही रहा होगा। । कई कहानी संग्रह खरीद कर बस आलमारियों की शोभा बढ़ा रहे हैं। मेरी इस प्रवृति की वजह शायद ये है कि मुझे हर पात्र के चरित्र को अंदर तक समझने का हठ उपन्यास के विस्तार में ही मिल पाता है
इसीलिए पिछले दिसंबर में जब अनु सिंह चौधरी की किताब नीला स्कार्फ मुझे मिली तो आदतन दो कहानियों के बाद पढ़ने का सिलसिला रुक ही गया। फिर फरवरी के आख़िरी हफ्ते में अनु जी का एक साक्षात्कार देखा तो उनके पात्रों पर हुई चर्चा ने किताब की ओर फिर ध्यान आकृष्ट किया। राँची से कोयम्बटूर आने जाने में जो पाँच छः घंटे यात्रा में बीते वो पुस्तक को पूरा खत्म करने के लिए पर्याप्त निकले।
अनु के लेखन से मैं उनके ब्लॉग मैं घुमंतू से पूर्व परिचित था। पर बतौर कहानीकार उन्हें जानने का मेरा ये पहला अनुभव है। इस संग्रह की कुल दर्जन भर कहानियों में लगभग तीन चौथाई कहानियों में मुख्य किरदार के रूप में एक नारी चरित्र है। अच्छी बात ये है कि इन चरित्रों में एकरूपता नहीं है। उनकी नायिकाएँ समाज के अलग अलग वर्गों और उम्र के हर पड़ावों से आती हैं। इसी वजह से कथानक का परिदृश्य तेजी से बदलता जाता है और पाठकों को पुस्तक से बाँध कर रखता है।
जहाँ बिसेसर बो की प्रेमिका और देखवकी की बोलचाल में ठेठ बिहारी परिवेश की झलक मिलती है वहीं रूममेट, लिव इन और प्लीज़ डू नॉट डिस्टर्ब में आप अपने आप को शहरी हिंग्लिश में बात करते चरित्रों के बीच घिरा पाते हैं। पर अनु की खूबी है उनकी भाषा पात्र के हिसाब से अपना लहजा बदलती रहती है। देखवेकी की सुशीला चाची के इन बिहारी बोलों को ही पढ़ लीजिए। किस तरह बेटी की शादी तय होने की भड़ास लड़के व उसके परिवार पर निकाल रही हैं..
व्यक्तिगत रूप से हिंदी कथ्य में अंग्रेजी के बेजा इस्तेमाल का मैं विरोधी रहा हूँ और इस किताब में कहीं कहीं ऐसे प्रयोग खटकते हैं जहाँ चरित्रों के हिसाब से भी अंग्रेजी के बजाए हिंदी का शब्द लिया जा सकता था।
तो आइए बात करते हैं इस किताब में सम्मिलित कहानियों की। रूममेट छोटे शहरों से संघर्ष कर महानगरीय जिंदगी में पहचान बनाने वाली लड़कियों की कहानी है जो अधपके रिश्तों और अरमानों को मूर्त रूप देने में एक दूसरे का संबल बनती हैं। नीला स्कार्फ और लिव इन में लेखिका शादी के पहले और बाद के बनते बिगड़ते रिश्तों की पड़ताल करती नज़र आती हैं। पर जहाँ नीला स्कार्फ का स्वर धीर गंभीर है वहीं लिव इन में आज के डिजिटल प्रेम को वे हल्के फुल्के पर रोचक अंदाज़ में चित्रित कर जाती हैं। थोपे गए रिश्ते के अनुरूप अपने आपको ढालती और अपनी इच्छाओं को दमित कर गृहस्थी की गाड़ी खींचती स्त्री की आंतरिक व्यथा का मार्मिक चित्रण उनकी कहानी मुक्ति में दिखता है। शादी के बाद घर और बच्चों की जिम्मेवारेयों के बीच ख़ुद को घुटता महसूस करती महिलाओं को मर्ज जिंदगी इलाज ज़िंदगी में वे अपना कृत्रिम रंगीन संसार रचने को प्रेरित करती हैं।
पर इस संग्रह की सारी कहानियों मे मुझे बिसेसर बो की प्रेमिका, कुछ यूँ होना उसका और मुक्ति खास पसंद आयी पर वहीं सिगरेट का आखिरी कश और प्लीज डू नॉट डिस्टर्ब इस कथा संग्रह की मुझे दो कमजोर कड़ियाँ लगीं।
दरअसल बिसेसर बो का किरदार इस कहानी संग्रह का सबसे सशक्त किरदार है। अनु बिसेसर बो उर्फ चंपाकली का परिचय अपनी पुस्तक में कुछ यूँ देती हैं..
इसीलिए पिछले दिसंबर में जब अनु सिंह चौधरी की किताब नीला स्कार्फ मुझे मिली तो आदतन दो कहानियों के बाद पढ़ने का सिलसिला रुक ही गया। फिर फरवरी के आख़िरी हफ्ते में अनु जी का एक साक्षात्कार देखा तो उनके पात्रों पर हुई चर्चा ने किताब की ओर फिर ध्यान आकृष्ट किया। राँची से कोयम्बटूर आने जाने में जो पाँच छः घंटे यात्रा में बीते वो पुस्तक को पूरा खत्म करने के लिए पर्याप्त निकले।
अनु के लेखन से मैं उनके ब्लॉग मैं घुमंतू से पूर्व परिचित था। पर बतौर कहानीकार उन्हें जानने का मेरा ये पहला अनुभव है। इस संग्रह की कुल दर्जन भर कहानियों में लगभग तीन चौथाई कहानियों में मुख्य किरदार के रूप में एक नारी चरित्र है। अच्छी बात ये है कि इन चरित्रों में एकरूपता नहीं है। उनकी नायिकाएँ समाज के अलग अलग वर्गों और उम्र के हर पड़ावों से आती हैं। इसी वजह से कथानक का परिदृश्य तेजी से बदलता जाता है और पाठकों को पुस्तक से बाँध कर रखता है।
जहाँ बिसेसर बो की प्रेमिका और देखवकी की बोलचाल में ठेठ बिहारी परिवेश की झलक मिलती है वहीं रूममेट, लिव इन और प्लीज़ डू नॉट डिस्टर्ब में आप अपने आप को शहरी हिंग्लिश में बात करते चरित्रों के बीच घिरा पाते हैं। पर अनु की खूबी है उनकी भाषा पात्र के हिसाब से अपना लहजा बदलती रहती है। देखवेकी की सुशीला चाची के इन बिहारी बोलों को ही पढ़ लीजिए। किस तरह बेटी की शादी तय होने की भड़ास लड़के व उसके परिवार पर निकाल रही हैं..
व्यक्तिगत रूप से हिंदी कथ्य में अंग्रेजी के बेजा इस्तेमाल का मैं विरोधी रहा हूँ और इस किताब में कहीं कहीं ऐसे प्रयोग खटकते हैं जहाँ चरित्रों के हिसाब से भी अंग्रेजी के बजाए हिंदी का शब्द लिया जा सकता था।
तो आइए बात करते हैं इस किताब में सम्मिलित कहानियों की। रूममेट छोटे शहरों से संघर्ष कर महानगरीय जिंदगी में पहचान बनाने वाली लड़कियों की कहानी है जो अधपके रिश्तों और अरमानों को मूर्त रूप देने में एक दूसरे का संबल बनती हैं। नीला स्कार्फ और लिव इन में लेखिका शादी के पहले और बाद के बनते बिगड़ते रिश्तों की पड़ताल करती नज़र आती हैं। पर जहाँ नीला स्कार्फ का स्वर धीर गंभीर है वहीं लिव इन में आज के डिजिटल प्रेम को वे हल्के फुल्के पर रोचक अंदाज़ में चित्रित कर जाती हैं। थोपे गए रिश्ते के अनुरूप अपने आपको ढालती और अपनी इच्छाओं को दमित कर गृहस्थी की गाड़ी खींचती स्त्री की आंतरिक व्यथा का मार्मिक चित्रण उनकी कहानी मुक्ति में दिखता है। शादी के बाद घर और बच्चों की जिम्मेवारेयों के बीच ख़ुद को घुटता महसूस करती महिलाओं को मर्ज जिंदगी इलाज ज़िंदगी में वे अपना कृत्रिम रंगीन संसार रचने को प्रेरित करती हैं।
पर इस संग्रह की सारी कहानियों मे मुझे बिसेसर बो की प्रेमिका, कुछ यूँ होना उसका और मुक्ति खास पसंद आयी पर वहीं सिगरेट का आखिरी कश और प्लीज डू नॉट डिस्टर्ब इस कथा संग्रह की मुझे दो कमजोर कड़ियाँ लगीं।
दरअसल बिसेसर बो का किरदार इस कहानी संग्रह का सबसे सशक्त किरदार है। अनु बिसेसर बो उर्फ चंपाकली का परिचय अपनी पुस्तक में कुछ यूँ देती हैं..
पर बिसेसर बो भले ही जमींदारों के घर में काम कर कर हाड़ मांस जलाती हो पर आत्मसम्मान की भावना उसमें कूट कूट कर भरी है तभी तो बड़े मालिक की गलत नीयत का शिकार बनने से पहले वो उनको ऐसा करारा जवाब देती है कि उनके नीचे की जमीन खिसक जाती है।
बिसेसर बो की ये निर्भयता उसे उन सभी कुलीन पढ़ी लिखी महिलाओं से आगे खड़ा कर देती है जो थोपे गए समझौतों के बीच अपनी ज़िंदगी को घसीट रही हैं। इसीलिए किताब पढ़ लेने के बाद भी वो याद रह जाती है। कुछ यूँ होना उसका पढ़कर लगता है कि बतौर शिक्षक हम किसी छात्र को उसके प्रकट व्यवहार से ही उद्दंड या अनुशासनहीन की श्रेणी में नहीं रख सकते। छात्रों से बेहतर परिणाम के लिए पढ़ाई के आलावा उनके सामाजिक पारिवारिक परिवेश से जुड़ी समस्याओं का निराकरण भी उतना ही जरूरी है।
पाठक इस संग्रह की हर एक कहानी से पूरी तरह जुड़े ना जुड़े पर उसमें कहीं कुछ बातों को अपने दिल से निकलता पाता है। दूसरों में अपने अक्स को प्यार करने की बात हो या यात्रा में अपनी पुरानी यादों के सबसे करीब होने की ऐसी कई छोटी छोटी मन को छू जाती हैं।
कुल मिलाकर ये एक ऐसा कहानी संग्रह है जिसे पढ़ना निश्चय ही आपको रुचिकर लगेगा। इस पुस्तक का प्रकाशन हिंद युग्म ने किया है। पहले संस्करण की सफलता के बाद पुस्तक का दूसरा संस्करण शीघ्र ही बाजार में आ रहा है। चलते चलते इस कथा संग्रह की कहानी लिव इन के कुछ अंशों से आपको रूबरू कराऊँगा जो आपके दिल को अवश्य गुदगुदाएँगे और लेखिका की सहज सरस लेखन शैली की ओर भी आपका ध्यान आकृष्ट करेंगे।
4 टिप्पणियाँ:
एक अच्छी समीक्षा के लिए मनीष जी और पस्तक के लिए अनु जी को ढेरों बधाई
अच्छी समीक्षा |
शुक्रिया रचना और अनूप जी !
रोचक समीक्षा।
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