सत्तर के दशक का शुरुआती दौर पंचम के लिए उनके स्वर्णिम दौर के रूप में जाना जाता रहा है। सत्तर से पचहत्तर के छः सालों में उनकी करीब सत्तर फिल्में रिलीज़ हुई। यानि हर साल ये आंकड़ा दहाई छूता रहा। पंचम ने इस दौरान जिन फिल्मों को हाथ लगाया वे भले ख़ुद चली ना चली हों पर उनके संगीत को खासी वाहवाही मिली। दरअसल काम मिलने का ये सिलसिला फ़िल्म कटी पतंग की सफलता के बाद ही शुरु हो गया था। मनोहारी सिंह जो बतौर वादक उनके आर्केस्ट्रा का अहम हिस्सा हुआ करते थे ने अपने एक साक्षात्कार में बताया था..
1973 में ऐसी ही एक फिल्म मिली पंचम को नाम था नमक हराम। पर आपको जान कर आश्चर्य होगा कि पंचम निर्माता सतीश वागले की पहली पसंद नहीं थे। सतीश ये जिम्मेदारी संगीतकार शंकर को सौंपना चाहते थे पर अपने जोड़ीदार राजाराम के कहने पर ये फिल्म पंचम की झोली में आ गई और पंचम ने किशोर कुमार और गीतकार आनंद बख़्शी के साथ मिलकर जो काम किया उसे किसी संगीत प्रेमी के लिए भूलना मुश्किल है।
फिल्म में पाँच गाने थे जिसमें तीन बेहद लोकप्रिय हुए। ये तीनों गीत एकल थे और इन सबको किशोर ने अपनी आवाज़ दी थी।
कुछ गीत ऐसे होते हैं जिनके मुखड़े कुछ इस तरह ज़ेहन से चिपक जाते हैं कि आप उन्हें गुनगुनाते वक़्त अंतरों तक पहुँच ही नहीं पाते। बस मुखड़े को ही बार बार दोहराते रह जाते हैं। मेरे ख़्याल से नदिया से दरिया… बख़्शी साहब का लिखा ऐसा ही एक नग्मा है। कितने सहज शब्दों में एक ज़ाम की गहराई नाप ली थी उन्होंने। मुखड़े के पहले पंचम का संगीत संयोजन कुछ अलग सा है। होली के मौके पे गाया ये नग्मा सामूहिक गीत ना होते हुए भी मस्ती से सराबोर है और उसकी वज़ह है खुले गले से गीत में घुलती किशोर दा की दमदार आवाज़।
नदिया से दरिया, दरिया से सागर
सागर से गहरा जाम
हो हो हो जाम में डूब गयी यारों मेरे,
जीवन की हर शाम...
वर्ग विभेद के बावज़ूद पलती बढ़ती दोस्ती की इस कहानी में एक गीत ऐसा है जो मुझे हमेशा अपने प्यारे दोस्तों की याद दिला देता है। याद आया ना आपको वो गीत दीये जलते हैं, फूल खिलते हैं...। ताल वाद्यों का गीत के बोलों के बीच में क्या बेहतरीन उपयोग किया था पंचम ने।
दीये जलते हैं, फूल खिलते हैं
बड़ी मुश्किल से मगर, दुनिया में दोस्त मिलते हैं
जब जिस वक़्त किसी का, यार जुदा होता हैं
कुछ ना पूछो यारों दिल का, हाल बुरा होता है
दिल पे यादों के जैसे, तीर चलते हैं....
आनंद बख्शी साहब के गीत एक आम आदमी की भाषा में आपसे मुख़ातिब होते हैं इसलिए जनता जनार्दन में वे इतने लोकप्रिय हुए। उनके प्रशंसक विजय अकेला जी ने उन के गीतों से जुड़ी एक किताब लिखी है मैं शायर बदनाम। पुस्तक में आशा जी बख्शी साहब के बारे में एक रोचक टिप्पणी करती हैं। वे कहती हैं.
"उस व्यस्त दौर में कई बार महीने में पंचम ने तीस से ज्यादा गानों को रिकार्ड किया। कई बार तो एक ही दिन में दो गाने रिकार्ड कर लिए जाते थे। हम लोग दिन रात काम करते। संगीत सिर्फ गानों के लिए ही नहीं बल्कि फिल्म में बजते पार्श्व संगीत पर भी साथ ही काम चलता। अब सोचता हूँ तो लगता है आख़िर हमने वो सब कैसे किया। सचमुच वे दिन अविस्मरणीय थे।.… "
1973 में ऐसी ही एक फिल्म मिली पंचम को नाम था नमक हराम। पर आपको जान कर आश्चर्य होगा कि पंचम निर्माता सतीश वागले की पहली पसंद नहीं थे। सतीश ये जिम्मेदारी संगीतकार शंकर को सौंपना चाहते थे पर अपने जोड़ीदार राजाराम के कहने पर ये फिल्म पंचम की झोली में आ गई और पंचम ने किशोर कुमार और गीतकार आनंद बख़्शी के साथ मिलकर जो काम किया उसे किसी संगीत प्रेमी के लिए भूलना मुश्किल है।
फिल्म में पाँच गाने थे जिसमें तीन बेहद लोकप्रिय हुए। ये तीनों गीत एकल थे और इन सबको किशोर ने अपनी आवाज़ दी थी।
कुछ गीत ऐसे होते हैं जिनके मुखड़े कुछ इस तरह ज़ेहन से चिपक जाते हैं कि आप उन्हें गुनगुनाते वक़्त अंतरों तक पहुँच ही नहीं पाते। बस मुखड़े को ही बार बार दोहराते रह जाते हैं। मेरे ख़्याल से नदिया से दरिया… बख़्शी साहब का लिखा ऐसा ही एक नग्मा है। कितने सहज शब्दों में एक ज़ाम की गहराई नाप ली थी उन्होंने। मुखड़े के पहले पंचम का संगीत संयोजन कुछ अलग सा है। होली के मौके पे गाया ये नग्मा सामूहिक गीत ना होते हुए भी मस्ती से सराबोर है और उसकी वज़ह है खुले गले से गीत में घुलती किशोर दा की दमदार आवाज़।
नदिया से दरिया, दरिया से सागर
सागर से गहरा जाम
हो हो हो जाम में डूब गयी यारों मेरे,
जीवन की हर शाम...
वर्ग विभेद के बावज़ूद पलती बढ़ती दोस्ती की इस कहानी में एक गीत ऐसा है जो मुझे हमेशा अपने प्यारे दोस्तों की याद दिला देता है। याद आया ना आपको वो गीत दीये जलते हैं, फूल खिलते हैं...। ताल वाद्यों का गीत के बोलों के बीच में क्या बेहतरीन उपयोग किया था पंचम ने।
दीये जलते हैं, फूल खिलते हैं
बड़ी मुश्किल से मगर, दुनिया में दोस्त मिलते हैं
जब जिस वक़्त किसी का, यार जुदा होता हैं
कुछ ना पूछो यारों दिल का, हाल बुरा होता है
दिल पे यादों के जैसे, तीर चलते हैं....
आनंद बख्शी साहब के गीत एक आम आदमी की भाषा में आपसे मुख़ातिब होते हैं इसलिए जनता जनार्दन में वे इतने लोकप्रिय हुए। उनके प्रशंसक विजय अकेला जी ने उन के गीतों से जुड़ी एक किताब लिखी है मैं शायर बदनाम। पुस्तक में आशा जी बख्शी साहब के बारे में एक रोचक टिप्पणी करती हैं। वे कहती हैं.
"चाहे मजरूह सुल्तानपुरी हों या साहिर लुधियानवी, चाहे शकील बदायूँनी हों या शैलेंद्र इन सबों ने फिल्मी लिखा तो इल्मी भी। पर ग़ौर करने वाली बात यह भी है कि इन सारे शायरों को इल्मी ज्यादा और फिल्मी कम माना गया। एक ही ऐसे शायर थे आनंद बख़्शी, जिन्हें सिर्फ और सिर्फ फिल्मी माना गया और मज़े की बात ये है कि उन्होंने कभी इल्मी बनने की कोशिश भी नहीं की बल्कि भागते रहे दूर इल्मी बनने से।.."
नमक हराम फिल्म के जिस गीत को सबसे ज्यादा सराहा गया वो था मैं शायर बदनाम। ज़िदगी में कौन ऐसा शख़्स होगा जिसने नाकामी नहीं सही होगी। कभी तो हम इनसे उबर जाते हैं तो कभी बिल्कुल टूट से जाते हैं। शायद यही वज़ह है कि एक असफल शायर का दर्द जब बख़्शी जी के शब्दों में उतरता है तो हमारे दिल का कोई घाव एकदम से हरा हो जाता है। बख़्शी साहब ने तो कमाल लिखा ही पर किशोर दा की आवाज़ और उदासी के साये में डूबती उतराती पंचम की धुन का उन्हें साथ ना मिला होता तो ये गीत हमारे मन की गहराइयों में इतनी पैठ नहीं बना पाता।
मैं शायर बदनाम, हो मैं चला, मैं चला
महफ़िल से नाकाम, हो मैं चला, मैं चला
मैं शायर बदनाम
मेरे घर से तुमको, कुछ सामान मिलेगा
दीवाने शायर का, एक दीवान मिलेगा
और इक चीज़ मिलेगी, टूटा खाली जाम
हो मैं चला, मैं चला, मैं शायर बदनाम
वैसे आप क्या सोचते हैं नमक हराम के संगीत के बारे में ?
6 टिप्पणियाँ:
इस पोस्ट में शामिल तीनो गीत बेमिसाल हैं.bakshi साहब के सहज शब्द सीधे दिल में उत्तर जाते हैं। पंचम, किशोर दा तो गजब ढाते ही हैं। शेयर करने के लिए थैंक्स सर.
Well put manish ji.
नमक-हराम के ये गीत सचमुच बहुत खूबसूरत हैं .
गिरिजा जी, आर्घ्या दत्ता और मनीष अच्छा लगा ये जानकर कि आप सब को भी नमकहराम का संगीत भाता है।
badi mushkil se magar, duniya mein dost milte hain.... Wah! :)
बड़ी मुश्किल से मगर,दुनिया में दोस्त मिलते हैं....
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