रविवार, नवंबर 22, 2015

मेरी तेरी निगाह में जो लाख इंतज़ार हैं.. फ़ैज़ की एक उदासी भरी नज़्म Kya Karein by Faiz !

    एक शाम मेरे नाम पर फ़ैज़ की शायरी से जुड़ी लंबी महफिलें अंजाम ले चुकी हैं। पुराने पाठकों को याद होगा कि उन की ग़ज़लों और नज़्मों पर एक दफ़े मैंने तीन कड़ियों की एक श्रंखला की थी।उन तीन भागों की लिंक तो ये रहीं.
    जो उनकी शायरी के मुरीद हैं उन्हें ये आलेख जरूर रास आएँगे ।

    बीस नवंबर को फ़ैज़ की पुण्यतिथि के रोज़ उनकी बहुत सारी ग़ज़लें और नज़्म एक बार फिर नज़रों से गुजरी और इस नज़्म को देख दिल एकबारगी सिहर उठा। सोचा इसी बहाने इस महान शायर की दमदार लेखिनी को एक बार फिर से याद कर लूँ।

    अब देखिए ना इश्क़ इंसान को मजबूती देता है, खुशी के पल मुहैया कराता है तो वहीं कभी ये हमें बिल्कुल असहाय, अकेला और आत्मविश्वास से परे भी ढकेल देता है। फ़ैज़ की ये नज़्म कुछ ऐसे ही उदास लमहों की कहानी कहती है। नज़्म की शुरुवात में फ़ैज़ कहते हैं..

    मेरी-तेरी निगाह में
    जो लाख इंतज़ार हैं
    जो मेरे-तेरे तन-बदन में
    लाख दिल-फ़िगार1  हैं
    जो मेरी-तेरी उँगलियों की बेहिसी2 से
    सब क़लम नज़ार3 हैं
    जो मेरे-तेरे शहर में
    हर इक गली में
    मेरे-तेरे नक़्श-ए -पा4   के बेनिशाँ मज़ार हैं

    1 . घायल , 2. संवेदनहीन , 3 . कमज़ोर , 4  पदचिन्ह

    इस कभी ना ख़त्म होने वाले इंतज़ार ने पुरानी यादों की रह रह कर उभरती टीस से मिलकर शायर के  दिल के कोने कोने को घायल कर दिया है। यहाँ तक कि प्रेमी के  साथ साथ कदमों से नापी शहर की दहलीज़ भी गुम सी हो गई लगती है। ये अलग बात है कि हमारा ये प्रेमी शायर हमसफ़र के साथ उन गुम से पलों को मन ही मन पूजता है तभी तो वे उसे 'बेनिशाँ मज़ार' से लगते हैं । जिन उँगलियों ने कभी वो मुलायम सा हाथ पकड़ा था वो संवेदनहीन हो चली हैं। ऐसे हालात में कवि की कलम  कमज़ोर  ना हो तो क्या हो?

    जो मेरी-तेरी रात के
    सितारे ज़ख़्म-जख़्म हैं
    जो मेरी-तेरी सुबह के
    गुलाब चाक-चाक हैं
     

    यह ज़ख़्म सारे बे-दवा
    यह चाक सारे बे-रफ़ू
    किसी पे राख चाँद की
    किसी पे ओस का  लहू


    कवि आगे कहते हैं कि तुम्हारे बिना सितारों से सजी वो रातें देखता हूँ तो उनके टिमटिमाते हृदय में भी मुझे अपने जख़्मों की परछाई नज़र आती है। अब तो वो गुलाब जिनके साथ हमारी कितनी सुबहें साथ कटी थीं चीरे हुए से  लगते हैं। फ़ैज की काव्यात्मक सोच का उत्कृष्ट नमूना तब देखने को मिलता है जब वे रातों में अपने दिल पर चाँद की राख मलते नज़र आते हैं। वही सुबह गुलाबों पर गिरी ओस उन्हे हृदय से रिसते लहू जैसी प्रतीत होती है। सच, अब तो उनके लिए प्रेम का ये ये मर्ज़ लाइलाज़  हो चला  है ।

    यह है भी या नहीं बता
    यह है कि महज़ जाल है
    मेरे-तुम्हारे अन्कबूत- ए -वहम5  का बुना हुआ
    जो है तो इसका क्या करें
    नहीं है तो भी क्या करें
    बता, बता, बता, बता 

     5  . संशय की मकड़ी 

    अवसाद की इन घड़ियों में व्यक्ति के लिए प्रेम संशय की स्थिति उत्पन्न कर देता है। क्या वो मुझसे सच में प्रेम करती है/करता  है? क्या मैं उसके लायक हूँ? क्या मेरा प्यार महज़ एक खुशफ़हमी है? ऐसे अनेक प्रश्न उसे मथते रहते हैं। नज़्म के आख़िरी भाग में फ़ैज़ ऐसी ही मनोदशा को हमारे सामने लाते हैं एक उलझन के साथ ! सच तो ये है कि  प्रेम को स्वीकार करने से ही तो दिल में आई आफ़त कम नहीं हो जाती। प्रेम तो तब भी परिस्थितियों का दास बन कर ही रहता है। दिल तो अब भी सवाल करता है जो है तो इसका क्या करें...नहीं है तो भी क्या करें

    फ़ैज़ की इस संवेदनशील नज़्म की उदासी को अपनी आवाज़ में क़ैद करने की कोशिश की है। उम्मीद है आपको पसंद आएगी। रिकार्डिंग के लिए इस पंक्ति में हल्का सा बदलाव किया है बता, बता, मुझे बता .. क्या करें.. क्या करें।


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    7 टिप्पणियाँ:

    Reshma Hingorani on नवंबर 22, 2015 ने कहा…

    Lajavaab

    Ramjeet Singh Kushwaha on नवंबर 23, 2015 ने कहा…

    Great professor sab!!!

    Unknown on नवंबर 23, 2015 ने कहा…

    फैज़ ,जितना पढती हूँ कम पड़ जाता है, ,वो हर बार अचम्भित कर देते हैं ,धन्यवाद आपका इस खूबसूरत नज़्म के लिए!
    अभी बांदबां को तह रखो अभी मुज़्तरिब है रुखे हवा
    कहीं रास्ते में है मुंतज़िर वो सुंकू जो आ के चला गया।

    मन्टू कुमार on नवंबर 25, 2015 ने कहा…

    क्या करें...
    पहले तीनों पोस्ट पढ़ते हैं.,फैज़ साहब के करीब पहुँचते हैं

    Manish Kumar on नवंबर 26, 2015 ने कहा…

    Reshma Hingorani शुक्रिया !

    Ramjeet Kya great ?

    Man इस नज़्म के बारे में आपका क्या ख़्याल है?

    Manish Kumar on नवंबर 26, 2015 ने कहा…

    सीमा सही कहा आपने फ़ैज़ के बारे में। बड़ा बेहतरीन शेर याद दिलाया है आपने फ़ैज़ का।

    मन्टू कुमार on नवंबर 26, 2015 ने कहा…

    प्रेम नहीं जब प्रेमी उलझन के दौर से गुजरे तब की व्याख्या है...और इक छोटे से दिल की हज़ारों कहानियाँ समेटे हुए !

    फैज़ साहब पर की गई आपकी चारों मेहनत में "गुलों में रंग भरे,बाद-ए-नौ-बहार चले" का जिक्र नहीं आया...सभी जानते हैं शायद इसलिए :)

     

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