ग्रेगरी डेविड राबर्ट्स की शांताराम वर्ष 2003 में प्रकाशित हुई थी। वो अलग बात है कि मैं इस किताब को इसके पहली बार छपने के बारह साल बाद पढ़ पाया और वो भी इसलिए कि मेरे एक अभिन्न मित्र ने अपनी इस पसंदीदा किताब को मुझे भेंट किया था । 933 पृष्ठों की इस मोटी किताब को मैंने घर से बाहर छुट्टियों के दौरान ही थोड़ा थोड़ा पढ़ा। इसी वज़ह से इसे ख़त्म करने में छः महीने से ज्यादा का वक़्त लग गया।
ग्रेगरी डेविड राबर्ट्स की निजी कथा वैसे तो जगज़ाहिर है फिर भी जिन लोगों ने इस लोकप्रिय किताब और उसके लेखक के बारे में ना सुना हो उन्हें बता दूँ कि आस्ट्रेलिया से ताल्लुक रखने वाले राबर्ट्स का अपने परिवार से साथ हेरोइन की लत का शिकार होने की वज़ह से छूटा। बाद में वो हेरोइन की अपनी तलब लोगों को डरा धमका कर की गई पैसे की उगाही से पूरा करने लगे। नतीजन वे गिरफ़्तार हुए पर एक फिल्मी हीरो की तरह 1980 में आस्ट्रेलिया की जेल से भाग कर मुंबई आ पहुँचे। अस्सी का दशक उनका मुंबई में गुजरा। मुंबई में एक ओर तो उनका कुछ समय झोपड़पट्टियों में रहते हुए बतौर एक चिकित्सक बीता तो दूसरी ओर माफिया के संपर्क में रहते हुए उन्होंने उसके लिए पासपोर्ट की जालसाजी और काले धन को वैध बनाने जैसे काम किए। 1990 में वे फैंकफर्ट में फिर पकड़े गए और छः साल के लिए फिर से आस्ट्रेलिया की जेल में क़ैद रहे। इसी काल में उन्होंने मुंबई के अपने अनुभवों को शांताराम की शक़्ल में ढालना शुरु किया। जेल से निकलने के बाद उन्होंने बतौर लेखक अपनी ज़िन्दगी बितानी शुरू की। अब वो मेलबॉर्न में रहते हैं और बीच बीच में भारत आते जाते रहे हैं।
शांताराम को पढ़ने वालों के मन में हमेशा ये जिज्ञासा रही है कि पुस्तक का कितना भाग राबर्ट्स के निजी जीवन का हिस्सा है और कितनी उनकी कल्पना। राबर्ट्स ने अपने आख़िरी साक्षात्कार में इस बाबत प्रश्नों का जवाब देते हुए कहा था..
"इस किताब के बहुत सारे प्रसंग मेरे जीवन से ज्यों के त्यों लिए गए हैं जबकी बाकी मेरे द्वारा रची कथा है जिसे मैंने अपने अनुभवों से बुना है। मैं अपनी ज़िंदगी की घटनाओं के इर्द गिर्द दो से तीन उपन्यासों को लिखना चाहता था। ये घटनाएँ उन विषयों से संबंधित थीं जो मेरे दिल के करीब थीं और जिन्हें मैं अपने जीवन की सच्ची घटनाओं से जोड़कर विकसित करना चाहता था।
ये एक उपन्यास है कोई आत्मकथा नहीं। सारे चरित्रों और संवादों को मैंने गढ़ा है। ये मायने नहीं रखता कि उसमें से कितना मेरी ज़िदगी में सचमुच घटा। महत्त्वपूर्ण ये है कि वो हम सब व हमारे समाज के लिए सही था या नहीं। मुझे अच्छा लगता है जब लोग पूछते हैं कि कार्ला कैसी है या ये कि आपने उतने सालों बाद तक अपने संवाद याद कैसे रखे? मुझे ये सोचकर खुशी होती है कि मेरे इन काल्पनिक चरित्रों में लोगों को वास्तविकता झलकी।"
पाँच भागों में बँटी इस किताब का कैनवास काफी वृहद है। मुंबई के मैरीन ड्राइव के पास की बस्ती से शुरु होकर ये उपन्यास आपको अफ़गानिस्तान के युद्ध क्षेत्र तक ले जाता है। मुंबई में रह रहे अवैध बस्तियों के बाशिंदों, कानून से भागते विदेशियों, माफिया सरगनाओं, छोटे बड़े अपराधियों, ज़िहादियों जैसे सैकड़ों चरित्रों से अटा पड़ा है ये उपन्यास। झोपड़पट्टियों के रोजमर्रा के जीवन को लेखक ने करीब से देखा है और इतने आभाव व गरीबी में जीवन बिताने वाले लोगों की जीवटता और उनसे मिलने वाली आत्मीयता को उन्होंने अपने किरदारों के माध्यम से बखूबी उभारा है ।
किताब का एक बड़ा हिस्सा सरकार की नाक के नीचे मुंबई के माफिया के फलते फूलते कारोबार और उनके अंदर पनपने वाले पेशेवर अपराधियों की मानसिकता को चित्रित करता है। किताब में शारीरिक प्रताड़ना और व्यक्तिगत हिंसा का दिल दहलाने वाला वर्णन है जो लेखक के निजी अनुभवों की वज़ह से और सजीव हो उठा है। पर पढ़ते वक़्त किताब के ये हिस्से विचलित भी बहुत करते हैं। ऐसा इसलिए भी है कि एक आम मध्यमवर्गीय शायद ही ऐसे चरित्रों से अपनी ज़िदगी में रूबरू हो पाता है।
अब जहाँ हिंसा है तो प्रेम भी होगा। पर नायिका के रूप में कार्ला के प्रेम को समझ पाना पाठक क्या लेखक के रूप में लिन के किरदार के लिए भी मुश्किल है। कथानक में अपराध व प्रेम के साथ अध्यात्म का भी पुट है जो लिन और माफिया सरगना अब्दुल ख़ादेर खान के वार्तालाप में उभर कर सामने आता है। हम व्यक्तिगत जीवन में जो करते हैं उसे सही और गलत के तराजू में कैसे तौला जाए इस बारे में भी लेखक खान के माध्यम से कुछ रोचक तर्क हमारे सामने रखते हैं।
मैं ऐसा तो नहीं कह सकता कि इस किताब ने शुरु से अंत तक मुझे बाँधे रखा पर ये जरूर कहूँगा कि लेखक अपने कथ्य के बीच बीच में किरदारों के माध्यम से ऐसे बुद्धिमत्ता पूर्ण व चुटीले संवाद सामने लाते हैं कि पाठक लाजवाब हुए बिना नहीं रह पाता। ये कथ्य कभी आपके चेहरे पर मुस्कुराहट की रेखा खींच देते हैं तो कभी उनकी सच्चाई आपको एक नए सिरे से सोचने पर मज़बूर कर देती है। यही इस किताब का सबसे मजबूत पक्ष है। मिसाल के तौर पर कुछ बानगियाँ देखें.
- You know the difference between news and gossip, don't you? News tells you what people did. Gossip tells you how much they enjoyed it.
- Men reveal what they think when they look away, and what they feel when they hesitate. With women, it's the other way around.
- Sometimes we love with nothing more than hope. Sometimes we cry with everything except tears. In the end that’s all there is: love and its duty, sorrow and its truth. In the end that’s all we have - to hold on tight until the dawn.
- Virtue is concerned with what we do and honour is concerned with how we do it.
- If fate doesn't make you laugh, you just don't get the joke.
- When greed meets control, you get a black market.
- A politician is someone who promises you a bridge, even when there is no river.
- Mistakes are like bad loves, the more you learn from them, the more you wish they’d never happened.
- A dream is a place where a wish and a fear meet. When the wish and fear are exactly the same, we call the dream a nightmare.
- It is always a fool's mistake to be alone with someone you shouldn't have loved.
- I don't know what frightens me more, the power that crushes us, or our endless ability to endure it.
- Civilization, after all, is defined by what we forbid, more than what we permit.
- Fate gives all of us three teachers, three friends, three enemies, and three great loves in our lives. But these twelve are always disguised, and we can never know which one is which until we’ve loved them, left them, or fought them.
- Nothing ever fits the palm so perfectly, or feels so right, or inspires so much protective instinct as the hand of a child
- Most loves are like that ... You heart starts to feel like an overcrowded lifeboat. You throw your pride out to keep it afloat, and your self-respect and independence. After a while, you start throwing people out - your friends, everyone you used to know. And it's still not enough. The lifeboat is still sinking, and you know it's going to take you down with it. I've seen that happen to a lot of girls here. That's why I'm sick of love.
पिछले ही महीने दस साल से भी ज्यादा अंतराल के बाद राबर्ट्स ने शांताराम के बाद की घटनाओं को एक sequel की तरह अपनी किताब The Mountain Shadow के रूप में प्रकाशित किया है। पर अगर ये किताब आपकी इच्छा सूची में है तो फिर आपको शांताराम से गुजरना होगा क्यूँकि नए उपन्यास में लिन, कार्ला, संजय व जीत जैसे किरदार नए चरित्रों से मिलकर कहानी को आगे बढ़ाते हैं।
12 टिप्पणियाँ:
क्या ये पुस्तक हिंदी में भी है मनीष जी ?
नहीं हरेंद्र, फिलहाल तो इसका अनुवाद हिंदी में नहीं हुआ है।
That's an interesting post
Thx Alka jee. Have u gone through this book? What was ur impression about it?
Not exactly, though the book is with me for past several years. waiting for muhurth.
Aapki post ke baad to padhni padegi hi. lazawabvisleshan kafi dino baad koi kitab ki samiksha padhi
अनिल,समीक्षा आपको पसंद आई जान कर खुशी हुई।
I have read this book.. it was to be made in movie but don't know what happened to that project!
Manisha Priyadarshini Well yes u r correct. The right of the picture still lies with Warner Brothers. But they are sitting on the script for past decade. It seems for all practical purpose the project is shelved.
पाठक,अपराधी कहें उन्हें ? या एक उम्दा लेखक ? अपने कारनामे की वजह से उनकी लेखनी सजीव लगती है (आपके अनुसार)
ज़िन्दगी किन-किन रास्तों से होकर गुजरे,ये तय कौन करता है ?
शांताराम का चरित्र जो लिन के रूप में इस उपन्यास में है एक भगोड़े अपराधी का है जो मुंबई के उस समय के हालातों को अपने नज़रिये से व्यक़्त करता है। इस लेख का शीर्षक इसीलिए ऐसा रखा हैं मैंने।
सो आपके सवाल का जवाब कुछ यूँ होगा मेरे लिए लिन को एक अपराधी मानिए और आज के राबर्ट्स को एक उम्दा लेखक !
It seems so .. the book throws light also on the Rise of Taliban in Afghanistan.. this will throw bad light on the image of so called super powers responsible for it .. hence it is shelved!!
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