कुछ दिन पहले की बात है। एक मित्र ने व्हाट्सएप पर एक ग़ज़ल का वीडियो भेजा। जानी पहचानी ग़ज़ल थी। अस्सी के दशक में जगजीत चित्रा की आवाज़ में खूब बजी और सुनी हुई। पर जो वीडियो भेजा गया था उसमें महिला स्वर नया सा था। बड़ी प्यारी आवाज़ में ग़ज़ल के कुछ मिसरे निभाए गए थे। अक्सर भूपेंद्र व मिताली मुखर्जी की आवाज़ में जगजीत चित्रा की कई ग़ज़लें पहले भी सुनी थीं। तो मुझे लगा कि ये मिताली ही होंगी।
कल मुझे पता चला कि वो आवाज़ मिताली की नहीं बल्कि कविता मूर्ति देशपांडे की है। कविता मूर्ति जी ने ये ग़ज़ल अपने एक कान्सर्ट Closer to Heart के अंत में गुनगुनाई थी। कविता नूरजहाँ, शमशाद बेगम, सुरैया व गीत्ता दत्त जैसे फनकारों की आवाज़ों में अपनी आवाज़ को ढालती रही हैं। पुराने नग्मों को आम जन की याद में जिंदा रखने के इस कार्य में पिछले एक दशक से लगी हैं और पाँच सौ से ज्यादा कानसर्ट में अपनी प्रतिभा के ज़ौहर दिखलाती रही हैं। पर वो ग़ज़ल उनकी अपनी आवाज़ में कानों में एक मिश्री सी घोल गई।
ये ग़ज़ल लिखी थी साहिर साहब ने। ये वो साहिर नहीं जिसने अपनी अज़ीम शायरी से लुधियाना को शेर ओ शायरी की दुनिया में हमेशा हमेशा के लिए नक़्श कर दिया। पंजाब में एक और शायर हुए इसी नाम के। बस अंतर ये रहा कि उन्होंने लुधियाना की जगह होशियारपुर में पैदाइश ली। ये शायर थे साहिर होशियारपुरी। साहिर होशियारपुरी का वास्तविक नाम राम प्रसाद था । उन्होंने होशियारपुर के सरकारी कॉलेज से पारसी में एम ए की डिग्री ली और फिर कानपुर से पत्र पत्रिकाओं के लिए लिखते रहे। होशियारपुरी, जोश मलसियानी के शागिर्द थे जिनकी शायरी पर दाग देहलवी का काफी असर माना जाता रहा है।
साहिर होशियारपुरी ने तीन किताबें जल तरंग, सहर ए नग्मा व सहर ए ग़जल लिखीं जो उर्दू में हैं। यही वज़ह है कि उनकी शायरी लोगों तक ज़्यादा नहीं पहुँच पाई। जगजीत सिंह ने उनकी ग़ज़लों तुमने सूली पे लटकते जिसे देखा होगा और कौन कहता है कि मोहब्बत कि जुबाँ होती हैं को गा कर उनकी प्रतिभा से लोगों का परिचय करा दिया।
जगजीत की ग़ज़लों के आलावा उनकी एक ग़ज़ल मुझे बेहद पसंद थी । पूरी ग़ज़ल तो याद नहीं पर इसके जो शेर मुझे पसंद थे वो अपनी डॉयरी के पन्नो् से यहाँ बाँट रहा हूँ।
दोस्त चले जाते हैं तो कोई शहर एकदम से बेगाना लगने लगता है और अकेलापन काटने को दौड़ता है और तब साहिर की उसी ग़ज़ल के ये अशआर याद आते हैं..
किसी चेहरे पे तबस्सुम1, ना किसी आँख में अश्क़2
अजनबी शहर में अब कौन दोबारा जाए
शाम को बादाकशीं3, शब को तेरी याद का जश्न
मसला ये है कि दिन कैसे गुजारा जाए
वैसे इसी ग़ज़ल के ये दो अशआर भी काबिले तारीफ़ हैं।
तू कभी दर्द, कभी शोला, कभी शबनम है
तुझको किस नाम से ऐ ज़ीस्त4 पुकारा जाए
हारना बाजी ए उल्फत5 का है इक खेल मगर
लुत्फ़ जब है कि इसे जीत के हारा जाए
कल मुझे पता चला कि वो आवाज़ मिताली की नहीं बल्कि कविता मूर्ति देशपांडे की है। कविता मूर्ति जी ने ये ग़ज़ल अपने एक कान्सर्ट Closer to Heart के अंत में गुनगुनाई थी। कविता नूरजहाँ, शमशाद बेगम, सुरैया व गीत्ता दत्त जैसे फनकारों की आवाज़ों में अपनी आवाज़ को ढालती रही हैं। पुराने नग्मों को आम जन की याद में जिंदा रखने के इस कार्य में पिछले एक दशक से लगी हैं और पाँच सौ से ज्यादा कानसर्ट में अपनी प्रतिभा के ज़ौहर दिखलाती रही हैं। पर वो ग़ज़ल उनकी अपनी आवाज़ में कानों में एक मिश्री सी घोल गई।
ये ग़ज़ल लिखी थी साहिर साहब ने। ये वो साहिर नहीं जिसने अपनी अज़ीम शायरी से लुधियाना को शेर ओ शायरी की दुनिया में हमेशा हमेशा के लिए नक़्श कर दिया। पंजाब में एक और शायर हुए इसी नाम के। बस अंतर ये रहा कि उन्होंने लुधियाना की जगह होशियारपुर में पैदाइश ली। ये शायर थे साहिर होशियारपुरी। साहिर होशियारपुरी का वास्तविक नाम राम प्रसाद था । उन्होंने होशियारपुर के सरकारी कॉलेज से पारसी में एम ए की डिग्री ली और फिर कानपुर से पत्र पत्रिकाओं के लिए लिखते रहे। होशियारपुरी, जोश मलसियानी के शागिर्द थे जिनकी शायरी पर दाग देहलवी का काफी असर माना जाता रहा है।
साहिर होशियारपुरी ने तीन किताबें जल तरंग, सहर ए नग्मा व सहर ए ग़जल लिखीं जो उर्दू में हैं। यही वज़ह है कि उनकी शायरी लोगों तक ज़्यादा नहीं पहुँच पाई। जगजीत सिंह ने उनकी ग़ज़लों तुमने सूली पे लटकते जिसे देखा होगा और कौन कहता है कि मोहब्बत कि जुबाँ होती हैं को गा कर उनकी प्रतिभा से लोगों का परिचय करा दिया।
जगजीत की ग़ज़लों के आलावा उनकी एक ग़ज़ल मुझे बेहद पसंद थी । पूरी ग़ज़ल तो याद नहीं पर इसके जो शेर मुझे पसंद थे वो अपनी डॉयरी के पन्नो् से यहाँ बाँट रहा हूँ।
दोस्त चले जाते हैं तो कोई शहर एकदम से बेगाना लगने लगता है और अकेलापन काटने को दौड़ता है और तब साहिर की उसी ग़ज़ल के ये अशआर याद आते हैं..
किसी चेहरे पे तबस्सुम1, ना किसी आँख में अश्क़2
अजनबी शहर में अब कौन दोबारा जाए
शाम को बादाकशीं3, शब को तेरी याद का जश्न
मसला ये है कि दिन कैसे गुजारा जाए
वैसे इसी ग़ज़ल के ये दो अशआर भी काबिले तारीफ़ हैं।
तू कभी दर्द, कभी शोला, कभी शबनम है
तुझको किस नाम से ऐ ज़ीस्त4 पुकारा जाए
हारना बाजी ए उल्फत5 का है इक खेल मगर
लुत्फ़ जब है कि इसे जीत के हारा जाए
1. हँसी, 2. आँसू, 3. शराब पीना 4. ज़िंदगी 5. प्रेम
कौन कहता है मोहब्बत की जुबाँ होती है
ये हकीक़त तो निगाहों से बयाँ होती है
वो ना आए तो सताती है ख़लिश1 दिल को
वो जो आए तो ख़लिश और जवाँ होती है।
रूह को शाद2 करे दिल को जो पुरनूर3 करे
हर नजारे में ये तनवीर4 कहाँ होती है
ज़ब्त-ऐ-सैलाब-ऐ-मोहब्बत को कहाँ तक रोके
दिल में जो बात हो आंखों से अयाँ5 होती है
जिंदगी एक सुलगती सी चिता है "साहिर"
शोला बनती है न ये बुझ के धुआँ होती है
1. पीड़ा, 2. प्रसन्न, 3. प्रकाशमान 4. रौशनी 5.स्पष्ट, ज़ाहिर
तो बात हो रही थी कि साहिर होशियारपुरी की इस ग़ज़ल को जगजीत चित्रा ने तो अपनी आवाज़ से अमरत्व दे दिया था पर कविता मूर्ति ने अपनी मीठी आवाज़ में इसे सुनाकर हमारी सुषुप्त भावनाओं को एक बार फिर से जगा दिया। पर उन्होंने ये ग़ज़ल पूरी नहीं गाई।
वाकई कितनी प्यारी ग़ज़ल है।आँखों ही आंखों में इशारे हो गया वाला गीत तो हम बचपन से सुन ही रहे हैं ,साहिर साहब ने आँखों की इसी ताकत से ग़ज़ल का खूबसूरत मतला गढ़ा है। और ख़लिश वाले शेर की तो बात ही क्या ! वो ना रहें तो उनकी याद खाने को दौड़ती है और सामने आ जाएँ तो दिल इतनी तेजी से धड़कता है कि उस पर लगाम लगाना मुश्किल। मक़ते में सुलगती चिता के रूप में ज़िंदगी को देखने का उनका ख़्याल गहरा है
। तो आइए पहले सुनें इस ग़ज़ल को कविता मूर्ति की आवाज़ में..
वाकई कितनी प्यारी ग़ज़ल है।आँखों ही आंखों में इशारे हो गया वाला गीत तो हम बचपन से सुन ही रहे हैं ,साहिर साहब ने आँखों की इसी ताकत से ग़ज़ल का खूबसूरत मतला गढ़ा है। और ख़लिश वाले शेर की तो बात ही क्या ! वो ना रहें तो उनकी याद खाने को दौड़ती है और सामने आ जाएँ तो दिल इतनी तेजी से धड़कता है कि उस पर लगाम लगाना मुश्किल। मक़ते में सुलगती चिता के रूप में ज़िंदगी को देखने का उनका ख़्याल गहरा है
। तो आइए पहले सुनें इस ग़ज़ल को कविता मूर्ति की आवाज़ में..
ये हकीक़त तो निगाहों से बयाँ होती है
वो ना आए तो सताती है ख़लिश1 दिल को
वो जो आए तो ख़लिश और जवाँ होती है।
रूह को शाद2 करे दिल को जो पुरनूर3 करे
हर नजारे में ये तनवीर4 कहाँ होती है
ज़ब्त-ऐ-सैलाब-ऐ-मोहब्बत को कहाँ तक रोके
दिल में जो बात हो आंखों से अयाँ5 होती है
जिंदगी एक सुलगती सी चिता है "साहिर"
शोला बनती है न ये बुझ के धुआँ होती है
1. पीड़ा, 2. प्रसन्न, 3. प्रकाशमान 4. रौशनी 5.स्पष्ट, ज़ाहिर
पूरी ग़ज़ल जगजीत चित्रा की आवाज़ में ये रही...
साहिर होशियारपुरी ने तो 1994 में हमारा साथ छोड़ दिया पर उनकी ग़ज़लों की खुशबू हमारे साथ है, बहुत कुछ उनके इस शेर की तरह...
मैं फ़िज़ाओं में बिखर जाऊंगा ख़ुशबू बनकर,
रंग होगा न बदन होगा न चेहरा होगा
6 टिप्पणियाँ:
बिलकुल सहमत हू आपकी बात से मनीष जी, कुछ आवाज़े सच में ऐसे होती हे जो कानो में मिश्री घोल देती हे...कविता जी की गायिकी ही नहीं बल्कि यहाँ उनका अंदाज़े बयां भी खूब हे... यहाँ उनके लिए फ़राज़ साहब की ग़ज़ल की एक लाइन याद आ गयी की...." सुना हे बोले तो बातो से फूल झड़ते हे...." :)
साहिर होशियारपुरी जी की दूसरी ग़ज़ल भी बहुत अच्छी लगी..खासकर ये शेर..."किसी चेहरे पे तबस्सुम ना किसी आँख में अश्क..."
इसे शेयर करने के लिए शुक्रिया..
शुक्रिया स्वाति सही कहा आपने कविता मूर्ति के बारे में वैसे तो ज्यादातर वो पुराने ज़माने के गीतों को गाती हैं पर अपनी ख़ुद की मीठी आवाज़ में गीत और ग़ज़लों को गुनगुनाए तो भी सराही जाएँगी।
साहिर की दूसरी ग़ज़ल आपको भी पसंद आई जानकर प्रसन्नता हुई।
सुन्दर पोस्ट मनीष जी ¡आभार ॥
बहुत शुक्रिया मनीष जी इस पोस्ट के लिए ! जब भी कुछ अच्छा पढ़ने सुनने का मन करता है आपका ब्लाॅग कभी निराश नहीं करता ! जगजीत जी चित्रा जी की आवाज में ये गज़ल तो खूब सुनी पर कविता जी की आवाज में भी चहक उठी है गज़ल बहुत शुक्रिया आपका !
सुनीता जी पोस्ट आपको पसंद आयी जान कर खुशी हुई।
सीमा जी अच्छा लगता है जब लोग ऐसा कहते हैं। यक़ीन होता है कि जो कुछ कर रहा हूँ इस ब्लॉग के माध्यम से वो सही लोगों तक पहुँच रहा है।
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