हिंदी फिल्म संगीत में माँ और बच्चे के बीत का वातसल्य तो कई गीतों में झलका है पर एक पिता के अपने पुत्र या पुत्री से प्रेम को नग्मों के माध्यम से व्यक्त करने के अवसर फिल्मों में कम ही आए हैं। दो साल पहले एक बच्ची का अपने गुम पिता को याद करता बेहद संवेदनशील गीत क्या वहाँ दिन है अभी भी, पापा तुम रहते जहाँ हो...ओस बन के मैं गिरूँगी, देखना, तुम आसमाँ हो इस संगीतमाला का सरताज बना था। वहाँ एक बच्ची के जीवन से पिता हमेशा हमेशा के लिए गुम हो गए थे। यहाँ उसके ठीक उलट एक बेटा पिता की ज़िंदगी से अनायास ही छीन लिया गया है। वार्षिक संगीतमाला की चौदहवीं पॉयदान पर फिल्म मदारी का ये गीत असमय हुए पुत्र विछोह का दर्द बयाँ करता है।
इस गीत को संगीतबद्ध किया है सनी और इन्दर बावरा की जोड़ी ने। बठिंडा से ताल्लुक रखने वाले इन भाइयों का असली नाम इन्दरजीत सिंह बावरा और परमजीत सिंह बावरा है। बावरा खानदान में संगीत की परंपरा तीन पीढ़ियों से थी। बठिंडा से आरंभिक शिक्षा लेने के बाद जहाँ इन्दर भारतीय संगीत की बारीकियों को मुंबई जाकर रवींद्र जैन, एन आर पवन और सुरेश वाडकर से सीखते रहे वहीं उनके छोटे भाई पश्चिमी संगीत में महारत हासिल करने के लिए लंदन जा पहुँचे। विगत कुछ वर्षों में इस जोड़ी ने टीवी धारावाहिकों में ही अपना ज्यादातर संगीत दिया है ।
वैसे पिछले साल फिल्म रॉकी हैंडसम में उनका गीत रहनुमा काफी सराहा गया था। जहाँ तक मासूम सा की बात है, गीत की प्रकृति को देखते हुए बावरा बंधुओं ने संगीत को शांति से शब्दों के पीछे बहने दिया है। पहले व दूसरे अंतरे के बीच बाँसुरी और सेलो जो वॉयलिन जाति का ही एक वाद्य है का संगीत संयोजन गीत की उदासी को और विस्तार देता है।
सुखविंदर की आवाज़ का प्रयोग अक़्सर संगीतकार ऊँचे सुरों के लिए करते रहे हैं। पिता पुत्र की आपसी संवेदनाओं को उभारते इस गीत में सुखविंदर मुलयामियत के साथ गीत की व्यथा को अपनी आवाज़ में शामिल कर पाए हैं। पर इस गीत का सबसे मजबूत पक्ष है, इसके दिल को छू लेने वाले बोल। इरशाद क़ामिल ने इस अलग से विषय को भी अपने रूपको से इस तरह आत्मसात किया है कि गीत सुनते सुनते पलकें नम हो जाती हैं। इस गीत के आख़िरी अंतरे में क़ामिल की ये पंक्तियाँ दिल पर गहरा असर करती हैं जब कामिल कहते हैं.. मेरी ऊँगली को पकड़ वो चाँद चलता शहर में, ज़िन्दगी की बेहरम सी धूप में, दोपहर में..मैं सुनाता था उसे अफ़साने रंगीन शाम के.. ताकि वो चलता रहे, चलता रहे और ना थके...
पालने में चाँद उतरा खूबसूरत ख़्वाब जैसा
गोद में उसको उठाता तो मुझे लगता था वैसा
सारा जहान मेरा हुआ, सारा जहान मेरा हुआ
सुबह की वो पहली दुआ या फूल रेशम का
मासूम सा मासूम सा, मेरे आस पास था मासूम सा
मेरे आस पास था मासूम सा, हो मासूम सा
एक कमरा था मगर सारा ज़माना था वहाँ
खेल भी थे और ख़ुशी थी, दोस्ताना था वहाँ
चार दीवारों में रहती थी हजारों मस्तियाँ
थे वही पतवार भी, सागर भी थे और कश्तियाँ
थे वही पतवार भी, सागर भी थे और कश्तियाँ
मेरी तो वो पहचान था, मेरी तो वो पहचान था
या यूँ कहो की जान था वो चाँद आँगन का
मासूम सा मासूम सा, मेरे आस पास था मासूम सा
मेरे आस पास था मासूम सा, हो मासूम सा
मेरी ऊँगली को पकड़ वो चाँद चलता शहर में
ज़िन्दगी की बेहरम सी धूप में, दोपहर में
मैं सुनाता था उसे अफ़साने रंगीन शाम के
ताकि वो चलता रहे, चलता रहे और ना थके
ताकि वो चलता रहे, चलता रहे और ना थके
ना मंजिलो का था पता, ना मंजिलो का था पता
थी ज़िन्दगी इक रास्ता, वो साथ हर पल था
मासूम सा मासूम सा, मेरे आस पास था मासूम सा
मेरे आस पास था मासूम सा, हो मासूम सा
फिल्म के मुख्य अभिनेता इरफान खाँ कहते हैं कि जब भी मैं ये गीत सुनता हूँ तो मुझे अपने पिता याद आते हैं। आशा है इसे सुनने के बाद आप सब की यही स्थिति होगी।
zxc
वार्षिक संगीतमाला 2016 में अब तक
6 टिप्पणियाँ:
बहुत ही उम्दा ..मेरी ऊँगली को पकड़ वो चाँद चलता शहर में ...वाकई पिता का होना और उनकी हमारे लिए ना जाहिर की वो फिक्र ..शुक्रिया मनीष जी
हाँ गुलशन, पिता का प्रेम बहुधा अप्रकट ही रह जाता है। इरशाद क़ामिल ने उन भावनाओं को पकड़ते हुए सुनने वालों को एक प्यारा सा नग्मा दिया है।
ये गीत कितनी भी बार सुन लो आप भावुक हो जायेंगे और जितना आंनद इसे सुनने में आता है उतना ही इसे पढ़ने में भी आता है.
सही कहा आपने गोविंद !
अब आने शुरू हुए मेरे मन पसन्द गीत। यह गीत जब मूवी में देखा तो आँखें नम हो गयी थीं, फिर इसे कई दिन तक सुनती रही।
सुखविंदर की की आवाज़ और भावुक बोल दिल के कोने नम कर देते है ।
Kanchan हाँ, एक ऐसा ही गीत प्रथम पाँच में भी है भावुक करने वाला...
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