प्यारी बरखा, कितने दिन से तुम छुपी हुई थी मुझसे कहीं। तुम्हारी एक झलक पाने के लिए मैंने तुम्हें कहाँ कहाँ नहीं ढूँढा। हवाओं का शोर, बादलों की गुड़गुड़ाहट या मिट्टी से उठती सोंधी महक....तुम्हारे आने की हर हल्की सी आहट पर मेरा दिल पागल बन बैठा। पर तुमने उन बेताब होती भावनाओं को निकलने ही कब दिया? हर बार इन कँटीली आशाओं के बोझ से दब कर घायल तो मैं ही हुई। कितना छेड़ा, कितना ललचाया था ना तुमने मुझे। मूसलाधार लड़ी का स्वप्न दिखाती तुम आई भी तो हल्की सी फुहार ले के मानो मेरे मन की तड़प पर उपहास कर रही हो। कहो तो..अपने पक्के प्रेमी से कोई ऐसा बर्ताव करता है भला? तुम्हारे जैसे ही हैं मेरे कुछ जानने वाले, वो समझते होंगे शायद...
मैं नहीं जानती कि उनकी तरह मेरे प्रति तुम्हारे इस व्यवहार का कारण क्या है? तुमसे ढंग की आखिरी मुलाकात तो बोकारो में हुई थी। फिर वक़्त मुझे ले आया सूखी, बेरहम और गरम मिजाज़ वाली इस दिल्ली में। मुझे पाल पोस कर बड़ा करने वाला ये शहर तुम्हारे बिना कभी मेरे दिल में जगह नहीं बना सका। आख़िर एक रूखा शहर मेरी आत्मा में अपने लिए नमी कैसे भरता ?
पर इस बार तो मेरी जान मैंने तुम्हें पश्चिमी घाटों के पार वहाँ जाकर पकड़ा जहाँ तुम्हारा बसेरा है। और तब मुझे अनायास ही भान हुआ कि तुम भी मुझसे मिलने के लिए उतनी ही आतुर थी। बस तलाश थी तो सही लम्हे और सही जगह की । जिस तीव्रता से तुमने मुझे अपनी बाहों में लिया, जिस बेफिक्री व उन्माद के साथ तुम मेरे पर बेइंतहा बरसी, मैं मन के अन्तःस्थल तक भीग गयी। जैसी मैं तुम्हें इस रूप में पाकर ठगी सी रह गयी, क्या तुम्हारे अंदर उफनता ज्वार उतना ही शांत हो पाया?
हम दोनों ही नियंत्रण में बहने के आदी नहीं हैं। सच तो ये है कि हम दोनों के अंदर एक सागर बसता है जो उन्हीं किनारों पर उमड़ता है जिनके प्रेम में हमारा दिल नाशाद है।
एक बार फिर कितने युगों बाद तुमने मुझे इस तरह अपने आगोश में लिया था। किसी वादे के लिए नहीं..किसी समझौते के लिए नहीं..किसी बहाने के लिए नहीं।
कितनी अनोखी थी ना इस बार की ये मुलाकात... उन दिनों तो ऐसा लगता कि तुम हर जगह हो और तुम्हारी ताकत को धरती का कोना कोना महसूस कर रहा है। छत पर टप टप की आवाज़ से तुम मुझे जगाती थी। तुम्हारे इस संगीत को सुनने के लिए कितना तरसी थी मैं। तुम हर सुबह एक दोस्त की तरह मिलती और तुम्हारा अभिवादन स्वीकार कर जब तक मैं समुद्र तट के किनारे सैर पर निकलती तुम अपना रूप बदल चुकी होती। इस गर्जन तर्जन को देख तुम्हें रिझाने के लिए समुद्र भी कई भंगिमाएँ बनाता हुआ यूँ उमड़ता घुमड़ता कि मैं एक पल सहमती तो दूसरे पल खुशी से नाच उठती। ताल भी तुम्हारी लड़ियों को अपने में समाता देख बच्चों की तरह खिलखिलाता। सड़कें तुम्हारे स्पर्श से एक पेंटिंग सरीखी दिखतीं। पेड़ तुमसे नहाकर चमकते हुए इठलाते। वहीं दूर क्षितिज स्याह व नीले रंग में धुँधलाता हुआ सा दिखाई देता। ऐसा लगता मानो कायनात एक नई ज़िंदगी से सराबोर हो गई हो।
तुम मोतियों की लड़ी बनकर आई, परतों में बिछी और प्रचंडता के साथ बरसी। तुम सर्वशक्तिमान थी और मैं नतमस्तक जैसा कि मैं अक्सर हो जाती हूँ तुम्हारे जैसों को अपने पास पा के। हर जर्रा तुम्हारी, हर कण जीवंत, हर कोर आभारी।
तुम मोतियों की लड़ी बनकर आई, परतों में बिछी और प्रचंडता के साथ बरसी। तुम सर्वशक्तिमान थी और मैं नतमस्तक जैसा कि मैं अक्सर हो जाती हूँ तुम्हारे जैसों को अपने पास पा के। हर जर्रा तुम्हारी, हर कण जीवंत, हर कोर आभारी।
शुक्रिया तुम्हारा ये भरोसा दिलाने के लिए कि तुम साथ रहोगी मेरे.. . सशर्त ही सही ! शुक्रिया तुम्हारा कि आँसुओं का जो सैलाब मैने आँखों की कोरों में रोक रखा था वो तुमने खोल दिया और उनके साथ तुम मेरे दुखों को भी बहा ले गयी। उस बहती धारा ने कई जख़्मों को भर दिया सिवाए उनके जिनका हरा रहना मेरे अस्तित्व के लिए जरूरी है। शुक्रिया तुम्हारा कि तुम्हारे आने से मेरे मन की मिट्टी फिर आद्र हो उठी है। शायद प्रेम की नई किरण उसे भेद कर भावनाओं की नई फसल उपजा सके।
तो कैसा लगा आपको ये ख़त ? ये तो आपने समझ ही लिया ही होगा कि ये ख़त मैंने नहीं लिखा। लड़कियाँ जितनी गहराई से बारिश को महसूस कर उसे व्यक्त कर पाती हैं वो अपने आप में अनूठा होता है। इसलिए मैंने जब अपनी साथी ब्लॉगर सोनल सिंह का बारिश को लिखा ये प्यारा ख़त अंग्रेजी में पढ़ा तो उसका हिंदी में भावानुवाद करने का लोभ छोड़ नहीं पाया। उनकी भावनाओं को हिंदी में कितना उतार पाया हूँ ये तो लेखिका ही बता सकती हैं फिर भी मैंने एक कोशिश करी है कि जो आनंद मुझे वो लेख पढ़कर आया वो आपको भी आए।
बारिश में भींगने की बात से फिलहाल तो परवीन शाकिर की इक छोटी सी नज़्म याद आ रही है.अगर आपको बारिश में भींगती हुई कोई तनहा लड़की मिले तो उसे जरूर सुना दीजिएगा...
बारिश में क्या तनहा भींगना लड़की ?
उसे बुला जिसकी चाहत में
तेरा तन मन भींगा है
प्यार की बारिश से बढ़कर भी क्या बारिश होगी
और जब इस बारिश के बाद
हिज्र की पहली धूप खिलेगी
तुझ पर रंग के इस्म खुलेंगे :)
बारिश में क्या तनहा भींगना लड़की ?
उसे बुला जिसकी चाहत में
तेरा तन मन भींगा है
प्यार की बारिश से बढ़कर भी क्या बारिश होगी
और जब इस बारिश के बाद
हिज्र की पहली धूप खिलेगी
तुझ पर रंग के इस्म खुलेंगे :)
16 टिप्पणियाँ:
बेहद खूबसूरत :)
kitna pyara!!! aur Parween Shaikr ji ki nazm , sone par suhaga..... bahut abhar
दिशाहाँ, अंग्रेजी में पढ़कर मुझे भी यही अहसास हुआ था :)
लोरी जानकर खुशी हुई कि आपको ये आलेख प्यारा लगा
लाजवाब
This piece had a life to itself, a life separate and distinct than the one I gave birth to. It has thankfully not been shorn of a bit of the author himself. And I lie here, amazed, happy and gratified in a strange tickling way.
खूबसूरत !
वाह, बहुत खूब मनीष भाई।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (25-07-2016) को "सावन आया झूमता ठंडी पड़े फुहार" (चर्चा अंक-2414) पर भी होगी।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
हिंदी में भी बेहतरीन लिखा है...
आपने तो मन को पूरी तरह भीगो दिया।बहुत ही खूबसूरत ...
परमेश्वरी जी, आशा जी, दिशा, गुलशन व ललित शर्मा जी आप सबको मेरा अनुवादित लेख पसंद आया जानकर खुशी हुई। सोनल के लिखे मूल अंग्रेजी लेख की खूबसूरती का इसमें बड़ा योगदान है क्यूँकि भाषा भले मेरी हो भावनाएँ तो ये नितांत उनकी हैँ। तो आप सब की तरफ़ से मैं उन्हें भी धन्यवाद देना चाहूँगा इस प्यारे से ख़त के लिए। :)
शास्त्री जी व हर्षवर्धन, चर्चा मंच और ब्लॉग बुलेठिन में इस पोस्ट को स्थान देने के लिए हार्दिक आभार !
This piece had a life to itself, a life separate and distinct than the one I gave birth to. It has thankfully not been shorn of a bit of the author himself. And I lie here, amazed, happy and gratified in a strange tickling way.
एक अनुवादक के आलेख की कसौटी मूल लेखक का दिया सर्टिफिकेट होती है और मुझे इस बात का संतोष है कि मैं इस परीक्षा में उत्तीर्ण हुआ हूँ। :)
अनुवाद करने का ये मेरे लिए पहला मौका था और शुरुआत में तो लगा कि क्या मैं तुम्हारी पोस्ट के साथ न्याय कर पाऊँगा। पर जब किसी का लेखन आप मन से पढ़ते हैं, उसकी सोच को समझने लगते हैं तो फिर उसके भावों को शब्द देने का काम सहज हो जाता है और साथ ही ये करते हुए आनंद भी खूब आता है क्यूँकि रचना प्रक्रिया के उस थोड़े से समय में आपने उस चरित्र को आत्मसात कर लिया होता है।
देर सारा शुक्रिया मुझे ये मौका देने के लिए।:)
वाह! बारिश की फुहार मन को भा गयी ...
खुशी हुई जानकर कविता जी !
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