बाहर बारिश की झमाझम है और मन भी थोड़ा रिमझिम सा हो रहा है तो सोच रहा हूँ कि क्यूँ ना आज आपको हरिहरण साहब की गायी वो हल्की फुल्की पर बेहद मधुर ग़ज़ल सुनाऊँ जिसके कुछ अशआर कुछ दिनों से मन में तरलता सी घोल रहे हैं।
हरिहरण ने ये ग़ज़ल अपने एलबम काश में वर्ष 2000 में रिकार्ड की थी। 'काश' उस समय तक के हरिहरण के एलबमों से थोड़ी भिन्नता लिए जरूर था। सामान्यतः हरिहरण ग़ज़लों में हमेशा से अपनी शास्त्रीयता के लिए जाने जाते रहे हैं। ग़ज़ल में परंपरागत रूप से इस्तेमाल होने वाले वाद्य यंत्रों जैसे हारमोनियम, सारंगी और तबले के साथ हरिहरण का आलाप आपने भी कई ग़ज़लों में सुना होगा। पर जगजीत सिंह की तरह ही वक़्त के साथ उन्होंने भी कई एलबमों में नए नए प्रयोग करने की कोशिश की। जनवरी 1999 से इस एलबम की तैयारी शुरु हुई पर इसे बनने में पूरा एक साल लग गया। बकौल हरिहरण
"मुझे इस एलबम को पूरा रिकार्ड करने में इतना समय इसलिए लगा क्यूँकि इन ग़ज़लों को मैं उस आवाज़ व संगीत के साथ पेश करना चाहता था जो वर्षों से मेरे मन में रच बस रही थी। आप इसे आज के प्रचलित वाद्यों के साथ कविता और ठेठ गायिकी का मिश्रण मान सकते हैं।"
हरिहरण ने अपने इस प्रयोग को तब Urdu Blues की संज्ञा दी थी। अब ये एलबम उस वक़्त सराहा तो गया था पर इतना भी नहीं कि इसे हरिहरण के सर्वोत्तम एलबमों में आँका जा सके। इसका एक कारण हरिहरण की चुनी हुई कुछ ग़ज़लों में शब्दों की गहराई का ना होना भी था।
ख़ैर एलबम की कुछ पसंदीदा ग़ज़लों में एक थी मैकदे बंद करे लाख जमाने वाले. जिसे मैं आज आपको सुनवाने जा रहा हूँ। गिटार और बांसुरी के साथ उस्ताद रईस खान का सितार मन को तब चंचल कर देता है जब ग़ज़ल के मतले में हरिहरण की आवाज़ कुछ ये कहती सुनाई पड़ती है
मैकदे बंद करे लाख ज़माने वाले
शहर में कम नहीं आँखों से पिलाने वाले
सच ही तो है , जिसने भी हुस्न और शोखियों का स्वाद उनकी आँखों के पैमाने से पिया है उसे भला मयखाने जाने की क्या जरूरत?
मतले के बाद का शेर सुनकर तो बस आह ही उभरती है, कोई पुरानी कसक याद दिला ही जाता है ये नामुराद शेर
काश मुझको भी लगा ले तू कभी सीने से
मेरी तस्वीर को सीने से लगाने वाले
ग़ज़ल का अगला शेर सुनने के पहले आप घटम और सितार की मधुर जुगलबंदी सुन सकते हैं। वैसे इस एलबम में ड्रम्स या घटम जैसे ताल वाद्यों को बजाया था मशहूर ड्रमर शिवमणि ने ।
हम यकीं आप के वादे पे भला कैसे करें
आप हरगिज़ नहीं हैं वादा निभाने वाले
इस ग़ज़ल को किसने लिखा ये ठीक ठीक पता कर पाना मुश्किल है। कुछ लोग इसे ताज भोपाली की ग़ज़ल बताते हैं। पर हरिहरण साहब ने एक जगह जरूर ये कहा था कि मैंने इस एलबम में ताहिर फ़राज़, मुन्नवर मासूम, मुजफ्फर वारसी, वाली असी, कैफ़ भोपाली, शहरयार और क़ैसर उल जाफ़री की ग़ज़लें ली थीं। अब इनमें से जिन जनाब की भी ये ग़ज़ल हो आख़िरी शेर में सादी जुबां में ज़िदगी की एक हकीक़त ये कह कर बयाँ की है कि
अपने ऐबों पर नज़र जिनकी नहीं होती है
आईना उनको दिखाते हैं ज़माने वाले
तो आइए इस बरसाती मौसम में आप भी मेरे साथ इस ग़ज़ल का लुत्फ़ उठाइए...
7 टिप्पणियाँ:
Lovely.. Kaafi dino ke baad phir se suni yeh ghazal.
इस ग़ज़ल की याद हाल ही में तुमने दिलाई थी :)
वाह ! लाजवाब गजल सुनकर एग्जाम की सारी टेंशन जाती रही
खुशी हुई जानकर गुलशन कि परीक्षा का तनाव घटाने में ये ग़ज़ल सहायक रही। आशा है आपकी परीक्षाएँ अच्छी जा रही होंगी।
वाह ! लाजवाब गजल
पसंदगी ज़ाहिर करने का शुक्रिया !
बहुत ही लाज़वाब ग़ज़ल है,स्कूल के दिनों की याद ताजा हो गयी,शुक्रिया।
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