आजकल हिंदी फिल्मों में एक चलन सा है कि फिल्म में कोई शास्त्रीय गीत या ग़ज़ल की बात हो तो निर्माता निर्देशक बिना उसे सुने पहले ही नकार देते हैं कि भाई कुछ हल्का फुल्का झूमता झुमाता हो तो सुनें ये तो जनता से नहीं झेला जाएगा। वैसे भी ज्यादातर फिल्मों की कहानियाँ ऐसी होती भी नहीं कि भारतीय संगीत की इन अनमोल धरोहरों को फिल्म में उचित स्थान मिल पाए।
पर ऐसे भी निर्माता निर्देशक हैं जो जुनूनी होते हैं जिन्हें जनता से ज्यादा अपनी सोच पर, अपनी कहानी पर विश्वास होता है और वो संगीत की सभी विधाओं को अपनी फिल्म में जरूरत के हिसाब से सम्मिलित करने में ज़रा भी नहीं हिचकिचाते। संजय लीला भंसाली एक ऐसे ही निर्देशक व संगीतकार हैं। फिल्मांकन तो उनका जबरदस्त होता ही है, संगीतकार का किरदार निभाते हुए फिल्म के गीत संगीत पर भी उनकी गहरी पकड़ रहती है। यही वज़ह है कि विविधताओं से परिपूर्ण बाजीराव मस्तानी का पूरा एलबम साल 2015 के सर्वश्रेष्ठ एलबम कहलाने की काबिलियत रखता है।
वार्षिक संगीतमाला की चौथी पायदान पर जो गीत शोभा बढ़ा रहा है उसमें शास्त्रीयता की झनकार भी है और मन को गुदगुदाती एक चुहल भी! इस गीत को लिखा है गीतकार जोड़ी सिद्धार्थ गरिमा ने और इसे अपनी आवाज़ से सँवारा है श्रेया घोषाल व बिरजू महाराज ने। शास्त्रीय संगीत के जानकार इस गीत को कई रागों का मिश्रण बताते हैं।
चिड़ियों की चहचहाहट, गाता मयूर , शहनाई की मधुर तान, घुँघरुओं की पास आती आवाज़ और मुखड़े के पहले सितार की सरगम। कितना कुछ सँजो लाएँ हैं संजय लीला भंसाली मुखड़े के पहले के इस प्रील्यूड में जो राग मांड पर आधारित है। गीत का मुखड़ा जहाँ राग पुरिया धनश्री पर बना है वहीं अंतरे राग विहाग पर। पर ये श्रेया की सधी हुई मधुर आवाज़ का कमाल है कि इस कठिन गीत के उतार चढ़ावों को वो आसानी से निभा जाती हैं। इंटरल्यूड्स में बाँसुरी की मधुर तान व बिरजू महाराज के बोलों के साथ घुँघरु, सरोद व तबले की जुगलबंदी सुनते ही बनती है।
देवदास में पहला मौका देने वाले संजय सर के बारे में श्रेया कहती हैं कि वो गानों के बारे ज्यादा कुछ नहीं बताते। हाँ पर वो लता जी के आवाज़ के इतने बड़े शैदाई हैं कि ये जरूर कहते हैं कि अगर लता जी इसे गाती तो कैसे गातीं। पर बाजीराव के गीत अपने आप में कहानी से इतने घुले मिले थे कि मुझे उनसे ज्यादा कुछ पूछने की जरूरत ही नहीं पड़ी।
इस गीत को लिखा है सिद्धार्थ गरिमा की जोड़ी ने जिनसे आपकी पहली मुलाकात मैं
भंसाली साहब की पिछली फिल्म गोलियों की रासलीला राम लीला के गीतों में
करा चुका हूँ। सिद्धार्थ पहले हैदराबाद में विज्ञापन जगत से जुड़े थे और
राजस्थान की गरिमा टीवी में शो का निर्माण करती थीं। फिर दोनों ही मुंबई
की रेडियो मिर्ची में आ गए पर यहाँ भी उनके किरदार अलग थे यानि एक
निर्माता और दूसरा लेखक का । पहली बार साझा लेखन का काम उन्होंने रियालिटी शोज
को लिखने में किया। फिर संजय लीला भंसाली ने राम लीला के लिए उन्हें पटकथा
लेखक व गीतकार की दोहरी जिम्मेदारी सौंपी जो वो बाजीराव मस्तानी में भी
निभा रहे हैं। सिद्धार्थ गरिमा अपने इस गीत के बारे में कहते हैं..
ये गीत फिल्म में तब आता है जब नायक व नायिका प्रेम की शुरुआत हो रही है। नायिका नायक को नंद के लाल यानि कृष्ण के नाम से संबोधित कर रही है क्यूँ कि वो उसी भगवान की पूजा करती है। आखिर कृष्ण प्रेम ,भक्ति व चुहल के प्रतीक जो हैं और वही वो अपने प्रिय में भी देख रही है। वो ऐसे गा रही है मानो प्रभु के लिए भजन हो पर वास्तव में उसका इशारा अपने प्रियतम की ओर है। इसीलिए वो अपने प्रिय से कह रही है मुझे लाल रंग में रंग दो क्यूँकि लाल है रंग प्रेम का, उन्माद का, भक्ति का..।
यही वजह थी की गीतकार द्वय ने शब्दों के चयन में ब्रज भाषा के साथ खड़ी बोली का मुलम्मा चढ़ाया ताकि हम और आप उसे अपने से जोड़ सकें। नायिका की कलाई मरोड़ने, चूड़ी के टूटने और इन सब के बीच के उस क्षण चोरी चोरी से गले लगाने का ख्याल मन में गुदगुदी व सिहरन सी पैदा कर देता है और इसी ख्याल को अपने शब्दों के माध्यम से सिद्धार्थ गरिमा गीत के अंत तक बरक़रार रखते हैं। तो आइए शास्त्रीयता की चादर ओढ़े इस बेहद रूमानी गीत का आनंद लें आज की शाम..
मोहे रंग दो लाल, मोहे रंग दो लाल
नंद के लाल लाल
छेड़ो नहीं बस रंग दो लाल
मोहे रंग दो लाल
देखूँ देखूँ तुझको मैं हो के निहाल
देखूँ देखूँ तुझको मैं हो के निहाल
छू लो कोरा मोरा काँच सा तन
नैन भर क्या रहे निहार
मोहे रंग दो लाल
नंद के लाल लाल
छेड़ो नहीं बस रंग दो लाल
मोहे रंग दो लाल
मरोड़ी कलाई मोरी
मरोड़ी कलाई मोरी
हाँ कलाई मोरी
हाँ कलाई मरोड़ी.. कलाई मोरी
चूड़ी चटकाई इतराई
तो चोरी से गरवा लगाई
हरी ये चुनरिया
जो झटके से छीनी
हरी ये चुनरिया
जो झटके से छीनी
मैं तो रंगी हरी हरि के रंग
लाज से गुलाबी गाल
मोहे रंग दो लाल
नंद के लाल लाल
छेड़ो नहीं बस रंग दो लाल
मोहे रंग दो लाल
मोहे रंग दो लाल
6 टिप्पणियाँ:
और दीपिका की सुंदरता इसमें चार चाँद लगाती है....वे भरतनाट्यम सीख चुकी हैं इसलिए कत्थक के स्टेप्स कठिनाई से निभा पायी हैं। पर गीत संगीत और वातावरण की सुंदरता वाकई मन मोह लेती है।
ओह नृत्य के बारे में मेरी इतनी समझ नहीं है इसलिए मेरा ध्यान इस ओर गया नहीं :-)
संजय लीला भंसाली साहब सही मायनों में जीनियस फिल्मकार हैं. फिल्म विधा से इतर संगीत में भी उनकी पकड़ कमाल की है. इस फिल्म के और भी गीत गीतमाला में शामिल होने के हकदार हैं.
Haan is film ke sare gane ausat se achhe hain par unmein se teen jo sabse jyada pasand aaye is geetmala ka hissa bane :-)
संजय लीला भंसाली जी की प्रतिभा पर कोई शक़ नहीं पर मुझे ऐसा लगता है कि उनके बनाये गीतों में 'इस्माइल दरबार' के संगीत की खुशबू आती है...'रामलीला और बाजीराव' के गीत कहीं न कहीं 'देवदास और हम दिल दे चुके सनम' के गीतों की याद दिलाते हैं। संजय जी के संगीत में मिठास भरपूर है पर कहीं मौलिकता की कमी लगती है....ऐसा मेरा मत है जो शायद गलत भी हो। साथ ही मुझे दुःख है कि 'इस्माइल दरबार' का संगीत आजकल सुनने को नहीं मिल रहा।
सहमत हूँ तुम्हारे आकलन से। ऐसा ही कुछ मैं अपनी अगली पोस्ट में लिखने वाला था आयत के लिए। smile emoticon उस हिसाब से मुझे अब तोहे जाने ना दूँगी व मोहे रंग दे लाल थोड़े अलग लगे।
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