सावन की रिमझिम मेरे शहर को आए दिन भिंगो रही है। पिछले महीने शादी में पटना जाना हुआ तो गर्मी और उमस में एक पल चैन की नींद ले पाना दूभर हो गया। वहीं यहाँ राँची में जब से सावन की झड़ी शुरु हुई तो फिर रुक रुक कर फुहारें तन को शीतल कर ही रही हैं। पिछले हफ्ते से तो आलम ये है कि अगर खिड़की खोल दें तो पंखे बंद कर मोटी चादर ओढ़ने की नौबत आ जा रही है। अब ये सब कह के आपको जलाने का मन नहीं था मेरा। मैं तो आपके मूड को थोड़ा मानसूनी बनाना चाहता था ताकि जब मैं आपसे बरसाती गीतों की चर्चा करूँ तो आप भी कानों में उनकी फुहार सुन मेरे साथ भींगते चलें।
हिंदी फिल्मों में अगर ऐसे गीतों को याद करूँ तो सबसे पहले लता दी के गाए गीत ही ज़हन में मँडराने लगते हैं। अब भला ओ सजना बरखा बहार आई और रात भी कुछ भींगी भींगी चाँद भी है कुछ मद्धम मद्धम और रिमझिम गिरे सावन जैसे बेमिसाल गीतों को कैसे भुलाया जा सकता है। किशोर दा के गाए बरसाती गीतों का जिक्र तो यहाँ किया ही था। तलत महमूद का लता जी के साथ गाया अहा रिमझिम के ये प्यारे प्यारे गीत लिए मुझे बेहद प्रिय है। मुकेश ने भी बरखा रानी ज़रा जम के बरसो..मेरा दिलवर जा ना पाए ज़रा झूम कर बरसो से बहुतों का दिल जीता था वहीं रिमझिम के तराने ले के आई बरसात में रफ़ी की आवाज़ थी।
बरसात की यादों से ग़ज़लें भी अछूती नहीं रही हैं। तलत अज़ीज़ की गाई ग़ज़ल बरसात की भींगी रातों में फिर कोई सुहानी याद आई हो या फिर जगजीत सिंह की वो कागज की कश्ती वो बारिश का पानी हमेशा से संगीत प्रेमियों के दिलों पर राज करती रही हैं।
वैसे बिना बादल कैसी बारिश? बादल ही तो ये अहसास कराते हैं कि आने वाली बारिश का क्या रूप होगा? इसलिए फिल्मी गीतों में बरखा की तरह काली घटाओं और बादलों का जिक्र आम है और उन्हें पुकारने का सबसे कोमल शब्द रहा है बदरा। बदरा में जितना अपनापन है वो बादल या मेघ में कहाँ? बदरा की बात से मुझे दो और गीत तुरंत याद पड़ते हैं। पहला तो लता जी का गाया नैनों में बदरा छाए, बिजली सी चमके हाए..ऐसे में सजन मोहे गरवा लगा ले और दूसरा आशा जी का गाया फिर से अइयो बदरा बिदेसी तेरे पंखों पे मोती जड़ूँगी भर के जइयो हमारी कलैया मैं तलैया किनारे मिलूँगी। क्या कमाल के गीत थे ये दोनों भी। जितना भी सुनों मन नहीं भरता।
वैसे बिना बादल कैसी बारिश? बादल ही तो ये अहसास कराते हैं कि आने वाली बारिश का क्या रूप होगा? इसलिए फिल्मी गीतों में बरखा की तरह काली घटाओं और बादलों का जिक्र आम है और उन्हें पुकारने का सबसे कोमल शब्द रहा है बदरा। बदरा में जितना अपनापन है वो बादल या मेघ में कहाँ? बदरा की बात से मुझे दो और गीत तुरंत याद पड़ते हैं। पहला तो लता जी का गाया नैनों में बदरा छाए, बिजली सी चमके हाए..ऐसे में सजन मोहे गरवा लगा ले और दूसरा आशा जी का गाया फिर से अइयो बदरा बिदेसी तेरे पंखों पे मोती जड़ूँगी भर के जइयो हमारी कलैया मैं तलैया किनारे मिलूँगी। क्या कमाल के गीत थे ये दोनों भी। जितना भी सुनों मन नहीं भरता।
पर ये तो गुज़रे दिनों की बातें थीं। इस मौसम का मिज़ाज ही कुछ ऐसा है कि आज भी ये लोगों को नए नए गीत रचने को बाध्य कर रहा है और आज ऐसे ही एक गीत को सुनवाने का इरादा है जो कि एक बार फिर "बदरा" के इर्द गिर्द रचा गया है। इस गीत को गाया है सोना महापात्रा ने और धुन बनाई है राम संपत ने। जी हाँ ये गीत लाल परी मस्तानी श्रृंखला का हिस्सा है जिसमें हर महीने सोना अपनी एक नई पेशकश श्रोताओं के सामने ला रही हैं।
पता नहीं बरखा की बूँदों में ऐसा क्या है कि उनका स्पर्श हमें कभी खुशी के अतिरेक में ले जाता है तो कभी टिप टिप गिरते पानी की ध्वनि मन में उदासी की लहरें पैदा करने लगती हैं और मन उसमें डूबने सा लगता है। मुन्ना धीमन ने बादलों का बिंब लेते हुए ऐसा ही कुछ भाव रचना चाहा है इस गीत में।
अगर इस गीत की भावनाओं को समझना चाहते हैं तो किसी मानसूनी दिन में सफ़र
पर निकलिए। जब इन बादलों की नर्म मुलायम बाहें आपका रास्ता काटेंगी आप
खुशी से अंदर तक नम हो जाएँगे। वहीं कभी आपको ये बादल ऐसा भी आभास देगा कि
वो अपनी कालिमा के भीतर ढेर सारे दुख समेटे है ठीक वैसे ही जैसे आप अपनी
पीड़ा आँखों की कोरों में छुपाए घूमते हैं। इसलिए मुन्ना लिखते हैं
बदरा के सीने में, सीने में जल धड़के
बैठा है नयनों में नयनों में चढ़ चढ़ के
बरसेगा बरसेगा आज नहीं तो कल
सोना की गहरी आवाज़ का मैं हमेशा से शैदाई रहा हूँ। राम संपत की मधुर धुन के बीच वो एक मरहम का काम करती है। संजय दास का बजाया गिटार मूड को अंत तक बनाए रखता है। हालांकि मुझे लगता है कि मुखड़े में एक ही भाव के दोहराव से मुन्ना बच सकते थे। फिर भी कुल मिलाकर ये गीत कानों में एक मीठी छाप छोड़ जाता है। सोना इस गीत के बारे में लिखती हैं कि इसे मुंबई के एक मानसूनी दिन में रचा गया था और आज भी मेरी खिड़की के बाहर बादल ठंडी हवाओं के साथ अठखेलियाँ कर रहे हैं। तो आइए कुछ पल ही सही उड़ें इस घने बदरा के साथ.
बदरा.... बदरा.... बदरा....
छाये रे घने बदरा, छाये रे घने बादल
छाये क्यूँ घने बदरा, छाये क्यूँ घने बादल
कहीं पे बरसने को घूमे ये हुए पागल
अपनी हँसी में भी शामिल किया मुझको
अपनी खुशी में भी हिस्सा दिया मुझको
जहाँ तू अकेला है वहाँ भी मुझे ले चल
छाए रे घने बदरा, छाए रे घने बादल....
बदरा के सीने में, सीने में जल धड़के
बैठा है नयनों में नयनों में चढ़ चढ़ के
बरसेगा बरसेगा आज नहीं तो कल
बदरा.... बदरा.... बदरा....
4 टिप्पणियाँ:
Manbhawan
शुक्रिया !
This song is now in my playlist...beautiful.
Nice to know that M Vyas
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