जावेद अख़्तर और जगजीत सिंह यानि 'ज' से शुरु होने वाले वे दो नाम जिनकी कृतियाँ जुबान पर आते ही जादू सा जगाती हैं। अस्सी के दशक के आरंभ में एक फिल्म आई थी साथ साथ जिसके संगीतकार थे कुलदीप सिंह जी। इस फिल्म के लिए बतौर गायक व गीतकार, जगजीत और जावेद साहब को एक साथ लाने का श्रेय उन्हें ही जाता है। तुम को देखा तो ख्याल आया.. तो ख़ैर आज भी उतना ही लोकप्रिय है जितना उस समय हुआ था। पर फिल्म के अन्य गीत प्यार मुझसे जो किया तुमने तो क्या पाओगी.... और ये तेरा घर ये मेरा घर... तब रेडियो पर खूब बजे थे।
फिल्मों के इतर इन दो सितारों की पहली जुगलबंदी 1998 में आए ग़ज़लों के एलबम 'सिलसिले ' में हुई। क्या कमाल का एलबम था वो। सिलसिले की ग़ज़ले जाते जाते वो मुझे अच्छी निशानी दे गया.., दर्द के फूल भी खिलते हैं बिखर जाते हैं.. और नज़्म मैं भूल जाऊँ तुम्हें, अब यही मुनासिब है... अपने आप में अलग से एक आलेख की हक़दार हैं पर आज बात उनके सिलसिले से थोड़ी कम मक़बूलियत हासिल करने वाले एलबम सोज़ की जो वर्ष 2001 में बाजार में आया।
सोज़ का शाब्दिक अर्थ यूँ तो जलन होता है पर ये एलबम श्रोताओं के सीने में आग लगाने में नाकामयाब रहा। फिर भी सोज़ ने शायरी के मुरीदों को दो बेशकीमती तोहफे जरूर दिये जिन्हें गुनगुनाते रहना उसके प्रेमियों की स्वाभावगत मजबूरी है। इनमें से एक तो ग़ज़ल थी और दूसरी एक नज़्म। मजे की बात ये थी कि ये दोनों मिजाज में बिल्कुल एक दूसरे से सर्वथा अलग थीं। एक में अनुनय, विनय और मान मनुहार से प्रेमिका से मुलाकात की आरजू थी तो दूसरे में बुलावा तो था पर पूरी खुद्दारी के साथ।
पर पहले बात ग़ज़ल तमन्ना फिर मचल जाए, अगर तुम मिलने आ जाओ.. की। ओए होए क्या मुखड़ा था इस ग़ज़ल का। समझिए इसके हर एक मिसरे में चाहत के साथ एक नटखटपन था जो इस ग़ज़ल की खूबसूरती और बढ़ा देता है। आज भी जब इसे गुनगुनाता हूँ तो मन एकदम से हल्का हो जाता है तो चलिए एक बार फिर सुर में सुर मिलाया जाए..
तमन्ना फिर मचल जाए, अगर तुम मिलने आ जाओ
यह मौसम ही बदल जाए, अगर तुम मिलने आ जाओ
मुझे गम है कि मैने जिन्दगी में कुछ नहीं पाया
ये ग़म दिल से निकल जाए, अगर तुम मिलने आ जाओ
नहीं मिलते हो मुझसे तुम तो सब हमदर्द हैं मेरे
ज़माना मुझसे जल जाए, अगर तुम मिलने आ जाओ
ये दुनिया भर के झगड़े, घर के किस्से, काम की बातें
बला हर एक टल जाए, अगर तुम मिलने आ जाओ
सोज़ की ये ग़ज़ल भले दिल को गुदगुदाती हो पर उसकी इस नज़्म के बारे में आप ऐसी सोच नहीं रख पाएँगे। प्रेम किसी पर दया दिखलाने या अहसान करने का अहसास नहीं। ये तो स्वतःस्फूर्त भावना है जो दो दिलों में जब उभरती है तो एक दूसरे के बिना हम अपने आप को अपूर्ण सा महसूस करते हैं। पर इस मुलायम से अहसास को जब भावनाओं का सहज प्रतिकार नहीं मिलता तो बेचैन मन खुद्दार हो उठता है। प्रेमी से मिलन की तड़प को कोई उसकी कमजोरी समझ उसका फायदा उठाए ये उसे स्वीकार नहीं। तभी तो जावेद साहब कहते हैं कि अहसान जताने और रस्म अदाएगी के लिए आने की जरूरत नहीं.... आना तभी जब सच्ची मोहब्बत तुम्हारे दिल में हो..
अब अगर आओ तो जाने के लिए मत आना
सिर्फ एहसान जताने के लिए मत आना
मैंने पलकों पे तमन्नाएँ सजा रखी हैं
दिल में उम्मीद की सौ शम्मे जला रखी हैं
ये हसीं शम्मे बुझाने के लिए मत आना
प्यार की आग में जंजीरें पिघल सकती हैं
चाहने वालों की तक़दीरें बदल सकती हैं
तुम हो बेबस ये बताने के लिए मत आना
अब तुम आना जो तुम्हें मुझसे मुहब्बत है कोई
मुझसे मिलने की अगर तुमको भी चाहत है कोई
तुम कोई रस्म निभाने के लिए मत आना
जगजीत तो अचानक हमें छोड़ के चले गए पर अस्पताल में भर्ती होने से केवल एक दिन पहले उन्होंने जावेद साहब के साथ अमेरिका में एक साथ शो करने का प्रोग्राम बनाया था जिसमें आपसी गुफ्तगू के बाद जावेद साहब को अपनी कविताएँ पढ़नी थीं और जगजीत को ग़ज़ल गायिकी से श्रोताओं को लुभाना था। जगजीत के बारे में अक्सर जावेद साहब कहा करते थे कि उनकी आवाज़ में एक चैन था., सुकून था। इसी सुकून का रसपान करते हुए आज की इस महफ़िल से मुझे अब आज्ञा दीजिए पर ये जरूर बताइएगा कि इस एलबम से आपकी पसंद की ग़ज़ल कौन सी है ?
6 टिप्पणियाँ:
बिलकुल सही कहा आपने मनीष जी.... उनकी आवाज़ में चैन था... सुकून था... उनकी कौन सी ग़ज़ल सबसे अच्छी हे ये बताना कठिन हे...क्यकि हमारी भावनाओ के साथ हमारी पसंद बदलती रहती हे... कभी ये ग़ज़ल मुझे बहुत पसंद थी "तमन्ना फिर मचल जाये"
पर अब ये नज़्म "अब अगर आओ तो" दिल को छू जाती हे...
मुझे उनकी हर एक ग़ज़ल पसंद हे..ख़ुशी में, गम में, तन्हाई में, ज़िन्दगी के हर लम्हे में उनकी आवाज़ सुनकर सुकून आता हे...
मुझे इस बात का इंतज़ार रहता हे की आप जगजीत सिंह जी के बारे में कुछ लिखे..शायरी का, ग़ज़ल का, नज़्मों का जिक्र करे... आप बहुत अच्छा और प्रभावशाली लिखते हे.... आपके अगले लेख का इंतज़ार रहेगा..
एक और खूबसूरत और बेहतरीन लेख ...
और जगजीत सिंह जी की आवाज़ के लिए तो जितना भी लिखा जाए कम है ..ज़माने से कही दूर पहुँचाती हुई ...उस पल में बस ठहरा हुआ वक्त
किसी एक को चुनना तो मुश्किल है फिर भी ..."अब अगर आओ " मुझे ज्यादा छु जाती है
सहमत हूँ आपके विचारों से स्वाति... आपकी बातों से जगजीत जी की गायिकी के प्रति आपका प्रेम स्पष्ट है। जगजीत जी के पुराने एलबमों पर विस्तार से लिखा है इस ब्लॉग पर। अपेक्षाकृत नए एलबमों की पसंदीदा ग़ज़लों को गाहे बगाहे आप सब तक पहुँचाने का सिलसिला ज़ारी रहेगा। जानकर प्रसन्नता हुई कि आपको मेरा लिखा पसंद है।
"ज़माने से कही दूर पहुँचाती हुई ...उस पल में बस ठहरा हुआ वक्त "
सच कहा शिखा इस आवाज़ के सहारे हमने नामालूम कितने दिन कितनी रातें गुजारी हैं।
जी मनीष जी, जानती हु की जगजीत सिंह जी के बारे में आपने बहुत कुछ लिखा हे... पर अब क्युकि वे हमारे बीच नहीं रहे, तो अब किसी नई ग़ज़ल को उनकी आवाज़ नहीं मिल पायेगी.... मै बस इतना चाहती हु की आपका उनके बारे में लिखने का, और हमारा पढ़ने का सिलसिला चलता रहे...
जगजीत जी की ग़ज़लों से प्रेम हे मुझे....पर साथ ही आपका लेखन भी बहुत प्रभावित करता हे... १० अक्टूबर को उनकी पुण्यतिथि पर आशा हे की आप उनके लिए कुछ लिखेंगे..
उन्हें अलविदा नहीं कहना चाहिए था...वैसे यहाँ रहने के लिए भी कौन आया
है !
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