अस्सी का दशक हिंदी फिल्मी गीतों के लिए कोई यादगार दशक नहीं रहा। पंचम, फिर लक्ष्मीकांत प्यारेलाल से हिंदी गीतों को संगीतबद्ध करने की कमान बप्पी दा तक पहुँची तो लोग यहाँ तक सोचने लगे कि क्या गीतों के साथ जुड़ी संवेदना और मधुरता कभी लौटेगी? पर इस दौर में फूहड़ फिल्मी गीतों द्वारा पैदा किया गया शून्य ग़ज़लों को आम जनों के करीब ले आया। ग़ज़लों को मिली इसी स्वीकार्यता ने संवेदनशील और लीक से हटकर फिल्में बनाने वाले निर्देशकों को अपनी फिल्मों में ग़ज़लों और नज़्मों के इस्तेमाल के लिए प्रेरित किया।
अस्सी के दशक की शुरुआत में तीन ऐसी फिल्में आयीं जो फिल्मी ग़ज़लों की सफलता के लिए मील का पत्थर साबित हुई। ये फिल्में थी अर्थ, बाजार और उमराव जान। उस ज़माने में शायद ही कोई संगीत प्रेमी होगा जिसके पास इन तीनों फिल्मों के कैसेट्स ना रहे हों। जहाँ अर्थ का संगीत ख़ुद ग़ज़ल सम्राट कहे जाने वाले जगजीत सिंह ने दिया था वहीं उमराव जान और बाजार के संगीतकार ख़य्याम थे।
अस्सी के दशक की शुरुआत में तीन ऐसी फिल्में आयीं जो फिल्मी ग़ज़लों की सफलता के लिए मील का पत्थर साबित हुई। ये फिल्में थी अर्थ, बाजार और उमराव जान। उस ज़माने में शायद ही कोई संगीत प्रेमी होगा जिसके पास इन तीनों फिल्मों के कैसेट्स ना रहे हों। जहाँ अर्थ का संगीत ख़ुद ग़ज़ल सम्राट कहे जाने वाले जगजीत सिंह ने दिया था वहीं उमराव जान और बाजार के संगीतकार ख़य्याम थे।
ख़य्याम साहब ने इन फिल्मों में नामाचीन शायरों जैसे मीर तकी मीर, मिर्जा शौक़ शहरयार और मखदूम मोहिउद्दीन की शायरी का इस्तेमाल किया। पर उनकी इस फेरहिस्त में एक अपेक्षाकृत गुमनाम शायर का नाम और भी था। जानते हैं कौन थे वो ? ये शायर थे बशरत नवाज़ खान जिन्हें दुनिया बशर नवाज़ के नाम से जानती है। सन 1935 में औरंगाबाद, महाराष्ट्र में जन्मे बशर नवाज़ ने पिछले हफ्ते अस्सी वर्ष की उम्र में इस दुनिया से विदाई ली।
बशर नवाज़ अपने समकालीनों की तरह युवावस्था में वामपंथी विचारधारा (जो कि वर्ग रहित समाज की परिकल्पना पर आधारित थी) से प्रभावित रहे। पिछले पाँच दशकों से वो उर्दू कविता को अपनी कलम से सींचते रहे। कविता के आलावा समालोचना, नाट्य लेखन जैसी विधाओं में भी हाथ आज़माया। दूरदर्शन के धारावाहिक अमीर खुसरो के लिए पटकथा लिखी और बाजार के आलावा लोरी और जाने वफ़ा जैसी फिल्मों के लिए गीत भी लिखे। पर हिंदी फिल्म संगीत में वो अपनी भागीदारी को बाजार फिल्म के गीत करोगे याद तो हर बात याद आयेगी ...से वो हमारे हृदय में हमेशा हमेशा के लिए अंकित कर गए।
ये तो हम सभी जानते हैं कि ज़िंदगी की पटकथा को तो ऊपर वाला रचता है। जाने कब कैसे किसी से मिलाता है। साथ बिताए पलों की खुशबू से दिल में अरमान जगने ही लगते हैं कि एक ही झटके में अलग भी कर देता है । फिर छोड़ देता है अकेला अपने आप से, अपने वज़ूद से जूझने के लिए। साथ होती हैं तो बस यादें जो उन गुजरे लमहों की कसक को रह रह कर ताज़ा करती रहती हैं।
फिल्म के किरदारों के बीच की कुछ ऐसी ही परिस्थितियों को नवाज़ साहब ने चाँद, बादल, बरसात और दीपक जैसे बिंबों में समेटा है। गीत में शीशे की तरह चमकते चाँद के बीच भटकते बादलों में बनते चेहरे की उनकी सोच हो या फिर जल जल कर पिघलती शम्मा से वियोग में डूबे दिल की तुलना..भूपेंद्र की आवाज़ में इन लफ्जों को सुन मन उदास फिर और उदास होता चला जाता है.. तो आज बशर नवाज़ साहब को याद करते हुए ये गाना फिर से सुन लीजिए..
करोगे याद तो हर बात याद आयेगी
गुजरते वक्त की, हर मौज़ ठहर जायेगी
ये चाँद बीते जमानों का आईना होगा
भटकते अब्र में चेहरा कोई बना होगा
उदास राह कोई दास्तां सुनाएगी
बरसता भीगता मौसम धुआँ धुआँ होगा
पिघलती शम्मो पे दिल का मेरे गुमाँ होगा
हथेलियों की हिना याद कुछ दिलायेगी
गली के मोड़ पे सूना सा कोई दरवाजा
तरसती आँखों से रस्ता किसी का देखेगा
निगाह दूर तलक जा के लौट आयेगी
बशर साहब की शायरी से ज्यादा रूबरू तो मैं नहीं हुआ हूँ। पर उनको जितना पढ़ पाया हूँ उसमें उनकी लिखी ये ग़ज़ल मुझे बहुत प्यारी लगती है। आज जब वो हमारे बीच नहीं है अपनी आवाज़ के माध्यम से उनके हुनर, उनकी शख़्सियत को विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करना चाहता हूँ ..
बहुत था ख़ौफ जिस का फिर वही किस्सा निकल आया
मेरे दुख से किसी आवाज़ का रिश्ता निकल आया
वो सर से पाँव तक जैसे सुलगती शाम का मंज़र
ये किस जादू की बस्ती में दिल तन्हा निकल आया
जिन आँखों की उदासी में बयाबाँ1 साँस लेते हैं
उन्हीं की याद में नग़्मों का ये दरिया निकल आया
सुलगते दिल के आँगन में हुई ख़्वाबों की फिर बारिश
कहीं कोपल महक उट्ठी, कहीं पत्ता निकल आया
पिघल उठता है इक इक लफ़्ज़ जिन होठों की हिद्दत2 से
मैं उनकी आँच पी कर और सच्चा निकल आया
गुमाँ था जिंदगी बेसिमत ओ बेमंजिल बयाबाँ है
मगर इक नाम पर फूलों भरा रस्ता निकल आया
1. वीरानियाँ, 2. तीखापन
फिल्म के किरदारों के बीच की कुछ ऐसी ही परिस्थितियों को नवाज़ साहब ने चाँद, बादल, बरसात और दीपक जैसे बिंबों में समेटा है। गीत में शीशे की तरह चमकते चाँद के बीच भटकते बादलों में बनते चेहरे की उनकी सोच हो या फिर जल जल कर पिघलती शम्मा से वियोग में डूबे दिल की तुलना..भूपेंद्र की आवाज़ में इन लफ्जों को सुन मन उदास फिर और उदास होता चला जाता है.. तो आज बशर नवाज़ साहब को याद करते हुए ये गाना फिर से सुन लीजिए..
करोगे याद तो हर बात याद आयेगी
गुजरते वक्त की, हर मौज़ ठहर जायेगी
ये चाँद बीते जमानों का आईना होगा
भटकते अब्र में चेहरा कोई बना होगा
उदास राह कोई दास्तां सुनाएगी
बरसता भीगता मौसम धुआँ धुआँ होगा
पिघलती शम्मो पे दिल का मेरे गुमाँ होगा
हथेलियों की हिना याद कुछ दिलायेगी
गली के मोड़ पे सूना सा कोई दरवाजा
तरसती आँखों से रस्ता किसी का देखेगा
निगाह दूर तलक जा के लौट आयेगी
बशर साहब की शायरी से ज्यादा रूबरू तो मैं नहीं हुआ हूँ। पर उनको जितना पढ़ पाया हूँ उसमें उनकी लिखी ये ग़ज़ल मुझे बहुत प्यारी लगती है। आज जब वो हमारे बीच नहीं है अपनी आवाज़ के माध्यम से उनके हुनर, उनकी शख़्सियत को विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करना चाहता हूँ ..
बहुत था ख़ौफ जिस का फिर वही किस्सा निकल आया
मेरे दुख से किसी आवाज़ का रिश्ता निकल आया
वो सर से पाँव तक जैसे सुलगती शाम का मंज़र
ये किस जादू की बस्ती में दिल तन्हा निकल आया
जिन आँखों की उदासी में बयाबाँ1 साँस लेते हैं
उन्हीं की याद में नग़्मों का ये दरिया निकल आया
सुलगते दिल के आँगन में हुई ख़्वाबों की फिर बारिश
कहीं कोपल महक उट्ठी, कहीं पत्ता निकल आया
पिघल उठता है इक इक लफ़्ज़ जिन होठों की हिद्दत2 से
मैं उनकी आँच पी कर और सच्चा निकल आया
गुमाँ था जिंदगी बेसिमत ओ बेमंजिल बयाबाँ है
मगर इक नाम पर फूलों भरा रस्ता निकल आया
1. वीरानियाँ, 2. तीखापन
9 टिप्पणियाँ:
Bahut badhiya Manish Ji!
Bashar Nawaz sahab ke bare mein jankari dene ke liye dhanyawad manish ji...#bazaar film se #phirchhidiraatbaatphulonki bhi mujhe beehad pasand hai...
मनीष जी सहृदय धन्यवाद। इस ब्लॉग ने वाकई मेरे सोच को काफी प्रभावित किया है। मेरे सोच को एक नई दिशा दी है।
हर्षवर्धन हार्दिक आभार !
सुमित, मनीष लेख पसंद करने का शुक्रिया
मुकेश जानकर खुशी हुई
मनीष जी बहुत बहुत धन्यवाद बशर जी के बारे मे बताने के लिए,करोगे याद तो हर बात याद आयेगी मेरी पसंदीदा गज़ल है,आज भी सुनती हूँ तो गली के मोड़ पर नसीर जी मिल जाते है,
बहुत धन्यवाद मनीष जी इस पोस्ट के लिए!गली के मोड़ पर सूना सा कोई दरवाजा़ ,ये दृश्य आज भी आँखों में फ्रीज़ है। one of my favorite gazal !
अरे वाह ! जानकर खुशी हुई सीमा कि आपको इतनी पसंद है ये ग़ज़ल :)
बशर साहब के बारे मे पहली बार इतनी तफसील से मालूमात हासिल हुए वरना गजल सुनकर हमेशा यही लगता था कि कौन है ये नाजुक गजल कहने वाला, इतना गुमनाम क्यौ है. दिली शुक्रिया.
बशर साहब के बारे मे पहली बार इतनी तफसील से मालूमात हासिल हुए वरना गजल सुनकर हमेशा यही लगता था कि कौन है ये नाजुक गजल कहने वाला, इतना गुमनाम क्यौ है. दिली शुक्रिया.
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