1979 में एक फिल्म आई थी गृहप्रवेश। गंभीर फिल्म होने के बावज़ूद दर्शकों ने उसे हाथों हाथ लिया था। दाम्पत्य जीवन की पेचीदियों पर बासु भट्टाचार्य पहले भी फिल्में बना चुके थे। अनुभव, आविष्कार के बाद फिल्म गृहप्रवेश इस तिकड़ी की आख़िरी कड़ी थी। बासु भट्टाचार्य के बारे में मशहूर था कि वो बेहद कम बजट पर फिल्मों का निर्माण करते थे। लिहाजा अक़्सर वे अपने मित्रों को ही अपनी फिल्म का हिस्सा बनाते थे ताकि वो कम पारिश्रमिक में भी उनके साथ काम कर सकें। यही वज़ह थी कि कनु रॉय उनकी अधिकांश फिल्मों के संगीतकार हुआ करते थे। गुलज़ार भी उनके अच्छे मित्रों में से थे। बासु, गुलज़ार और कनु की तिकड़ी ने अनुभव व आविष्कार में कितने कमाल का संगीत दिया था इसके बारे में तो आपको इस श्रंखला में पहले ही विस्तार से बता चुका हूँ।
गृहप्रवेश के गीत भी काफी बजे। बोले सुरीली बोलियाँ..., पहचान तो थी, पहचाना नहीं.... और मचल के जब भी आंखों से छलक जाते हैं दो आँसू... से तो आप परिचित होंगे ही। इसी फिल्म का एक और गीत था जिसका मुखड़ा मुझे बारहा अपनी ओर खींचता है। ज़िंदगी फूलों की नहीं, फूलों की तरह महकी रहे... । कितना विरोधाभास सा है इस छोटी सी पंक्ति में? पर ये भी है कि ये विरोधाभास ज़िंदगी की सच्चाई के बेहद करीब है।
भला बताइए हममें से किसके जीवन की राह फूलों की तरह नर्म रही है। बिना संघर्ष के जीवन कैसा? पर आदमी संघर्ष तभी कर सकता है जब उसे लगे कि उसके मन में चल रही भावनाओं को कोई समझता है। उसके साथ की किसी को जरूरत है। इसीलिए दिल तो बस इतना चाहता है कि इस कँटीले रास्ते पे भी ऐसे लोग मिलते रहें जिनके इर्द गिर्द होने की खुशबू हमें अपने सफ़र पर निरंतर चलने को प्रेरित करती रहें। गुलज़ार इस गीत में 'खुशबू की ख़बर' और 'मुड़ती राहों' जैसे बिंबों से ऐसे ही किसी शख़्स की ओर इशारा कर रहे हैं।
भला बताइए हममें से किसके जीवन की राह फूलों की तरह नर्म रही है। बिना संघर्ष के जीवन कैसा? पर आदमी संघर्ष तभी कर सकता है जब उसे लगे कि उसके मन में चल रही भावनाओं को कोई समझता है। उसके साथ की किसी को जरूरत है। इसीलिए दिल तो बस इतना चाहता है कि इस कँटीले रास्ते पे भी ऐसे लोग मिलते रहें जिनके इर्द गिर्द होने की खुशबू हमें अपने सफ़र पर निरंतर चलने को प्रेरित करती रहें। गुलज़ार इस गीत में 'खुशबू की ख़बर' और 'मुड़ती राहों' जैसे बिंबों से ऐसे ही किसी शख़्स की ओर इशारा कर रहे हैं।
ज़िंदगी फूलों की नहीं,
फूलों की तरह
महकी रहे, , ज़िंदगी ...
जब कोई कहीं गुल खिलता है,
जब कोई कहीं गुल खिलता है,
आवाज़ नहीं आती लेकिन
खुशबू की खबर आ जाती है,
खुशबू महकी रहे, ज़िंदगी ...
जब राह कहीं कोई मुड़ती है,
मंजिल का पता तो होता नहीं
इक राह पे राह मिल जाती है,
खुशबू महकी रहे, ज़िंदगी ...
जब राह कहीं कोई मुड़ती है,
मंजिल का पता तो होता नहीं
इक राह पे राह मिल जाती है,
राहें मुड़ती रहें, ज़िंदगी ...
वैसे इस गीत के बनने का प्रसंग भी दिलचस्प है। बासु भट्टाचार्य को अपनी फिल्मों में मजाक बिल्कुल पसंद नहीं था। वो अक़्सर पटकथा से हल्के फुल्के लमहों को हटा देते थे। उनका मानना था कि फिल्म गंभीर चिंतन की जगह है और अपनी इसी सोच की वज़ह से गुलज़ार से उनकी बहस भी हो जाया करती थी। गृहप्रवेश की पटकथा और गीत भी गुलज़ार ने ही लिखे थे।
ये गीत फिल्म की शुरुआत में पार्श्व में ओपनिंग क्रेडिट्स के साथ आता है। बासु दा चाहते थे कि गीत का स्वरूप फिल्म के विषय जैसा ही गंभीर हो। यही बताते हुए अचानक बंगाली में कही उनकी बात का अनुवाद गुलज़ार ने ज़िदगी फूलों की नहीं.. के रूप में किया। बासु दा को तुरंत ये पंक्ति पसंद आ गई। गुलज़ार आश्वस्त नहीं थे। उन्हें इसमें कविता जैसा कुछ लग नहीं रहा था पर बासु अड़े रहे और फिर मुखड़ा बना ज़िंदगी फूलों की नहीं, फूलों की तरह महकी रहे। कनु दा ने इस पर जो धुन तैयार की वो सबको अच्छी लगी और फिर एक सुबह मुंबई के तारादेव स्थित भंसाली स्टूडियो में भूपेंद्र की आवाज़ में इस गाने की रिकार्डिंग भी हो गई।
गीत जनता को भी पसंद आया पर गुलज़ार इस गीत को कविता के लिहाज़ से आज भी अच्छा नहीं मानते। वो यही कहते हैं कि मुखड़ा तो शब्दों का खेल भर था। पर मुझे तो वो इस गीत की जान लगता है। कनु दा सीमित संसाधनों में कमाल करने वाले संगीतकार थे। बाँसुरी, सितार व गिटार का कितना प्यारा उपयोग किया उन्होंने। खासकर जिस तरह उन्होंने भूपेंद्र से मुखड़े की पंक्तियाँ दो बार गवायीं। मुखड़े को छोटे छोटे हिस्सों में बाँटकर उनके बीच के ठहराव से उदासी का जो आलम उन्होंने बुना वो लाजवाब था। बाद में जब जब ये पंक्ति दोबारा आई उन ठहरावों को संगीत के टुकड़ों से भर कर उन्होंने उसका असर ही बढ़ा दिया।
वैसे पता है ना आपको आज गुलज़ार साहब का जन्मदिन भी है। तो जन्म के अवसर पर इस कलम के जादूगर और मेरे अत्यंत प्रिय गीतकार को ढेर सारी बधाई!
वैसे पता है ना आपको आज गुलज़ार साहब का जन्मदिन भी है। तो जन्म के अवसर पर इस कलम के जादूगर और मेरे अत्यंत प्रिय गीतकार को ढेर सारी बधाई!
8 टिप्पणियाँ:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (19-08-2016) को "शब्द उद्दण्ड हो गए" (चर्चा अंक-2439) पर भी होगी।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
हार्दिक आभार इस प्रविष्टि को चर्चा मंच पर स्थान देने के लिए !
एक गीत यह भी बहुत शानदार है-
लोगों के घर में रहता हूं
कब अपना कोई घर होगा
दीवारों की चिंता रहती है
दीवार में कब कोई दर होगा
इस गीत में गुलज़ार साहब दिखते भी हैं।
और मैं इस सोशल मीडिया के दौर में जितना मौजूदा वक्त में रहती हूं उतना ही आपके ये गीत मुझे मेरे बचपन वाले वक़्त में पहुंचाते हैं। ये तमाम फिल्में जब हमारे जीवन में उतरी थीं पहली दफा तब शायद बच्चे ही रहे होंगे, लेकिन इनकी ही यादें हैं जो आज तक संभली हुई हैं। नब्बे के दशक के बाद तो फिल्मों को याद करना भी एक जतन हो गया है
Sagar Nahar हाँ गुलज़ार वो भी बढ़ी हुई दाढ़ी में.. :) इस गाने का एक अंतरा मुझे पसंद आता है वो कुछ यूँ है..
इच्छाओं के चाबुक
चुपके चुपके सहता हूँ
दूजे का घर यूँ लगता है
मोजे पहने रहता हूँ
नंगे पाँव आँगन में
कब बैठूँगा कब घर होगा
दीवारों की चिंता रहती है
दीवारों में कब दर होगा।
Alka Kaushik मैंने ये फिल्म इसकी रिलीज़ के पाँच छः सालों बाद आपके दूरदर्शन के सौजन्य से ही देखी थी :) । तब ये फिल्म कितनी समझ आई थी ये तो याद नहीं पर संजीव कुमार, सारिका व शर्मीला टैगोर का अभिनय बेहद पसंद आया था। एक बात दिमाग को बहुत मथ गई थी वो ये कि अंतिम दृश्य में संजीव कुमार रोड के पार जाती सारिका को हाथ हिलाते हुए वापस क्यूँ आ जाते हैं। Symbolism किस चिड़िया का नाम है तब पता नहीं था इसलिए निर्देशक पर गुस्सा भी आया था कि कहानी अचानक ही क्यूँ खत्म कर दी।
इनकी केवल "अनुभव" देखी है दूरदर्शन पर(ऐसी फ़िल्में चलाने का जोखिम दूरदर्शन वाले ही ले सकते हैं,मैं आर्थिक नज़रिये के नफा-नुकशान के सहारे बोल रहा हूँ)
पहली बार में फ़िल्म काफी धीमे लगी।उस वक़्त के अनुभव से कुछ समझ नहीं आया था। आज जवाब मिल गया-दाम्पत्य जीवन की पेचीदगी और फ़िल्म एक गंभीर चिंतन की जगह।
मैं चाहता हूँ फ़िल्म "अंकुश" पर लिखिए खासकर उसके उस गाने पर जो लगभग सभी स्कूलों के प्रार्थना में शामिल की जाती है।
मंटू गर मन लायक कुछ बात लगी तो जरूर लिखूँगा।
एक टिप्पणी भेजें