वार्षिक संगीतमाला के तीन हफ्तों से सफ़र में अब बारी है पिछले साल के मेरे सबसे प्रिय पन्द्रह गीतों की और पन्द्रहवीं पायदान पर जो गीत है ना जनाब उसमें प्रेम, विरह, खुशी जैसे भाव नहीं बल्कि एक तरह की पीड़ा और दबी सी घुटन है जो सीने से बाहर आने के लिए छटपटा रही है पर कुछ लोगों का डर ने उसे बाहर आने से रोक रखा है। पर इससे पहले कि मैं आपको इस गीत के बारे में बताऊँ आपसे एक रोचक तथ्य को बाँट लेता हूँ। जानते हैं काम मिलने के बाद संगीतकार व गीतकार ने सोचा हुआ था कि इस फिल्म के लिए वो कोई मस्त सा आइटम नंबर लिखेंगे। पर उनके मंसूबों पर पानी तब फिरा जब फिल्म के निर्देशक निशिकांत कामत ने उनसे आकर ये कहा कि मैं आपसे फिल्म सदमा के गीत ऐ ज़िंदगी गले लगा ले.. जैसा गीत बनवाना चाहता हूँ।
ये फिल्म थी दृश्यम और संगीतकार गीतकार की जोड़ी थी विशाल भारद्वाज और गुलज़ार की। विशाल इस फर्माइश को सुनकर चौंक जरूर गए पर मन ही मन खुश भी हुए ये सोचकर कि आज के दौर में ऐसे गीतों की माँग कौन करता है? विशाल फिल्म के निर्माता कुमार मंगत पाठक के बारे में कहते हैं कि ओंकारा के समय से ही मैंने जान लिया था कि अगर कुमार जी से पीछा छुड़ाना हो तो उन्हें एक अच्छा गीत बना के देना ही होगा। यानि निर्माता निर्देशक चाहें तो गीत की प्रकृति व गुणवत्ता पर अच्छा नियंत्रण रख सकते हैं।
बकौल विशाल भारद्वाज ये गीत बहुत चक्करों के बाद अपने अंतिम स्वरूप में आया। दम घुटता है का मुखड़ा भी बाद में जोड़ा गया। पहले सोचा गया था कि ये गीत राहत फतेह अली खाँ की आवाज़ में रिकार्ड किया जाएगा। फिर विशाल को लगा कि गीत एक स्त्री स्वर से और प्रभावी बन पाएगा। तो रिकार्डिंग से रात तीन बजे लौटकर उन्होंने अपनी पत्नी व गायिका रेखा भारद्वाज जी से कहा कि क्या कल कुछ नई कोशिश कर सकती हो? रिकार्डिंग के लिए तुम्हें भी साढ़े दस बजे जाना पड़ेगा। अक्सर विशाल को रेखा उठाया करती हें पर उस दिन विशाल ने रेखा जी को साढ़े नौ बजे उठाते हुए कहा कि आधे घंटे थोड़ा रियाज़ कर लो फिर चलते हैं। ग्यारह बजे तक बाद रेखा विशाल के साथ स्टूडियो में थीं। पहले की गीत रचना को बदलते हुए विशाल ने रेखा जी के हिस्से उसी वक़्त रचे और फिर दोपहर तक राहत की आवाज़ के साथ मिक्सिंग कर गीत अपना अंतिम आकार ले पाया।
एक व्यक्ति की अचानक हुए हादसे में हत्या का बोझ लिए एक परिवार के मासूम सदस्यों की आंतरिक बेचैनी को व्यक्त करने का जिम्मा दिया गया था गुलज़ार को और शब्दों के जादूगर गुलज़ार ने मुखड़े में लिखा
पल पल का मरना
पल पल का जीना
जीना हैं कम कम
घुटता हैं दम दम दम दम दम दम दम दम दम दम घुटता है
उजड़े होठों , सहमी जुबां, उखड़ती सांसें, रगों में दौड़ती गर्मी जो जलकर राख और धुएँ में तब्दील हो जाना चाहती हो और अंदर से डर इतना कि इंसान अपनी ही परछाई से भी घबराने लगे। कितना सटीक चित्रण है ऐसे हालात में फँसे किसी इंसान का। गुलज़ार ने इन बिंबों से ये जतला दिया कि एक अच्छे गीतकार को व्यक्ति के अंदर चल रही कशमकश का, उसके मनोविज्ञान का पारखी होना कितना जरूरी है नहीं तो व्यक्ति के अंदर की घुटन की आँच को शब्दों में वो कैसे उतार पाएगा?
तो आइए एक बार फिर से सुनें ये बेहतरीन नग्मा..
दुखता हैं दिल दुखता हैं
घुटता हैं दम दम घुटता हैं
डर हैं अन्दर छुपता हैं
घुटता हैं दम दम दम दम दम दम दम दम दम दम घुटता है
पल पल का मरना
पल पल का जीना
जीना हैं कम कम
घुटता हैं दम दम घुटता हैं
घुटता हैं दम दम ....
मेरे उजड़े उजड़े से होंठो में
बड़ी सहमी सहमी रहती हैं ज़बान
मेरे हाथों पैरों मे खून नहीं
मेरे तन बदन में बहता हैं धुआँ
सीने के अन्दर आँसू जमा हैं
पलके हैं नम नम
घुटता हैं दम दम...
क्यूँ बार बार लगता हैं मुझे
कोई दूर छुप के तकता हैं मुझे
कोई आस पास आया तो नहीं
मेरे साथ मेरा साया तो नहीं
चलती हैं लेकिन नब्ज़ भी थोड़ी
साँस भी कम कम
घुटता हैं दम दम घुटता हैं
घुटता हैं दम दम घुटता हैं
साँस भी कुछ कुछ रुकता हैं
घुटता हैं दम दम घुटता हैं
पल पल क्यूँ दम घुटता हैं
घुटता हैं दम दम ...
घुटता हैं दम दम घुटता हैं
डर हैं अन्दर छुपता हैं
घुटता हैं दम दम दम दम दम दम दम दम दम दम घुटता है
पल पल का मरना
पल पल का जीना
जीना हैं कम कम
घुटता हैं दम दम घुटता हैं
घुटता हैं दम दम ....
मेरे उजड़े उजड़े से होंठो में
बड़ी सहमी सहमी रहती हैं ज़बान
मेरे हाथों पैरों मे खून नहीं
मेरे तन बदन में बहता हैं धुआँ
सीने के अन्दर आँसू जमा हैं
पलके हैं नम नम
घुटता हैं दम दम...
क्यूँ बार बार लगता हैं मुझे
कोई दूर छुप के तकता हैं मुझे
कोई आस पास आया तो नहीं
मेरे साथ मेरा साया तो नहीं
चलती हैं लेकिन नब्ज़ भी थोड़ी
साँस भी कम कम
घुटता हैं दम दम घुटता हैं
घुटता हैं दम दम घुटता हैं
साँस भी कुछ कुछ रुकता हैं
घुटता हैं दम दम घुटता हैं
पल पल क्यूँ दम घुटता हैं
घुटता हैं दम दम ...
रेखा जी की आवाज़ के साथ राहत की आवाज़ का मिश्रण तो काबिलेतारीफ़ है ही गीत के इंटरल्यूड्स में ढाई मिनट बाद गिटार के साथ घटम का संगीत संयोजन मन को सोह लेता है। वैसे अंत में राहत का साँस भी कुछ कुछ रुकती की जगह रुकता है कहना कुछ खलता है।
फिल्म के किरदारों की मनोस्थिति को बयाँ करता ये गीत फिल्म का एक अहम हिस्सा रहा और इसी वज़ह से फिल्म के प्रोमो में इसका खूब इस्तेमाल किया गया।
5 टिप्पणियाँ:
Too good !
विशाल-गुलज़ार" इस जोड़ी से निकले नगमे को सुनना ही पड़ता है,गाने के खत्म होने तक..
ये गीत भी ऐसा ही है
शोभा व मन ये गीत आप दोनों को अच्छा लगा जानकर अच्छा लगा।
यह गीत बहुत सुंदर है. रेखा जी और राहत जी कि आवाज़ में आलाप भी हो तो सूफियाना अहसास हो जाये.
फिर इस गीत कि धुन और शब्द अभी कुछ अव्वल.यह साल के पसंदीदा गीतों में एक है. आपने ही इस मूवी कि चर्चा कि थी जिसके बाद सुना था पहली बार यह गीत.
शुक्रिया.
सोचिए शुरु में सिर्फ राहत गाने वाले थे इस गीत को.. रेखा जी को लाना विशाल का मास्टर स्ट्रोक रहा।
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