पिछले हफ्ते आपको मैंने नूरजहाँ का गाया एक गीत सुनवाया था और ये वादा भी किया था कि उन्हीं की आवाज़ में मकबूल शायर नासिर काज़मी साहब की कुछ ग़ज़लों को आपके सामने लाऊँगा। नासिर साहब की पैदाइश पंजाब के अंबाला की थी। आजादी के बाद वो लाहौर जाकर बस गए। फिर पहले कुछ साल पत्रकारिता और साहित्यिक पत्रिकाओं के संपादन का काम किया। बाद में वो रेडियो पाकिस्तान से भी जुड़े।
यूँ तो नासिर साहब की लिखी ग़ज़लों को लगभग हर बड़े फ़नकार ने गाया है पर मेरा उनकी शायरी से प्रथम परिचय गुलाम अली की वज़ह से अस्सी के दशक में हुआ। ये वो जमाना था जब कैसेट्स की जगह बाजार में एल पी रिकार्ड बिका करते थे। तब पैनासोनिक के टेपरिकार्डर भी नेपाल से मँगाये जाते थे। हमारे भी एक रिश्तेदार नेपाल से सटे बिहार के मोतिहारी जिले से ताल्लुक रखते थे। काम के सिलसिले में उनका नेपाल में आना जाना लगा रहता था। उन्हीं से कहकर हमारे घर में तब कुछ कैसेट्स मँगवाए गए थे। इनमें ज्यादातर कैसेट्स भारत और पाकिस्तानी कलाकारों द्वारा लंदन के रॉयल अलबर्ट हॉल में किये गए कार्यक्रमों के थे।
उसी में एक कैसेट था गुलाम अली साहब का था जिसमें अकबर इलाहाबादी की हंगामा हैं क्यूँ बरपा, मोहसीन नकवी की इतनी मुद्दत बाद मिले हो और आवारगी के साथ नासिर काज़मी साहब की मशहूर ग़ज़ल दिल में इक लहर सी उठी है अभी..कोई ताज़ा हवा चली है अभी.... भी शामिल थी। गुलाम अली ने अपने खास अंदाज़ में इस ग़ज़ल को यूँ गाया था मानो आवाज़ में लहरे उठ रही हों। छोटी बहर की ग़ज़लों में नासिर साहब को कमाल हासिल था। उनकी इस ग़ज़ल के चंद शेर जो मुझे बेहद पसंद आए थे वो थे
कुछ तो नाज़ुक मिज़ाज हैं हम भी
और ये चोट भी नई है अभी
भरी दुनिया में जी नहीं लगता
जाने किस चीज़ की कमी है अभी
सो गये लोग उस हवेली के
एक खिड़की मगर खुली है अभी
अस्सी के दशक में ही गुलाब अली साहब ने आशा जी के साथ मिल कर एलबम किया। एलबम का नाम था मेराज ए ग़ज़ल। एलबम की बारह ग़ज़लों में एक तिहाई पर नासिर काज़मी का नाम था। उस एलबम में नासिर साहब की जो ग़ज़ल सबसे ज्यादा बजी उसका मतला कुछ यूँ था गए दिनों का सुराग़ लेकर किधर से आया किधर गया वो...अजीब मानूस अजनबी था मुझे तो हैरान कर गया वो। बड़ी बहर की इस ग़ज़ल में नासिर साहब ने जो शेर लिखे थे वो वाहवाही के हक़दार थे। अब देखिये एक ही ग़ज़ल में दो ऐसे शेर थे जो ख़्याल में एक दूसरे से बिल्कुल जुदा हैं।
पहले शेर में आलम ये है कि नासिर साहब को ग़म और खुशी दोनों में अपने हमदम की यादें बेचैन करती थीं । बाग का हर फूल उसकी खुशबू की गवाही देता था। कानों में सुनाई देने वाला हर गीत मानो ऐसा लगता कि उसी के लिए लिखा गया हो।
वो बू-ए-गुल था कि नग़मा-ए-जान मेरे तो दिल में उतर गया वो
वहीं एक अलग ही रंग सामने आ जाता है दूसरे शेर में जब वही प्रियतम यादों से उतरने लगता है। अब तो ना उसकी यादें परेशान करती हैं और ना ही उन उदास सावन की रुतों में उसका इंतज़ार खलता है। हाँ एक हल्की सी कसक दिल में उठती है जब उसका जिक्र आता है पर ये कसक अब कोई पीड़ा नहीं देती। कष्ट हो तो कैसे उसके दिए जख्म भर जो चुके हैं।
न अब वो यादों का चढ़ता दरिया न फ़ुर्सतों की उदास बरखा
यूँ ही ज़रा सी कसक है दिल में जो ज़ख़्म गहरा था भर गया वो
नासिर साहब को घुड़सवारी और शिकार तो भाते थे ही उन्हें घूमने का भी बड़ा शौक था। गाँवों में विचरना, नदी के किनारे टहलना, पेड़ों और पंक्षियों को निहारना और पहाड़ों में वक़्त बिताना उन्हें खासा पसंद था। वे कहा करते थे कि यही वो वक़्त होता था जब वो प्रकृति के करीब होते और कविता हृदय में आकार लेती। प्रकृति के बदलते रूपों पर मनुष्य की कभी पकड़ तो रही नहीं पर उन गुजरते खूबसूरत लमहों को शब्दों के जाल में तो बाँधा जा ही सकता था। नासिर साहब ने इन्हीं पलों को क़ैद करने के लिए कविता लिखनी शुरु की।
ख़ैर हम बातें कर रहे थे उनकी ग़ज़लों की। नासिर साहब की लिखी एक ग़ज़ल जो उदासी के लमहों में हमेशा मेरे साथ होती थी वो थी दिल धड़कने का सबब याद आया .. वो तेरी याद थी अब याद आया। इसे पहली बार मैंने पंकज उधास की आवाज़ में सुना था और तभी से इसका मतला जुबाँ पर चढ़ गया था। बाद में इसे जब नूरजहाँ की दिलकश आवाज़ में सुना तो इस ग़ज़ल का दर्द और उभर आया।
नासिर काज़मी की ग़ज़लों की खासियत उनका सरल लहजा है़। पर इस सरल लहजे में गहरी बात कहने का जो हुनर उनके पास था वो आप इन अशआरों में ख़ुद ही महसूस कर सकते हैं। जब किसी की याद बुरी तरह सताए तो बस इस ग़ज़ल के साथ अपने को बहा दीजिए, आँसुओं के साथ साथ दिल का खारापन भी जाता रहेगा।
दिल धड़कने का सबब याद आया
वो तेरी याद थी अब याद आया
आज मुश्किल था सम्भलना ऐ दोस्त
तू मुसीबत में अजब याद आया
दिन गुज़ारा था बड़ी मुश्किल से
फिर तेरा वादा-ए-शब याद आया
तेरा भूला हुआ पैमान-ए-वफ़ा
मर रहेंगे अगर अब याद आया
फिर कई लोग नज़र से गुज़रे
फिर कोई शहर-ए-तरब याद आया
हाल-ए-दिल हम भी सुनाते लेकिन
जब वो रुख़सत हुए तब याद आया
बैठ कर साया-ए-गुल में "नासिर"
हम बहुत रोये वो जब याद आया
यूँ तो इस ग़ज़ल को नूरजहाँ के आलावा गुलाम अली, जगजीत सिंह, आशा भोसले और पंकज उधास ने भी गाया है पर जो असर नूरजहाँ की आवाज़ का है वो और कहीं नहीं मिलता।
नासिर साहब की लिखी और नूरजहाँ की गाई एक और मशहूर ग़ज़ल मुझे बेहद पसंद है। ये ग़ज़ल है नीयत-ए-शौक़ भर न जाये कही..... तू भी दिल से उतर न जाये कहीं । दरअसल हम जिसे चाहते हैं उसे कोसते भी हैं तो कभी उसकी चिंता में घुलते रहते हैं। ऐसे ही विपरीत मनोभावों को नासिर ने इस ग़ज़ल में जगह दी है। मतले में अपने प्रिय से जी भर जाने की बात करते हैं और फिर ये आरजू भी व्यक्त कर देते हैं कि प्रियतम जब लौट कर आए तो उन्हें छोड़ कर ना जाए।
नीयत-ए-शौक़ भर न जाये कहीं
तू भी दिल से उतर न जाये कहीं
आज देखा है तुझे देर के बाद
आज का दिन गुज़र न जाये कहीं
न मिला कर उदास लोगों से
हुस्न तेरा बिखर न जाये कहीं
आरज़ू है के तू यहाँ आये
और फिर उम्र भर न जाये कहीं
आओ कुछ देर रो ही लें "नासिर"
फिर ये दरिया उतर न जाये कहीं
नासिर साहब की लिखी कोई और ग़ज़ल जो आपको पसंद हो तो बताएँ। मुझे जानकर खुशी होगी।
6 टिप्पणियाँ:
नासिर काजमी बेहतरीन शायर थे। लाजवाब पेशकश जी
बिल्कुल । आलेख पसंद करने के लिए शुक्रिया।🙂
बहुत बढ़िया लेख मनीष जी।
सराहने के लिए धन्यवाद ☺️
इन बेहतरीन शेरों/गज़लों को इतने बेहतर तरीके से प्रस्तुति तुम्हारे ब्लॉग का कमाल है मनीष। वैसे भी मैं तुम्हारे ब्लॉग का दीवाना हूँ।नासिर काज़मी की ग़ज़ल को नूरजहां की आवाज़ में सुनाए,ऐसा लग रहा है जैसे दिलों में दबे दर्द को उसी तरह कोई कुरेद कर ऊपर ला दिया जैसे राख में दबी चिंगारी।सिलसिला जारी रहे।बेहतर प्रस्तुति के लिए बहुत बहुत धन्यवाद। एक शाम मेरे नाम की अगली कड़ी के ििइंतेज़ार में.....।
नूरजहां की आवाज़ में सुनाए,ऐसा लग रहा है जैसे दिलों में दबे दर्द को उसी तरह कोई कुरेद कर ऊपर ला दिया जैसे राख में दबी चिंगारी।
आपने ने इन ग़ज़लों के पीछे के दर्द को महसूस किया, अच्छा लगा। प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद ।
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