धर्मवीर भारती को किशोरावस्था तक अपनी प्रिय पत्रिका धर्मयुग का संपादक भर जानता रहा। गुनाहों का देवता और सूरज का सातवाँ घोड़ा तो बहुत बाद में ही पढ़ा। सूरज का सातवाँ घोड़ा पढ़ते हुए ही उनकी एक खूबसूरत कविता से भी रूबरू हुआ जो इसी नाम की एक फिल्म में गीत बन कर भी उभरी। गीत के बोल थे ये शामें सब की सब शामें क्या इनका कोई अर्थ नहीं..
शाम का पहर बड़ा अजीब सा है। दोस्तों का साथ रहे तो कितना जीवंत हो उठता है और अकेले हों तो कब अनायास ही मन में उदासी के बादल एकदम से छितरा जाएँ पता ही नहीं चलता। फिर तो हवा के झोकों के साथ अतीत की स्मृतियाँ मन को गीला करती ही रहती हैं। धर्मवीर भारती को भी लगता है शाम से बड़ा लगाव था। पर जब जब उन्होंने दिन के सबसे खूबसूरत पहर पर कविताएँ लिखीं उनमें ज़िंदगी से खोए लोगों का ही पता मिला। उनके ना होने की तड़प मिली।
अब भारती जी की इसी कविता को लीजिए मायूसी के इस माहौल में डूबी शाम में वो उम्मीद कर रहे हैं एक ऐसे अजनबी की जो शायद जीवन को नई दिशा दे जाए। पर वक़्त के साथ उनकी ये आस भी आस ही रह जाती है। अजनबी तो नहीं आते पर किसी के साथ बिताए वे पल की यादें पीड़ा बन कर रह रह उभरती है।
कविता की अंतिम पंक्तियों में भारती जी जीवन का अमिट सत्य बयान कर जाते हैं। जीवन में कई लोग आते हैं जिनसे हमारा मन का रिश्ता जुड़ जाता है। उनके साथ बीता वक़्त मन को तृप्त कर जाता है। पर यही लगाव, प्रेम उनके जुदा होने से दिल में नासूर की तरह उभरता है। हमें विचलित कर देता है। शायद शाम के समय जब हम अपने सबसे ज्यादा करीब होते हैं हमारा दिल अपने बंद किवाड़ खोलता है और भारती जी जैसा कवि हृदय तब कुछ ऐसा महसूस करता है...
(1)
शाम है, मैं उदास हूँ शायद
अजनबी लोग अभी कुछ आएँ
देखिए अनछुए हुए सम्पुट
कौन मोती सहेजकर लाएँ
कौन जाने कि लौटती बेला
कौन-से तार कहाँ छू जाए!
बात कुछ और छेड़िए तब तक
हो दवा ताकि बेकली की भी
द्वार कुछ बन्द, कुछ खुला रखिए
ताकि आहट मिले गली की भी!
देखिए आज कौन आता है
कौन-सी बात नयी कह जाए
या कि बाहर से लौट जाता है
देहरी पर निशान रह जाए
देखिए ये लहर डुबोये, या
सिर्फ़ तटरेख छू के बह जाए!
कूल पर कुछ प्रवाल छूट जाएँ
या लहर सिर्फ़ फेनवाली हो
अधखिले फूल-सी विनत अंजुली
कौन जाने कि सिर्फ़ खाली हो?
(2)
वक़्त अब बीत गया बादल भी
क्या उदास रंग ले आए
देखिए कुछ हुई है आहट-सी
कौन है? तुम? चलो भले आए!
अजनबी लौट चुके द्वारे से
दर्द फिर लौटकर चले आए
क्या अजब है पुकारिए जितना
अजनबी कौन भला आता है
एक है दर्द वही अपना है
लौट हर बार चला आता है!
अनखिले गीत सब उसी के हैं
अनकही बात भी उसी की है
अनउगे दिन सब उसी के हैं
अनहुई रात भी उसी की है
जीत पहले-पहल मिली थी जो
आखिरी मात भी उसी की है!
एक-सा स्वाद छोड़ जाती है
ज़िन्दगी तृप्त भी व प्यासी भी
लोग आए गए बराबर हैं
शाम गहरा गई, उदासी भी!
अजनबी लोग अभी कुछ आएँ
देखिए अनछुए हुए सम्पुट
कौन मोती सहेजकर लाएँ
कौन जाने कि लौटती बेला
कौन-से तार कहाँ छू जाए!
बात कुछ और छेड़िए तब तक
हो दवा ताकि बेकली की भी
द्वार कुछ बन्द, कुछ खुला रखिए
ताकि आहट मिले गली की भी!
देखिए आज कौन आता है
कौन-सी बात नयी कह जाए
या कि बाहर से लौट जाता है
देहरी पर निशान रह जाए
देखिए ये लहर डुबोये, या
सिर्फ़ तटरेख छू के बह जाए!
कूल पर कुछ प्रवाल छूट जाएँ
या लहर सिर्फ़ फेनवाली हो
अधखिले फूल-सी विनत अंजुली
कौन जाने कि सिर्फ़ खाली हो?
(2)
वक़्त अब बीत गया बादल भी
क्या उदास रंग ले आए
देखिए कुछ हुई है आहट-सी
कौन है? तुम? चलो भले आए!
अजनबी लौट चुके द्वारे से
दर्द फिर लौटकर चले आए
क्या अजब है पुकारिए जितना
अजनबी कौन भला आता है
एक है दर्द वही अपना है
लौट हर बार चला आता है!
अनखिले गीत सब उसी के हैं
अनकही बात भी उसी की है
अनउगे दिन सब उसी के हैं
अनहुई रात भी उसी की है
जीत पहले-पहल मिली थी जो
आखिरी मात भी उसी की है!
एक-सा स्वाद छोड़ जाती है
ज़िन्दगी तृप्त भी व प्यासी भी
लोग आए गए बराबर हैं
शाम गहरा गई, उदासी भी!
सम्पुट : दोनों हथेलियों को मिलाने और टेढ़ा करने से बना हुआ गड्ढा जिसमें भरकर कुछ दिया या लिया जाता है, प्रवाल : कोरल, कूल : किनारा
तो आइए सुनिए इस कविता के भावों तक पहुँचने की मेरी एक कोशिश..
तो आइए सुनिए इस कविता के भावों तक पहुँचने की मेरी एक कोशिश..
16 टिप्पणियाँ:
Aapka highlight kiya hua hissa mujhe bhi behad pasand hai
हाँ, बिल्कुल मयंक। कविता की जान हैं वो पंक्तियाँ।
Beautiful ! Thanks for sharing
आपको कविता पसंद आयी जान कर खुशी हुई।
These were my favourite lines during my PhD time : एक सा स्वाद.... Thanks for reminding Manish bhai.
अमित जब सितंबर में आपसे मुलाकात होगी तो पूछेंगे कि वो कौन सा स्वाद था जीवन का जिसने इन पंक्तियों को आपका पसंदीदा बना दिया?
वो छन्द संवाद का स्वाद था और भारती जी के साहित्य से प्रथम परिचय। सपना अभी भी, कनुप्रिया, और अनेक कृतियाँ। जोड़ी बनाकर कविताएं लिखने का उनका गुर प्रभावशाली है.... चाहे मैं हूँ, चाहे तुम हो... कुछ याद आया? भारती जी की रचना...
अमित याद तो तब आए जब पढ़ा हो। :)
अब तक भारती जी का लिखा गद्य ही नज़रों से ज्यादा गुजरा है। उनकी कविताओं से मुलाकात अनायास ही होती रही है। आपने जिस कविता का जिक्र किया है उसका कोई लिंक हो तो दें।
अमित शायद जिस संवाद के छंद की बात लार रहे हैं , उस का एक उदाहरण 'कनुप्रिया' से पुष्पा भारती जी की आवाज़ में यहाँ सुना जा सकता है ।
https://youtu.be/giF0sNhFaAc
'कनुप्रिया' और 'सपना अभी भी' कवितकोश पर उपलब्ध है ।
अनूप जी शुक्रिया इस लिंक के लिए। पुष्पा जी ने तो आपनी आवाज़ में राधा की समस्त भावनाएँ समाहित कर लीं। बहुत अच्छा लगा सुन कर।
Man Moh Liya ji
जानकर खुशी हुई प्रशांत !
Jeet pehle pehel mili thi jo, aakhri maat bhi usi ki hai!!
:-)
Mujhe lagta hai is aakhri maat ko jeet me badalne ki koshish hi to zindagi hai.
Welcome back to blogging world Charu.
आपने ये बात अपने तजुर्बे से कही है ना। दुख से सुख और सुख से दुख का क्रम तो यूँ ही चलता रहता है ज़िदगी में और ऐसे ही इतार चढ़ावों से जूझते हुए ज़िंदगी कटती है।
इस सफ़र में जब दर्द एक सीमा से ज्यादा हो जाता है तो ऐसी कविताएँ फूटती हैं।
बहुत ही बेहतरीन article लिखा है आपने। Share करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। :) :)
जी, बहुत अच्छा प्रयास
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