पिछले हफ्ते आपसे ख़य्याम साहब और फिल्मी ग़ज़लों के उस छोटे परंतु स्वर्णिम दौर की बात हो रही थी जिसमें दो तीन सालों के बीच बाजार, उमराव जान और अर्थ जैसी फिल्में अपने अलहदा संगीत की वज़ह से जनमानस के हृदय में अमिट छाप छोड़ गयीं।
डिस्को संगीत और मार धाड़ वाली फिल्मों के उस दौर में जब मुजफ्फर अली ख़य्याम साहब के पास लखनऊ की मशहूर तवायफ़ उमराव जान की पटकथा सामने लाए तो उन्होंने इसे चुनौती की तरह लिया। मुजफ्फर अली ख़य्याम से पहले जयदेव को फिल्म के लिए बात कर चुके थे और संगीतकार जयदेव ने लता से फिल्म के गीत गवाने का निश्चय भी कर लिया था। पर होनी को तो कुछ और मंज़ूर था । पारिश्रमिक के लिए बात अटकी और फिल्म ख़य्याम की झोली में आ गिरी।
फिल्म की कहानी के अनुरूप ग़ज़लों को लिखने के लिए एक ख़ालिस उर्दू शायर की जरूरत थी। लिहाज़ा उसके लिए शहरयार साहब चुन लिए गए। पर इन ग़ज़लों को गाने के लिए आशा जी को चुनना थोड़ा चौंकाने वाला जरूर था। आशा जी उस दौर तक चुलबुले, शोख़ गीतों के लिए ही ज्यादा जानी जाती थीं। संज़ीदा गीतों को भी उन्होंने मिले मौकों में अच्छी तरह निभाया था पर ग़ज़ल के फ़न में उनका कोई तजुर्बा नहीं था।
ख़य्याम साहब से ये प्रश्न हमेशा से पूछा जाता रहा कि आख़िर उन्होंने लता जी की जगह आशा जी को क्यूँ चुना ? उनका कहना था कि उन्हें ये भय सता रहा था कि अगर उन्होंने इस फिल्म के लिए लता की आवाज़ का इस्तेमाल किया होता तो उनकी गायिकी की तुलना पाकीज़ा में गाए उनके बेमिसाल मुज़रों से की जाने लगती जो वो नहीं चाहते थे । दूसरे उमराव जान के किरदार के लिए उन्हें आशा की आवाज़ ज्यादा मुफ़ीद लग रही थी। पर उनकी आवाज़ को तवायफ़ के किरदार की तरह प्रभावी बनाने के लिए उन्होंने उनके स्वाभाविक सुर से आधा सुर नीचे गवाया। आशा जी इस बदलाव से खुश तो नहीं थीं पर जब उन्होंने इसका नतीजा देखा तो वो समझ गयीं कि ख़य्याम की सोच बिल्कुल सही थी।
वैसे तो इस फिल्म में प्रयुक्त सभी ग़ज़लें मकबूल हुईं। पर जहाँ दिल चीज़ क्या है..., ये क्या जगह है दोस्तों...., इन आँखो की मस्ती के मस्ताने हजारों हैं.... का संगीत एक मुजरे के रूप में प्रस्तुत किया गया वहीं जुस्तज़ू जिसकी थी उसको तो ना पाया हमने.... का फिल्मांकन और संगीत एक खालिस ग़ज़ल का रखा गया। फिल्म देखते हुए तो मुझे इसके सारे नग्मे दिलअजीज़ लगते हैं पर कहानी के इतर दर्द में डूबी ये ग़ज़ल गाहे बगाहे ज़ेहन में आती रहती है।
अब फिल्म की कहानी में इस ग़ज़ल की परिस्थिति को ज़रा याद कीजिए। उमराव जान एक अच्छे घर से अगवा कर के कोठे पर बैठा दी गयीं। वहाँ नवाब साहब से मुलाकात हुई, प्रेम हुआ। नवाब नर्म दिल थे, मोहब्बत उन्हें भी थी पर अपनी माँ से बगावत करने की हिम्मत नहीं थी। शादी किसी और से कर ली और छोड़ दिया उमराव को उसके हाल पर तनहा। उमराव उन्हीं नवाब साहब के सामने इस ग़ज़ल के माध्यम से अपनी तनहा ज़िदगी की गिरहें खोलती हैं।
डिस्को संगीत और मार धाड़ वाली फिल्मों के उस दौर में जब मुजफ्फर अली ख़य्याम साहब के पास लखनऊ की मशहूर तवायफ़ उमराव जान की पटकथा सामने लाए तो उन्होंने इसे चुनौती की तरह लिया। मुजफ्फर अली ख़य्याम से पहले जयदेव को फिल्म के लिए बात कर चुके थे और संगीतकार जयदेव ने लता से फिल्म के गीत गवाने का निश्चय भी कर लिया था। पर होनी को तो कुछ और मंज़ूर था । पारिश्रमिक के लिए बात अटकी और फिल्म ख़य्याम की झोली में आ गिरी।
फिल्म की कहानी के अनुरूप ग़ज़लों को लिखने के लिए एक ख़ालिस उर्दू शायर की जरूरत थी। लिहाज़ा उसके लिए शहरयार साहब चुन लिए गए। पर इन ग़ज़लों को गाने के लिए आशा जी को चुनना थोड़ा चौंकाने वाला जरूर था। आशा जी उस दौर तक चुलबुले, शोख़ गीतों के लिए ही ज्यादा जानी जाती थीं। संज़ीदा गीतों को भी उन्होंने मिले मौकों में अच्छी तरह निभाया था पर ग़ज़ल के फ़न में उनका कोई तजुर्बा नहीं था।
Khayyam with Asha Bhosle |
वैसे तो इस फिल्म में प्रयुक्त सभी ग़ज़लें मकबूल हुईं। पर जहाँ दिल चीज़ क्या है..., ये क्या जगह है दोस्तों...., इन आँखो की मस्ती के मस्ताने हजारों हैं.... का संगीत एक मुजरे के रूप में प्रस्तुत किया गया वहीं जुस्तज़ू जिसकी थी उसको तो ना पाया हमने.... का फिल्मांकन और संगीत एक खालिस ग़ज़ल का रखा गया। फिल्म देखते हुए तो मुझे इसके सारे नग्मे दिलअजीज़ लगते हैं पर कहानी के इतर दर्द में डूबी ये ग़ज़ल गाहे बगाहे ज़ेहन में आती रहती है।
अब फिल्म की कहानी में इस ग़ज़ल की परिस्थिति को ज़रा याद कीजिए। उमराव जान एक अच्छे घर से अगवा कर के कोठे पर बैठा दी गयीं। वहाँ नवाब साहब से मुलाकात हुई, प्रेम हुआ। नवाब नर्म दिल थे, मोहब्बत उन्हें भी थी पर अपनी माँ से बगावत करने की हिम्मत नहीं थी। शादी किसी और से कर ली और छोड़ दिया उमराव को उसके हाल पर तनहा। उमराव उन्हीं नवाब साहब के सामने इस ग़ज़ल के माध्यम से अपनी तनहा ज़िदगी की गिरहें खोलती हैं।
जुस्तजू जिसकी थी उसको तो न पाया हमने
इस बहाने से मगर देख ली दुनिया हमने
तुझ को रुसवा न किया ख़ुद भी पशेमाँ न हुए
इश्क़ की रस्म को इस तरह निभाया हमने
इस बहाने से मगर देख ली दुनिया हमने
तुझ को रुसवा न किया ख़ुद भी पशेमाँ न हुए
इश्क़ की रस्म को इस तरह निभाया हमने
शहरयार साहब की यूँ तो पूरी ग़ज़ल ही कमाल की है पर इसके ये दो शेर मुझे खास पसंद हैं। एक में उमराव कहती हैं ना तो मैंने तुम्हारी बेवफाई पर सवाल उठाए ना ही ख़ुद पश्चाताप की अग्नि में जली। बस इसी क़ायदे से अपनी मोहब्बत निभाती रही।
कब मिली थी कहाँ बिछड़ी थी हमें याद नहीं
ज़िन्दगी तुझ को तो बस ख़्वाब में देखा हमने
तेरे वज़ूद में मैंने अपनी ज़िंदगी की झलक देखी
थी। अब तो ये भी याद नहीं कि वो झलक कब आँखों से ओझल हो गई। अब तो लगता है कि तेरा, मेरी ज़िदगी में आना बस एक ख़्वाब बनकर ही रह गया।
ऐ 'अदा' और सुनाए भी तो क्या हाल अपना
उम्र का लम्बा सफ़र तय किया तनहा हमने
तो आइए सुनते हैं आशा जी को उनकी इस भावपूर्ण ग़ज़ल में
दरअसल फिल्म में शहरयार की शायरी का प्रयोग यूँ हुआ है कि कहानी उस में ख़ुद बा ख़ुद बयाँ हो जाती है। अब यहीं देखिए ना ग़ज़ल के पहले संवादों के बीच शहरयार की एक दूसरी ग़ज़ल के कुछ अशआर कितनी खूबसूरती से पिरोये गए हैं
तुझसे बिछुड़े है तो अब किससे मिलाती है हमें
जिन्दगी देखिये क्या रंग दिखाती है हमें
गर्दिशे-वक़्त का कितना बड़ा अहसाँ है कि आज
ये ज़मी चाँद से बेहतर नज़र आती है हमें
गर्दिशे-वक़्त का कितना बड़ा अहसाँ है कि आज
ये ज़मी चाँद से बेहतर नज़र आती है हमें
वैसे क्या आपको पता है कि जुस्तज़ू जिसकी थी ..शहरयार पहले ही लिख चुके थे। पर इस फिल्म के लिए अपने मतले को वही रखते हुए उन्होंने अपनी ग़ज़ल में थोड़ा रद्दोबदल कर उसे वे इस रूप में ले आए। वैसे भी मक़ते में उमराव जान का तख़ल्लुस ''अदा'' लाने के लिए बदलाव जरूरी था। बहरहाल इस फिल्म के संगीत ने आम और खास सब से वाहवाहियाँ बटोरी। ख़य्याम को सर्वश्रेष्ठ संगीत निर्देशक के लिए फिल्मफेयर और राष्ट्रीय पुरस्कार मिले। आशा जी को सर्वश्रेष्ठ गायिका का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला और रही शहरयार की बात तो वे इसके बाद जहाँ भी गए उनके साथ उमराव जान के गीतों के लेखक का तमगा साथ गया। अपने एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था
"मैं AIIMS में जाता हूँ तो वहाँ मुझे लाइन नहीं लगानी पड़ती़। डॉक्टर भी कार्ड देखे बिना बड़ी खुशी से मुआयना कर देता है। ट्रेन या हवाई जहाज में रिजर्वेशन का मसला हो या कोई और उमराव जान के गानों ने मेरी बड़ी मदद की है। मेरे बच्चों से अक़्सर ये सवाल किया जाता है कि आप उसी शहरयार के बच्चे हैं जिसने उमराव जान के गाने लिखे हैं?"
7 टिप्पणियाँ:
मेरी प्रिय ग़ज़ल और 'तुम को रुसवा ना किया' मेरा प्रिय शेर
अच्छा लगा इस ग़ज़ल को फिल्माये और गवाये जाने के बारे में जानकर।
उमराव जान के लगभग सभी गाने मुझे पसंद हैं आपने इस गाना को share किया आपको बहुत बहुत धन्यवाद |
Khayyam sahab ke gaane to ek se badhkar ek hain..aur umrao jaan ki ghajlein to bemisaal hain..share karne ke liye thanks manish ji.
उमराव जान के बारे में क्या कहें इसके गीत सुनकर तो दिल का हाल ही कुछ और होता है। मनीष जी को बहुत बहुत धन्यवाद।
कंचन, सोनरूपा, मुकेश, मनीष कौशल व ममता जी उमराव जान के इस गीत और उससे जुड़े इस आलेख को पसंद करने का शुक्रिया !
अपने जज़्बात ज़ाहिर करने का सबसे अच्छा तरीक़ा है "ग़ज़ल-गोई",,,,,,
लेकिन ग़ज़ल लिखना बहुत मुश्किल है,
दर्द को बयान करने के लिए, अलफ़ाज़ का इन्तख़ाब आसान नहीं होता,,,,
"उमराव जान" फिल्म में उस्ताद शाइर "शहरयार साहब" की तसनीफ़ का जवाब नहीं,,,
''
इस कहानी से रु-ब-रु कराने के लिए शुक्रिया,,,
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