वो कौन होगा जिसे अपने बीते हुए खुशगवार लम्हों में झाँकना अच्छा नहीं लगता? खाली पलों में अपने नजदीकियों से की गई हँसी ठिठोली, गपशप उस लमहे में तो बस यूँ ही गुजारा हुआ वक़्त लगती है। पर आपने देखा होगा की इस बेतहाशा भागती दौड़ती ज़िदगी के बीच कभी कभी वो पल अनायास से कौंध उठते हैं। मन पुलकता है और फिर टीसता भी है और हम उन्हीं में घुलते हुए खो से जाते हैं। मन की इसी कैफ़ियत के लिए बस एक ही गीत ज़ेहन में उभरता है दिल ढूँढता है फिर वही फ़ुरसत के रात दिन...। ग़ालिब के मिसरे पर गुलज़ार ने जो गीत गढ़ा वो ना जाने कितनी पीढियों तक गुनगुनाए जाएगा। अब देखिए ख़ुद गुलज़ार का क्या कहना है इस बारे में
गीत के मुखड़े की बात छोड़ भी दें तो इस गीत के हर अंतरे को आपने जरूर कभी ना कभी जिया होगा या मेरी तरह अभी भी जी रहे होंगे। यही वज़ह है कि जाड़ों की नर्म धूप, गर्मियों में तारों से सजा वो आसमान या फिर दूर जंगल के सन्नाटे में बीती वो खामोश रात जैसे गीत में इस्तेमाल किये गए बिंब मुझे इतने अपने से लगते हैं कि क्या कहें?
"मिसरा गालिब का और कैफ़ियत अपनी अपनी। दिल ढूँढता है फिर वही फुर्सत के रात दिन। ये फुर्सत रुकी हुई नहीं है। कोई ठहरी हुई जमी हुई चीज़ नहीं। एक जुंबिश है। एक हरकत करती हुई कैफ़ियत"(दिल की कैफ़ियत - मनोस्थिति, जुंबिश -हिलता डुलता हुआ)
गीत के मुखड़े की बात छोड़ भी दें तो इस गीत के हर अंतरे को आपने जरूर कभी ना कभी जिया होगा या मेरी तरह अभी भी जी रहे होंगे। यही वज़ह है कि जाड़ों की नर्म धूप, गर्मियों में तारों से सजा वो आसमान या फिर दूर जंगल के सन्नाटे में बीती वो खामोश रात जैसे गीत में इस्तेमाल किये गए बिंब मुझे इतने अपने से लगते हैं कि क्या कहें?
अपनी बात तो कर ली अब थोड़ी गीत की बात भी कर लें। 1975 में आई फिल्म मौसम के इस गीत की बहुत सारी बाते हैं जो मुझे आपके साथ आज साझा करनी है। पहली तो ये कि इस फिल्म का संगीत पंचम ने नहीं बल्कि मदन मोहन ने दिया था। गुलज़ार को मदनमोहन के साथ सिर्फ दो फिल्में करने का मौका मिला। एक तो कोशिश और दूसरी मौसम। मौसम के संगीत की सफलता को ख़ुद मदनमोहन नहीं देख पाए।
इस गीत के लिए धुन रचने का काम कैसे हुआ ये किस्सा भी मज़ेदार है। मदनमोहन पर विश्वनाथ चटर्जी और विश्वास नेरूरकर की लिखी किताब Madan Mohan: Ultimate Melodies में गुलज़ार ने इस बात का जिक्र किया है..
"मदनमोहन का संगीत रचने का तरीका एकदम अनूठा था। वो हारमोनियम बजाते हुए गीत के बोल गुनगुनाते थे। संगीत रचते हुए जब मूड में होते थे तो सामिष या नॉन वेजीटेरियन भोजन पकाने में लग जाते थे। दिल ढूँढता है...... के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ था। मैं उनके घर के अंदर बैठा था और मदनमोहन किचन में मटन बना रहे थे और उसके रस के लिए उन्होंने उसमें थोड़ी विहस्की भी मिला दी थी। साथ ही साथ वो इस गीत की धुन भी तैयार कर रहे थे। बीच बीच में वो किचन से बाहर आते और पूछते कि ये धुन कैसी है? मैं उन्हें अपनी राय बताता और वो फिर किचन में चले जाते ये कहकर कि चलो मैं इससे बेहतर कुछ सोचता हूँ।"
कहते हैं कि इस गीत के लिए मदनमोहन जी ने कई अलग अलग धुनें तैयार की और दशकों बाद इसी गीत की एक धुन को फिल्म वीर ज़ारा में यश चोपड़ा ने गीत तेरे लिए हम हैं जिये के लिए इस्तेमाल किया। इस गीत के मुखड़े को लेकर भी काफी बातें चलती रहीं। उसी किताब में गुलज़ार ने ये भी लिखा है कि गीत का मुखड़ा ग़ालिब की ग़ज़ल के हिसाब से जी ढूँढता है फिर वही फ़ुरसत के रात दिन था पर मदन मोहन उसे दिल ढूँढता है ..गाते रहे। जब गुलज़ार ने उनसे कहा कि मिसरे के मौलिक रूप से छेड़छाड़ करना सही नहीं तो वो मान भी गए। पर रिकार्डिग के दिन वो अपने साथ ग़ालिब का दीवान ले कर आए और उसमें उन्होंने दिखलाया कि वहाँ दिल ढूँढता है.. ही लिखा हुआ था।
वैसे मैंने कुछ किताबों में अभी भी जी ढूँढता है.. ही लिखा पाया है। मौसम में इस गीत के दो वर्जन थे एक लता व भुपेंद्र के युगल स्वरों में और दूसरे भूपेंद्र का एकल गीत। जब जब मैं इस गीत की भावनाओं में डूबता हूँ तो मुझे भूपेंद्र का गाया वर्सन और उसके साथ हौले हौले चलती वो धुन ही याद आती है। वैसे इस बारे में आपका ख़्याल क्या है? तो आइए एक बार फिर सुनते हैं इस गीत को..
दिल ढूँढता है फिर वही फ़ुरसत के रात दिन
बैठे रहे तसव्वुर-ए-जानाँ किये हुए
दिल ढूँढता है फिर वही फ़ुरसत के रात दिन...
जाड़ों की नर्म धूप और आँगन में लेट कर
आँखों पे खींचकर तेरे आँचल के साए को
औंधे पड़े रहे कभी करवट लिये हुए
दिल ढूँढता है फिर वही फ़ुरसत के रात दिन...
या गरमियों की रात जो पुरवाईयाँ चलें
ठंडी सफ़ेद चादरों पे जागें देर तक
तारों को देखते रहें छत पर पड़े हुए
दिल ढूँढता है फिर वही फ़ुरसत के रात दिन...
बर्फ़ीली सर्दियों में किसी भी पहाड़ पर
वादी में गूँजती हुई खामोशियाँ सुनें
आँखों में भीगे भीगे से लम्हे लिये हुए
दिल ढूँढता है फिर वही फ़ुरसत के रात दिन...
14 टिप्पणियाँ:
Bahut he behtaren movie thee... fir ye geet to shayad he koi hoga jisy pasand na ho...
बिल्कुल सही कहा आशा जी..किसे पसंद नहीं होगा ये गाना..फुर्सत कमबख़्त चीज ही ऐसी है :)
This is my all time favourite song,especially used to listen it during exams,now when in stress. God knows where these people find words creating a relative situation.Awesome song
गुलज़ार तो शब्दों के जादूगर हैं ही शांगरीला !
मैंने ये फिल्म नहीं देखी और देखने की फुर्सत पता नहीं कब मिले. भूपेंद्र जी वाला वर्जन धीमे-धीमे दिल को ज्यादा छूता है. इस गीत से मदन मोहन का सम्बन्ध आप ही से पता चला. जानकारी के लिए सादर धन्यवाद
फुर्सत के पल धीमे ही बीते तभी तो आनंद है। मुझे भी वही वर्जन पसंद है मनीष
बहुत सुन्दर पोस्ट है।धन्यवाद !!
ममता जी जानकर खुशी हुई कि आपको ये आलेख पसंद आया।
Mujhe aap pasand hain, Manish Ji. Haa. I really wish to meet again. Really thank my luck that got a chance to meet you at Ranchi airport once and talk for sometime. Regards.
Rahi baat iss gaane ki... All time favorite. Waise iss gaane mein jangal mein raat ki khaamosh raat ka jikr Kahan hai?
गुलज़ार ने गीत में बर्फीली वादियों की ख़ामोश रात का जिक्र किया है सुमित और घाटियों में रहते वक़्त चीड़ देवदार के जंगलों की खामोशियाँ तो मैंने और आपने भी कभी ना कभी महसठस की ही होगी। मेरे मन में वही था जब मैंने वो लिखा। बहरहाल दोबारा मुलाकात की बात पर तो बद्र साहब का बस यही शेर अर्ज करना चाहेंगे
मुसाफ़िर हैं हम भी मुसाफ़िर हो तुम भी
किसी मोड़ पर फिर मुलाक़ात होगी
वाह...बयां किये गए इन सारे किस्सों से गुजरकर निकला ये गीत..लाज़वाब !
बेहद सुन्दर गीत......
बेहद सुन्दर गीत और आलेख
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