शनिवार, दिसंबर 01, 2018

किसी गाँव में इक हसीना थी कोई..वो सावन का भीगा महीना थी कोई Jagjit's journey as music director !

प्रेम गीत और अर्थ के बाद अस्सी और नब्बे के दशक में जगजीत सिंह को करीब दर्जन भर फिल्मों के संगीत निर्देशन का मौका मिला। इस सिलसिले में उनकी गीतकार गुलज़ार के साथ संगीत निर्देशित  फिल्म सितम का जिक्र तो मैंने इस श्रृंखला की पिछली कड़ी में किया ही था। इसके आलावा उन्होंने बिल्लू बादशाह, कानून की आवाज़, जिस्म का रिश्ता, आज, आशियाना, यादों का बाजार और खुदाई में संगीत दिया। मुझे भरोसा है कि एक दो को छोड़ शायद ही आप सबने इनमें किसी फिल्म का नाम सुना हो।

जगजीत सिंह कभी भी मुख्यधारा के संगीतकार नहीं रहे। अस्सी के दशक में ग़ज़ल गायिकी में उनका सितारा जिस बुलंदी पर था उसमें फिल्म संगीत पर ज्यादा ध्यान देना मुमकिन भी नहीं था। अगर इनमें महेश भट्ट द्वारा निर्देशित फिल्में आज और आशियाना को अपवाद स्वरूप छोड़ दें तो उन्होंने जिस तरह की फिल्में कीं उन्हें देख के तो यही लगता है कि ये काम तब पैसों के लिए कम बल्कि अपने मित्रों का मन रखने के लिए उन्होंने ज़्यादा किया।


इन गुमनाम सी फिल्मों में भी कुछ गीत अपना अगर छोटा सा भी मुकाम बना पाए तो उसमें ज्यादातर में उनकी आवाज़ का हाथ रहा। आज ऐसे ही चार अलग अलग गीतों का का जिक्र आपसे करूँगा जिसमें दो को ख़ुद जगजीत ने अपनी आवाज़ से सँवारा था। ये तो नहीं कहूँगा कि ये गीत हर दृष्टि से अलहदा थे पर हाँ इतना तो हक़ बनता ही था इनका कि ये संगीत के सुधी श्रोताओं तक पहुँचते।

फिल्म "आज" में उस दौर के युवा अभिनेता कुमार गौरव और राजकिरण की मुख्य भूमिकाएँ थीं। आज के बड़े सितारे अक्षय कुमार ने भी इसी फिल्म में एक छोटी सी भूमिका से अपनी फिल्मी पारी की शुरुआत की थी। जगजीत ने इस फिल्म अपनी पुरानी रचना वो क़ाग़ज की कश्ती के आलावा तीन गीत रचे जिनमें घनशाम वासवानी, विनोद सहगल और जुनैद अख्तर के सम्मिलित स्वर में गाई मदन पाल की ग़ज़ल ज़िंंदगी के बदलते रंगों की तस्वीर को कुछ यूँ पेश करती है।

ज़िंंदगी रोज़ नए रंग में ढल जाती है, 
कभी दुश्मन तो कभी दोस्त नज़र आती है

कभी छा जाए बरस जाए घटा बेमौसम 
कभी एक बूँद को भी रुह तरस जाती है.... 


जगजीत मुखड़े के पहले अपने संगीत में भांति भांति के वाद्यों का इस्तेमाल करते हैं। बाकी का काम उनके शागिर्द रहे घनशाम और अशोक बखूबी कर जाते हैं।

इसी फिल्म में जगजीत का गाया गीत फिर आज मुझे तुमको इतना ही बताना है..हँसना ही जीवन है हँसते ही जाना है भी सुनना मन में आशा की ज्योति जला लेने जैसा लगता है।


आशियाना में जगजीत का रचा और गाया नग्मा आज भी हम सब की जुबाँ पर आज भी गाहे बगाहे आता ही रहता है। मदन पाल के लिखे इस गीत का मुखड़ा था हमसफ़र बन के हम, साथ हैं आज भी.... फिर भी है ये सफ़र अजनबी अजनबी। नजदीक रह कर भी दो इंसान मानसिक रूप से दूर हो जाएँ तो साथ साथ रहना भी कितना पीड़ादायक हो जाता है ये गीत उस दर्द की गवाही देता है। 


मजे की बात ये है कि इस गीत में मार्क जुबेर के साथ जगजीत सिंह फिल्मी पर्दे पर भी नज़र आए।

जगजीत सिंह से जुड़ी इस श्रृंखला का अंत मैं उस नज़्म से करना चाहूँगा जिसे गाया था दिलराज कौर ने। राजेश खन्ना और दीपिका पर फिल्मायी इस नज़्म की लय और दिलराज जी की सुरीली आवाज़ इसे बार बार सुनने को मजबूर करती है। सुदर्शन फाकिर के शब्द किस तरह मोहब्बत से महरूम एक लड़की का दर्द बयाँ करते हैं वो उनकी लिखी इन पंक्तियों में देखिए...

किसी गाँव में इक हसीना थी कोई
वो सावन का भीगा महीना थी कोई 
जवानी भी उस पर बड़ी मेहरबां थी
मोहब्बत ज़मीं है तो वो आसमां थी 
वो अब तक है जिन्दा वो अब तक जवां है
किताबे मोहब्बत की वो दास्तां  है
उसे देखकर मोम होते थे पत्थर 
मगर हमसे पूछो न उसका मुकद्दर 
न घर की बहू वो बनाई गई थी 
अलग उसकी महफ़िल सजाई गई थी 
वो गाँव के लड़कों को चाहत सिखाती 
सबक वो मोहब्बत का उनको पढ़ाती

मगर वक़्त कोई नया रंग लाया 
न पूछो कहानी में क्या मोड़ आया 
हुआ प्यार उसको किसी नौजवां से 
नतीजा न पूछो हमारी जुबां से 
मोहब्बत की राहों पे जिस दिन चली वो
ज़माने की नज़रों में मुजरिम बनी वो 
नसीबों  में उसके मोहब्बत नहीं थी 
मोहब्बत की उसको इजाज़त नहीं थी 

ज़माने ने आखिर उसे जब सजा दी 
हसीना ने अपनी ये जां तक लुटा  दी 
वही आसमां है वही ये जमीं है 
जवां  वो हसीना कही भी नहीं है 
मगर रुहे उल्फत की मंजिल जुदा है 
मोहब्बत की दुनिया का अपना खुदा है 


वो अब तक है ..महीना थी कोई


दिलराज कौर की आवाज़ से मेरी मुलाकात उनकी गायी ग़ज़ल इतनी मुद्दत बाद मिले हो.. से हुई थी। इसके आलावा उनकी आवाज़ में इक्का दुक्का गीत सुनता रहा हूँ। इतनी प्यारी आवाज़ से हमारा राब्ता नब्बे के दशक में छूट सा गया। दिलराज़ इस नज़्म में भी नाममात्र के वाद्य यंत्रों के बावज़ूद अपनी आवाज़ का दिल पर गहरा असर छोड़ती हैं।

नब्बे के दशक में पुत्र की असमय मौत ने जगजीत को हिला कर रख दिया। वे ग़ज़लों और फिल्मी दुनिया से दूर होते चले गए। ग़ज़लों से तो उन्होंने दुबारा नाता जोड़ा पर फिल्मों में उन्होंने बतौर संगीतकार उसके बाद नाममात्र का काम किया।

चार भागों तक चली इस श्रृंखला का आज यहीं समापन होता है। कैसी लगी आपको जगजीत जी से जुड़ी ये श्रृंखला। अपनी राय देना ना भूलिएगा।

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4 टिप्पणियाँ:

Manish Kaushal on दिसंबर 02, 2018 ने कहा…

दिलराज कौर की गायकी आशा भोंसले की याद दिलाती है। बाक़ी गीत भी अनसुने हैं, पर अच्छे लगे!

Manish Kumar on दिसंबर 02, 2018 ने कहा…

जगजीत सिंह की संगीत निर्देशित फिल्मों की खोजबीन करते हुए मुझे भी ये गीत मिले। इनमें हमसफ़र बन के हम साथ हैं आज भी.. को छोड़ मेरा पहले कोउ भी गीत सुना नहीं था।

दिलराज जी की आवाज़ फिल्मी गीतों और ग़ज़ल दोनों के लिए उपयुक्त थी। कभी उनकी आवाज़ में इतनी मुद्दत बाद मिले हो किन सोचों में गुम रहते हो..

Unknown on दिसंबर 04, 2018 ने कहा…

ग़ज़लों की बात करे तो आशा जी को छोड़कर कभी किसी female singer ने इतना प्रभावित नहीं किया... दिलराज कौर जी की ग़ज़ल मैंने पहली बार सुनी... और ये सचमुच बहुत ही अच्छी लगी..
जगजीत सिंह जी को आज से पहले मैंने एक ग़ज़ल गायक के रूप में ही देखा... उनके संगीत निर्देशन के बारे में ज्यादा कुछ नहीं जानती थी.. आपकी इस श्रंखला में उनके बारे में बहुत कुछ जाना, बहुत कुछ नया सुनने को भी मिला..... इसके लिए आपका शुक्रिया

Manish Kumar on दिसंबर 09, 2018 ने कहा…

स्वाति इन कड़ियों के लिए खोजबीन करने के दौरान मुझे ख़ुद पहली बार उनके रचे कुछ नायाब गीतों से जुड़ने का मौका मिला। इस श्रृंखला को पसंद करने और इसके साथ लगातर बने रहने के लिए शुक्रिया!

 

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