पिछले बुधवार शास्त्रीय संगीत के विख्यात गायक स्वर्गीय कुमार गंधर्व की पत्नी और जानी मानी गायिका वसुन्धरा कोमकली का देहांत हो गया। संगीत नाटक अकादमी द्वारा पुरस्कृत वसुन्धरा जी को अक्सर आम संगीतप्रेमी कुमार गंधर्व के साथ गाए उनके निर्गुण भजनों के लिए याद करते हैं। पर इससे पहले मैं आपको वो भजन सुनाऊँ,कुछ बातें शास्त्रीय संगीत की इस अमर जोड़ी के बारे में।
वसुन्धरा जी मात्र बारह साल की थीं जब उनकी मुलाकात कुमार गंधर्व से कोलकाता में हुई। कुमार गंधर्व को उनका गायन पसंद आया और उन्होंने वसुन्धरा को मुंबई आकर सीखने का आमंत्रण दे दिया। पर द्वितीय विश्व युद्ध के शुरु हो जाने की वज़ह से वसुन्धरा 1946 में ही मुंबई जा सकीं। तब तक वो आकाशवाणी की नियमित कलाकार बन चुकी थीं। उधर गंधर्व साहब भी इतने व्यस्त हो गए थे कि वसुंधरा को उन्होंने अपने बजाए प्रोफेसर देवधर से सीखने की सलाह दे डाली। वसुन्धरा दुखी तो हुईं पर उन्होंने देवधर जी से सीखना शुरु कर दिया। बाद में वो कुमार गंधर्व की भी शिष्या बनी। वसुंधरा जी से अक्सर गायिकी के प्रति कुमार गंधर्व की अवधारणा के बारे में पूछा जाता रहा है। वो जवाब में कहा करती थीं..
"संगीत सिर्फ एक शिल्प नहीं बल्कि कला है। सिर्फ लगातार रियाज़ ही मत किया करो पर उसके बीच में अपने संगीत के बारे में भी सोचो।"
शायद इसी सोच ने ख्याल गायिकी में उन्हें देश के शीर्ष गायकों की कोटि में ला कर खड़ा कर दिया।
कबीर के जिस निर्गुण भजन को आज आपसे बाँट रहा हूँ वो सबसे पहले छः साल पूर्व मैंने अपने मित्र के ज़रिए ब्लॉग पर ही सुना था। पहली बार इस भजन को सुनकर मन पूरी तरह कुमार गंधर्व और वसुन्धरा कोमकली की मधुर तान से वशीभूत हो गया था। कैसा तो तिलिस्म था इस युगल स्वर में कि शब्दों की तह में पहुँचे बिना ही मन भक्तिमय हो उठा था। पर बार बार सुनते हुए कबीर के गूढ़ से लगते बोलों को समझने की इच्छा भी बढ़ती गई। कबीर के चिंतन को समझने के लिए कई आलेख पढ़े और फिर इस भजन को दोबारा सुना तो लगा कि संगीत की स्वरलहरी में डूबते हुए जो वैचारिक धरातल पहले अदृश्य सा हो गया था वो दिखने लगा है। तो आइए कोशिश करते हैं इस निर्गुण भजन में कबीर की सोच को टटोलने की
निर्भय निर्गुण गुण रे गाऊँगा
मूल-कमल दृढ़-आसन बाँधू जी
उल्टी पवन चढ़ाऊँगा, चढ़ाऊँगा..
निर्भय निर्गुण ....
मन-ममता को थिर कर लाऊँ जी
पांचों तत्त्व मिलाऊँगा जी, मिलाऊँगा
निर्भय निर्गुण ....
मनुष्य की आध्यात्मिक यात्रा का उद्देश्य दरअसल अपने अस्तित्व के कारण को तलाशना रहा है। इस तलाश का स्वाभाविक अंत तभी हो सकता है जब मनुष्य निडर हो अपने कर्मों और उसके फल के प्रति। यानि दूसरे शब्दों में कहें तो निडरता पहली सीढ़ी है उस सत्य तक पहुँचने की। जैसा कि विदित है कि कबीर धर्म के बाहरी आडंबरों के घोर विरोधी थे और निर्गुण ईश्वर के उपासक। कबीर इसी निडरता के साथ उस निराकार ईश्वर की आराधना कर रहे हैं।
कबीर फिर कहते हैं कि इस यात्रा की शुरुआत से पहले अपनी उर्जा को एक सशक्त आधार देना होगा फैले कमल रूपी आसन में। जिस तरह कमल कीचड़ के ऊपर फलता फूलता है उसी तरह हमें अपने अंदर की ॠणात्मकता और भय को त्याग कर उसे सृजनशीलता में बदलना होगा। मूलाधार से अपनी उर्जा को ऊपर की ओर ले जाने का यही मार्ग दिखाया है कबीर ने।
पर ये इतना आसान नहीं है। इस राह में बाधाएँ भी हैं। आख़िर इस उर्जा को बढ़ने से रोकता कौन है? इन्हें रोकती हैं हमारी इच्छाएँ और लगाव। एक बार इन बंधनों से मुक्त होकर अगर अपने को प्रकृति के पंचतत्त्वों में विलीन कर लूँ तो मुझे अपने होने का मूल कारण सहज ही दिख जाएगा।
इंगला-पिंगला सुखमन नाड़ी जी
त्रिवेणी पर हाँ नहाऊँगा, नहाऊँगा
निर्भय निर्गुण ....
इंगला-पिंगला सुखमन नाड़ी जी
त्रिवेणी पर हाँ नहाऊँगा, नहाऊँगा
निर्भय निर्गुण ....
पाँच-पचीसों पकड़ मँगाऊँ जी
एक ही डोर लगाऊँगा, लगाऊँगा
निर्भय निर्गुण ....
इंगला नाड़ी वह नाड़ी है जो नाक की बाँयी तरफ से आरम्भ होकर आज्ञा चक्र होते हुये मूलाधार तक जाती है। पिंगला दाँयी तरफ होती है और इंगला की पूरक मानी जाती है। इंगला और पिंगला के मिलन के मध्य स्थल से सुषुम्ना नाड़ी निकलती है। अपने अंदर के सत्य तक पहुँचने के लिए मैं इन्हीं नाड़ियों को वश में करूँगा । मुझे विश्वास है कि नाड़ियों की इस त्रिवेणी के सहारे शरीर में बहती उर्जा को नियंत्रित कर जो उसमें डुबकी लगा लेगा वो समय और काल के बंधनों से मुक्त हो उस सत्य को पहचान लेगा। एक बार पंच तत्व और जीवन को अनुभव करने वाले पच्चीस तरीके नियंत्रण में आ गए तो उन्हें मैं अपनी अंतरआत्मा से एक ही डोर में जोड़ लूँगा।
शून्य-शिखर पर अनहद बाजे जी
राग छत्तीस सुनाऊँगा, सुनाऊँगा
निर्भय निर्गुण ....
राग छत्तीस सुनाऊँगा, सुनाऊँगा
निर्भय निर्गुण ....
कहत कबीरा सुनो भई साधो जी
जीत निशान घुराऊँगा, घुराऊँगा..
निर्भय निर्गुण ....
बस फिर तो वो शिखर आ ही जाएगा जहाँ से बाद में भी कुछ नहीं है और जिसके अंदर भी कुछ नहीं है। ये बिंदु है शून्यता का जहाँ मेरे में कोई "मैं" नहीं है। यहाँ आवाज़ें तो गूँजती है पर अंदर से! इन्हीं ध्वनियोंं से जो छत्तीस राग फूटेंगे उन्हें सुन कर मैं आनंद विभोर हो उठूँगा । ये क्षण स्वयम् पर जीत का होगा।
तो आइए सुनते हैं इस भजन में कबीर की अध्यात्मिक वाणी कुमार गंधर्व और वसुन्धरा कोमकली के अद्भुत स्वर में..
मुझे यकीन है इसे सुन कर आप इसे बार बार सुनना चाहेंगे तब तक जब तक आपका चित्त भी भजन के सम्मोहन में ना आ जाए !
मुझे यकीन है इसे सुन कर आप इसे बार बार सुनना चाहेंगे तब तक जब तक आपका चित्त भी भजन के सम्मोहन में ना आ जाए !
4 टिप्पणियाँ:
वाह वाह ....कितना आनन्द आया बता नहीं सकती ..... बहुत बार सुनूंगी .... और आंख बन्द करने पर स्वर्गिक आनुभूति ....
बहुत-बहुत आभार .... लाजबाब और यादगार पोस्ट के लिए .....
अर्चना जी शु्क्रिया आपकी इस सराहना के लिए
ब्लॉग बुलेटन हार्दिक आभार इस आलेख को शामिल करने के लिए
आपने क्रिया योग का विवरण दीया है इस भजन की व्याख्या कर के। कोटि कोटि प्रणाम और सहृदय धन्यवाद मनीष भाई। अब मैं इस भजन को कबीर द्वारा क्रिया योग को जन मानस तक पहुंचाने का प्रयास के रूप में देख सकता हूं।
इस वायख्या के लिए मैं सहृदय कृतज्ञ हूं मनीष भाई। आपने कबीर के ध्यान मार्ग को जन मानस तक ले जाने के इस प्रयास को बहुत खूबी से पिरोया है।
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