चचा ग़ालिब की शायरी से सबसे पहले गुलज़ार के उन पर बनाए गए धारावाहिक के ज़रिए ही मेरा परिचय हुआ था। हाईस्कूल का वक़्त था वो! किशोरावस्था के उन दिनों में चचा की ग़ज़लें आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक..., हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पर दम निकले...., दिल ही तो है ना संगो ख़िश्त ...और कोई दिन गर जिंदगानी और है ... अक्सर जुबां पर होती थी। जगजीत चित्रा की आवाज़ का जादू तब सिर चढ़कर बोलता था।
पर ग़ालिब की शायरी में उपजी ये उत्सुकता ज़्यादा दिन नहीं रह पाई। जब भी
उनका दीवान हाथ लगा उनकी ग़ज़लों को समझने की कोशिश की पर अरबी फ़ारसी के
शब्दों के भारी भरकम प्रयोग की वज़ह से वो दिलचस्पी भी जाती रही। मिर्जा के समकालीन साहित्यकार फ़ारसी में ही कविता करने और यहाँ तक की पत्र व्यवहार करने में ही अपना बड़प्पन समझते थे और ख़ुद मिर्जा ग़ालिब का भी ऐसा ही ख़्याल था। पचास की उम्र पार करने के बाद उन्होंने उर्दू में दिलचस्पी लेनी शुरु की। पर शायरी कहने का उनका अंदाज़ भाषा के मामले में पेचीदा ही रहा।
मरने के सालों बाद ग़ालिब को जो लोकप्रियता मिली उसका नतीजा ये हुआ कि अपनी शायरी चमकाने के लिए बहुतेरे कलमकारों ने अपने हल्के फुल्के अशआरों में मक़्ते के तौर पर ग़ालिब का नाम जोड़ दिया। चचा के नाम पर इतने शेर कहे गए कि उन्हें देखकर उनका अपनी कब्र से निकलने कर जूतमपाज़ी करने का जी चाहता होगा। इंटरनेट पर ग़ालिब के नाम से इकलौते शेरों को जमा कर दिया जाए तो उसका एक अलग ही दीवान बन जाएगा। ये दीगर बात है कि उसमें से दस से बीस फीसदी शेर चचा के होंगे।
बहरहाल एक बात मैंने गौर की कि चचा ग़ालिब की ग़ज़लों को जब जब गाया गया वो सुनने में बड़ी सुकूनदेह रहीं। उनकी ऐसी ही एक ग़ज़ल मैंने पिछले दिनों सुनी पहले जनाब मेहदी हसन और फिर जगजीत सिंह की आवाज़ों में। अब ये फ़नकार ऐसे हैं कि किसी ग़ज़ल में जान डाल दें और ये ग़ज़ल तो चचा की है।
आपकी सहूलियत के लिए चचा ग़ालिब की इस ग़ज़ल का अनुवाद भी साथ किए दे रहा हूँ।
अर्ज़-ए-नियाज़-ए-इश्क़ के क़ाबिल नहीं रहा
जिस दिल पे नाज़ था मुझे, वो दिल नहीं रहा
हालात ये हैं कि अब ये दिल प्रेम की आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति के भी लायक नहीं रहा। अब तो इस जिस्म में वो दिल ही नहीं रहा जिस पर कभी गुरूर हुआ करता था।
जाता हूँ दाग़-ए-हसरत-ए-हस्ती लिये हुए
हूँ शमआ़-ए-कुश्ता दरख़ुर-ए-महफ़िल नहीं रहा
कितनी तो ख़्वाहिशें थीं! कहाँ पूरी होनी थीं? जीवन की उन अपूर्ण ख़्वाहिशों का दाग़ मन में लिए रुख़सत ले रहा हूँ मैं। मैं तो वो बुझा हुआ दीया हूँ जो किसी महफिल की रौनक नहीं बन पाया।
मरने की ऐ दिल और ही तदबीर कर कि मैं
शायाने-दस्त-ओ-बाज़ू-ए-कातिल नहीं रहा
अब तो लगता है कि इस दिल को लुटाने का कुछ और बंदोबस्त करना होगा। अब तो मैं अपने क़ातिल के कंधों और बाहों में क़ैद होकर मृत्यु का आलिंगन कर सकने वाला भी नहीं रहा।
वा कर दिये हैं शौक़ ने बन्द-ए-नक़ाब-ए-हुस्न
ग़ैर अज़ निगाह अब कोई हाइल नहीं रहा
अब कहाँ मेरा हक़ उन पर सो मेरी चाहत ने भी स्वीकार कर लिया है उन पर्दों को खोलना जिनमें उनकी खूबसूरती छिपी थी। अब उन पर गैरों की निगाह पड़ने की रुकावट भी नहीं रही।
गो मैं रहा रहीन-ए-सितम-हाए-रोज़गार
लेकिन तेरे ख़याल से ग़ाफ़िल नहीं रहा
यूँ तो ज़िदगी ही दुनिया के अत्याचारों से पटी रही मगर फिर भी तुम्हारी यादें मेरे दामन से कभी अलग नहीं हुईं ।
दिल से हवा-ए-किश्त-ए-वफ़ा मिट गया कि वां
हासिल सिवाये हसरत-ए-हासिल नहीं रहा
दिल की ज़ानिब आती वो हवा जो हमारी वफ़ाओं की नाव को किनारे लगाने वाली थी वही रुक सी गयी जैसे । ठीक वैसे ही जैसे तुम तक पहुँचने की वो हसरत, वो तड़प ना रही बस तुम रह गई ख़यालों में ।
बेदाद-ए-इश्क़ से नहीं डरता मगर 'असद'
जिस दिल पे नाज़ था मुझे वो दिल नहीं रहा
प्यार का ग़म झेलने सेे कभी डरा नहीं मैं पर अब तो प्यार करने का वो जिगर ही नहीं रहा जिस पर कभी मुझे नाज़ था।
ग़ालिब की ये ग़ज़ल मायूस करने वाली है। सोचिए तो जिसे हम दिलों जाँ से चाहें और फिर कुछ ऐसा हो कि वो चाहत ही मर जाए तो फिर दिल उस शख़्स के बारे में सोचकर कैसा खाली खाली सा हो जाता है। भावनाएँ मर सी जाती हैं, कुछ ऐसी ही कैफ़ियत , कुछ ऐसे ही अहसास दे जाती है ये ग़ज़ल... इस ग़ज़ल को मेहदी हसन साहब की आवाज़ में सुनने में बड़ा सुकून मिलता है।
12 टिप्पणियाँ:
bahut khoob manish ji ghalib serial ki baat ho chaahe chitra ji ki aawaz ka jaadu dono hi bemisaal aur jagjit ji ki aawza mein ghalib ko sunkar to aisa lagta hai ki wo ghalib ke saath hi jiye hai
हाँ कमाल का सीरियल था कमाल की ग़ज़लें वो..ग़ालिब को हमारे घर कूचे तक ले आया।
Aap nhi jante ki iss kam ke jariye aap hindi aur urdu ki kitni seva kr rhe hain aur Jagjeet ji ke guzarne jane k baad ghazal ka kamobesh kam hona usmein aap phir ek nyi jaan phoonk rhe hain sarahniy prayog h bahut safalta milegi
शुक्रिया दीप साहब सराहने के लिए। कविता व शायरी के प्रति अपनी दिलचस्पी को मैं यूँ व्यक्त करने में मुझे हमेशा से आनंद आता रहा है और मेरी ये कोशिश पिछले एक दशक से बदस्तूर ज़ारी है।
उर्दू का बहुत ज्यादा ज्ञान न होने के बावजूद मेहदी हसन की आवाज़ सब समझा देती है
हाँ उनकी आवाज़ की लर्जिश दिल के तारों को झंकृत कर देती है।
शानदार पोस्ट .... बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति .... Thanks for sharing this!! :) :)
आनन्द आ गया..
सराहने का शुक्रिया हिंदी इंडिया व समीर जी ।
Bahut barhiya....
बहुत सुंदर प्रयास, सार सहित, आपका आभार मित्र ।
Waaooo
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