आज से दस बारह साल पहले इंटरनेट में कविता ग़ज़लों को पसंद करने वाले कई समूह सक्रिय थे। प्रचलित भाषा में इन्हें बुलेटिन बोर्ड कहा जाता था। वैसे तो आज भी ये समूह हैं पर सोशल मीडिया के अन्य माध्यमों ने उनकी प्रासंगिकता खत्म कर दी है। ऐसी ही उर्दू कविता के समूह में फ़ैज़ की गज़लों पर चली एक कड़ी में मैंने "हम तो ठहरे अजनबी इतनी मदारातों के बाद... पहले पढ़ी और फिर सुनी थी। इस ग़ज़ल की वज़ह से ही मेरी पहचान नैयरा नूर की खूबसूरत गायिकी से हुई थी। फिर तो उनकी आवाज़ मुझे इतनी प्यारी लगी कि उनकी गायी कई अन्य मशहूर ग़ज़लें व नज़्में मुझे अपने दिल पे नाज़ था..., ऐ जज़्बा दिल गर मैं चाहूँ... , रात यूँ दिल में.... , कभी मैं खूबसूरत हूँ ... खोज खोज कर सुनी।
वैसे क्या आप जानते हैं कि लाहौर में पली बढ़ी नैयरा की पैदाइश भारत के शहर गुवहाटी में हुई थी। उनका परिवार अमृतसर से रोज़ी रोटी की तलाश में गुवाहाटी में बस गया था। जब भी उनसे अपने बचपन के दिनों के बारे में पूछा जाता वे गुवाहाटी की हरी भरी खूबसूरत पहाड़ियों के बीच बसे अपने घर की बात जरूर बतातीं और साथ ही ये भी कि रात में उनके उस घर के बाहर सैकड़ों की तादाद में पतंगे कैसे उमड़ पड़ते थे। पर उनके जन्म के छः सात साल बाद उनका परिवार 1957 के करीब लाहौर चला गया।
लाहौर में उनकी शिक्षा नेशनल आर्ट्स कॉलेज में हुई। कॉलेज के ज़माने में वे संगीत की हर प्रतियोगिता में हिस्सा लेतीं। ऐसी ही प्रतियोगिताओं में उनकी मुलाकात शहरयार ज़ैदी से हुई जो ख़ुद एक उभरते गायक थे। नैयरा ने संगीत का कोई प्रथम पुरस्कार भले ही शहरयार को लेने ना दिया हो पर अपना दिल वे उनसे जरूर हार बैठीं।
नैयरा नूर और फ़ैज़ , सामने हैं फैज़ की बेटी सलीमा हाशमी |
सत्तर के दशक की शुरुआत में कॉलेज के कार्यक्रम में जब वो लता का गाया भजन जो तुम तोड़ो पिया ... गा रही थीं तब उनकी आवाज़ पर प्रोफेसर असरार का ध्यान गया। असरार संगीतविद्य होने के साथ एक कम्पोजर भी थे। असरार ने ना केवल नैयरा नूर को गाने के लिए प्रोत्साहन दिया बल्कि अपने संगीतबद्ध नग्मे भी उनसे गवाए। नैयरा ने अगले कुछ सालों में पाकिस्तान टेलीविजन के ड्रामों में अपनी आवाज़ दी पर उनकी आवाज़ को लोगों ने पहचानना तब शुरु किया जब फ़ैज साहब की ग़ज़लों के एक एलबम में उनके दामाद शोएब हाशमी ने नैयरा को मौका दिया।
नैयरा ने शास्त्रीय संगीत की बक़ायदा शिक्षा नहीं ली पर ऐसा उन्हें सुनने से महसूस नहीं होता। नैयरा की गाई जिस नज़्म को आज मैं आपको सुनाने जा रहा हूँ वो इसी एलबम की है। ग़ज़ब सी कशिश है इस नज़्म में जो हाशमी साहब के दावतखाने में एक टेपरिकार्डर सरीखे यंत्र पर रिकार्ड की गई थी।
रात के गहराते सायों में एकाकी मन जब काटने को दौड़ता है और धड़कता दिल गुजारिश करता है उनके पास रहने की.. तो इस नज़्म की वादियों में मन ख़ुद ही भटक जाता है। आइए देखते हैं कि क्या कहते हैं फ़ैज़ इस नज़्म में..
तुम मेरे पास रहो
तुम मेरे पास रहो
तुम मेरे पास रहो
मेरे क़ातिल, मेरे दिलदार, मेरे पास रहो
जिस घड़ी रात चले
जिस घड़ी रात चले
आसमानों का लहू पी के स्याह रात चले
मरहम-ए-मुश्क लिए नश्तर-ए-अल्मास लिए
बैन करती हुई, हँसती हुई, गाती निकले
दर्द के कासनी, पाज़ेब बजाती निकले
मुझे पूरी तरह चेतना शून्य करने वाले मेरे प्रिय मेरे पास रहो। जब आस्मां का नीला लहू पी के ये रात स्याह हो जाती है, तो हीरे के नश्तर सी ये दिल में चुभती है। इसकी नीली पायल मेरे दर्द की आवाज़ बन जाती है। कभी विलाप करती, कभी हँसती, कभी गाती तो कभी अपनी सुगंध से दिल को मरहम लगाती इस रात में मैं तुम्हारी कमी महसूस करता हूँ। ऐसी रातों में तुम मेरे पास रहो।
जिस घड़ी सीनों में डूबे हुए दिल
आस्तीनों में निहाँ हाथों की,
राह तकने लगे, आस लिये
और बच्चों के बिलखने की तरह, क़ुल-क़ुल-ए-मय
बहर-ए-नासूदगी मचले तो मनाये न मने
जब कोई बात बनाये न बने
जब न कोई... बात चले
जिस घड़ी रात चले
जिस घड़ी मातमी, सुन-सान, स्याह रात चले
पास रहो
तुम मेरे पास रहो
तुम मेरे पास रहो
मेरे क़ातिल, मेरे दिलदार, मेरे पास रहो
जब तेरी यादों में दिल डूबता है, तब आस्तीनों में छुपे तुम्हारे बाहुपाश की आस दिल को बेचैन करती है। इस बेचैनी में गिलास में गिरती शराब का स्वर भी बच्चों के बिलखने जैसा लगता है। किसी तरह भी मन इस नैराश्य से निकल नहीं पाता। ना कोई बात सूझती है ना दोस्तों से बात करने का मन करता है। और तुम हो कि ऐसी दुखभरी सुनसान अँधेरी रात में भी पास नहीं रहती । अब तो रहोगी ना?
नैयरा फ़ैज़ से जुड़ी अपनी यादों के बारे में कहती हैं कि जब मैं अपने सहगायकों के साथ रिकार्डिंग के लिए हाशमी साहब के घर पर होती तो फ़ैज़ साहब भी दूर बैठ कर हमें सुनते रहते। वैसे भी फ़ैज़ साहब को महफिलों में शिरक़त करना और दूसरों को सुनना पसंद था। उनकी चुप्पी तभी टूटती जब उनसे कोई राय माँगी जाती। जब भी हम कोई कठिन सुर लगाते तो कनखियों से फ़ैज़ साहब की ओर देखते और हमेशा हमें प्रोत्साहित करती मुस्कान उनके चेहरे पर होती। उन्हें देखकर हमें यही लगता कि वो भी हमारी गायिकी का पूरा आनंद उठा रहे हैं ।
शहरयार से शादी के बाद अस्सी के दशक के उत्तरार्ध से नय्यारा ने अपने आप को घर परिवार तक सीमित कर दिया। वो कहती हैं कि पारिवारिक जिम्मेदारियों को वहन करते हुए संगीत से जुड़े अपने पेशे को ठहराव देने का उन्हें कोई मलाल नहीं है। अपनी पोतियों से दादी का शब्द सुनना ही आज उनके लिए संगीत है।
10 टिप्पणियाँ:
वाह... बहुत खुब
पसंदगी ज़ाहिर करने का शुक्रिया देवेंद्र !
बेहतरीन नज़्म...और उससे भी खूबसूरत नैयरा नूर जी की आवाज़...मैंने ये नज़्म पहली बार सुनी हे..और अब उनकी अन्य नज़्मे मुझे भी खोज खोज कर सुननी हे.. :)
मनीष जी आप नैयरा जी kiऔर नज़्मे भी शेयर कीजिये..
"जब कोई बात बनाये न बने
जब न कोई बात चले
जिस घडी रात चले..."
बहुत समय बाद ऐसा हुआ हे की किसी नज़्म को लगातार ७-८ बार सुना हो.. शुक्रिया आपका..
बहुत ही उम्दा धीरे धीरे नदी बह रही हो और आराम से उसकी आवाज़ सुनो पुरे सुकून के साथ
बहुत ही शानदार शुक्रिया मनीष जी।
बहुत ही अच्छी पोस्ट मनीष जी।
हाँ स्वाति इस नज़्म की धुन और नैयरा जी की गायिकी पूरे नज़्म की भावनाओं के अनुरूप माहौल को उदास कर देती है और इसी लिए इस नज़्म के साथ लेख के केंद्र में फ़ैज़ को नहीं बल्कि नैयरा जी को रखा :)
उस ज़माने में पाकिस्तान की संगीत साइट से आनलाइन रिकार्ड कर मैंने उनकी ग़ज़लें और गीत सँजोए थे। आज तो यू ट्यूब पर उनकी बेहतरीन ग़ज़लें Jukebox के रूप में एक ही जगह मिल जाएँगी।
गुलशन बिल्कुल आपने नज़्म के मूड को सही पकड़ा है। मन करता है कि नैयरा के साथ उसादी के इस लहर में बह से जाएँ।
बहुत प्यारी पोस्ट मनीष जी नायरा जी पहली बार रात यूँ दिल में तेरी खोई हुई याद आयी से सुना और फिर तो ढूँढ ढूँढ कर फैज़ की लगभग सभी गजले जो उन्हें ने गायी ! जितना प्यारा उनका नाम है उतनी ही प्यारी आवाज़ भी ! उनके बारे में इस जानकारी के लिए शुक्रिया !
सीमा जानकर खुशी हुई कि आपको भी उनकी आवाज़ उतनी ही प्यारी लगी जितनी मुझे लगती है।
अनु आपको ये पोस्ट पसंद आई जानकर प्रसन्नता हुई।
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