आजकल कई बार ऐसा देखा गया है कि पुराने मशहूर गीतों व ग़ज़लों को नई फिल्मों में फिर से नए कलाकारों से गवा कर या फिर हूबहू उसी रूप में पेश किया जा रहा है। हैदर में गुलों में रंग भरे गाया तो अरिजित सिंह ने पर याद दिला गए वो मेहदी हसन साहब की। वहीं पुरानी आशिकी में कुमार सानू का गाया धीरे धीरे से मेरी ज़िदगी में आना को तोड़ मरोड़ कर हनी सिंह ने अपने रैप में ढाल लिया है। शुक्र है तनु वेड्स मनु रिटर्न में फिल्म के अंत में कंगना पर आर पार के गाने जा जा जा जा बेवफ़ा का मूल रूप ही बजाया गया। इससे ये हुआ कि कई युवाओं ने पुरानी फिल्म आर पार के सारे गीत सुन डाले। आज आर पार की इस सुरीली और उदास गीत रचना का जिक्र छेड़ते हुए कुछ बातें रिदम किंग कहे जाने वाले नैयर साहब के बारे में भी कर लेते हैं।
ये तो सब जानते है कि आर पार ही वो फिल्म थी जिसने सुरों के जादूगर ओ पी नैयर की नैया पार लगा दी थी। पर उसके पहले नैयर साहब को काफी असफलताएँ भी झेलने पड़ी थीं। नैयर लाहौर में जन्मे और फिर पटियाला में पले बढ़े। घर में सभी पढ़े लिखे और उच्च पदों पर आसीन लोग थे सो संगीत का माहौल ना के बराबर था। ऊपर से उन्हें बचपन में ही ढ़ेर सारी बीमारियों ने धर दबोचा। पर इन सब से जूझते हुए कब संगीत का चस्का लग गया उन्हें ख़ुद ही पता नहीं चला। ये रुझान उन्हें रेडियो तक ले गया जहाँ वे गाने गाया करते थे।
मज़े की बात है कि ओ पी नैयर साहब ने मुंबई का रुख संगीत निर्देशक बनने के लिए नहीं बल्कि हीरो बनने के लिए किया था। स्क्रीन टेस्ट में असफल होने के बाद उन्हें लगा कि वो इस लायक नहीं हैं। फिर संगीत निर्देशक बनने का ख़्वाब जागा पर मुंबई की पहली यात्रा में अपने संगीत निर्देशन वो दो गैर फिल्मी गीत ही रिकार्ड कर पाए जिसमें एक था सी एच आत्मा का गाया प्रीतम आन मिलो। काम नहीं मिलने की वज़ह से नैयर साहब वापस चले गए। पर वो गाना बजते बजते इतना लोकप्रिय हो गया कि उस वक़्त आसमान का निर्देशन कर रहे पंचोली साहब ने उन्हें मुंबई आने का बुलावा भेज दिया। कहते हैं कि नैयर साहब के पास ख़ुशी की ये सौगात ठीक उनकी शादी के दिन पहुँची।
1952 में उन्हें आसमान के आलावा दो फिल्में और मिलीं छम छमा छम और गुरुदत्त की बाज। दुर्भाग्यवश उनकी ये तीनों फिल्में बुरी तरह पिट गयीं। गीता जी नैयर साहब के साथ आसमान में देखो जादू भरे मोरे नैन के लिए काम कर चुकी थीं और उन्हें ऐसा लगा कि नैयर साहब उनकी आवाज़ का सही इस्तेमाल कर पाने की कूवत रखते हैं। जब ओ पी नैयर गुरुदत्त से बाज के लिए अपना बकाया माँगने गए तो उन्होंने उन्हें पैसे तो नहीं दिए पर गीता जी के कहने पर उन्हें अपनी अगली फिल्म आर पार के लिए अनुबंधित कर लिया। नैयर साहब ने बाबूजी धीरे चलना...., सुन सुन सुन जालिमा...., मोहब्बत कर लो जी भर लो अजी किसने देखा है.... जैसे गीतों के बल पर वो धमाल मचाया कि पचास के दशक में आगे चलकर किसी फिल्म के लिए एक लाख रुपये लेने वाले पहले संगीत निर्देशन बन गए।
सुन सुन सुन जालिमा.... का ही एक उदास रूप था जा जा जा ऐ बेवफ़ा... ! पर गीत के मूड के साथ साथ दोनों गीतों के संगीत संयोजन में काफी फर्क था। सुन सुन की तरह जा जा जा में ताल वाद्यों का कहीं इस्तेमाल नहीं हुआ। पूरे गीत में पार्श्व में हल्के हल्के तार वाद्यों की रिदम चलती रहती है जो गीत की उदासी को उभारती है। मजरूह ने गीत के मुखड़े और अंतरों में नायिका के शिकायती तेवर को बरक़रार रखा है। उलाहना भी इसलिए दी जा रही है कि कम से कम वही सुन कर नायक का दिल पसीज़ जाए।
नैयर साहब ने गज़ब का गाना रचा था। मुखड़े का हर जा.. दिल की कचोट को गहराता है वहीं अगली पंक्ति का प्रश्न हताशा के भँवर से निकलता सुनाई देता है।आज भी मन जब यूँ ही उदास होता है तो ये गीत बरबस सामने आ खड़ा होता है.. तो आइए सुनते हैं इस गीत को
नैयर साहब ने गज़ब का गाना रचा था। मुखड़े का हर जा.. दिल की कचोट को गहराता है वहीं अगली पंक्ति का प्रश्न हताशा के भँवर से निकलता सुनाई देता है।आज भी मन जब यूँ ही उदास होता है तो ये गीत बरबस सामने आ खड़ा होता है.. तो आइए सुनते हैं इस गीत को
जा जा जा जा बेवफ़ा, कैसा प्यार कैसी प्रीत रे
तू ना किसी का मीत रे, झूठी तेरी प्यार की कसम
दिल पे हर जफ़ा देख ली, बेअसर दुआ देख ली
कुछ किया न दिल का ख़याल, जा तेरी वफ़ा देख ली
क्यों ना ग़म से आहें भरूँ, याद आ गए क्या करूँ
बेखबर बस इतना बता, प्यार में जिऊँ या मरूँ
और अब देखिए हाल ही में आई फिल्म तनु वेड्स मनु रिटर्न में कंगना पर इसे कैसे फिल्माया गया है..
8 टिप्पणियाँ:
एक कशिश सी होती है इन पुराने गानो में
हाँ शिखा शब्दों पर ज़रा ज्यादा जोर था तब आज की बनिस्पत। जहाँ तक इस गीत की बात है नैयर साहब की गीत रचना भी कमाल की है।
ek aur sundar post ke liye thanks sir..waise honey singh ka dheere dheere se...utna khrab bhi nahi lagta.
हा हा हा गाना तो छोड़ो मुझे तो हनी सिंह ही खराब लगता है पर वो मेरी निजी राय है। मुझे पता है आज की पीढ़ी में वो कितना लोकप्रिय है। मेरा बस इतना कहना है कि नदीम श्रवण का संगीतबद्ध वो सुपरहिट मुखड़ा इस रिमिक्स से हटा दिया जाए तो उसमें अच्छा कहने के लिए बचता क्या है।
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" गुरुवार 24 सितम्बर 2015 को लिंक की जाएगी............... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
Hardik Aabhar aapka!
2009 में आतंकवाद और बचपन पर एक फ़िल्म आई थी "सिकंदर" उसमें "गुलों में रंग भरे" मुखड़े को लेते हुए दो अलग-अलग गीत है...मोहित चौहान और केके की आवाज़ में..नीलेश मिश्रा के शब्द हैं...आप सुनिएगा :)
नैयर साहब और लता दी की जोड़ी से कोई नगमा नहीं निकला...ऐसा है क्या ?
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