होली की पर्व तो बीत गया है। आशा है आपने रंगों का ये त्योहार सोल्लास मनाया होगा। अब देखिए ना होली बीतने के बाद भी मैं आपसे रंग की ही बात करने वाला हूँ। नहीं नहीं ये वो वाला रंग नहीं बल्कि तीस के दशक के लोकप्रिय कवि बलबीर सिंह 'रंग' की लेखनी का रंग है।
यूँ तो बलबीर जी, गोपाल सिंह नेपाली और हरिवंश राय बच्चन जैसे कवियों के समकालीन थे पर उनके या उनकी कविताओं के बारे में वैसी चर्चा मैंने कम से कम स्कूल और कॉलेज के दिनों में होती नहीं सुनी। हिंदी की पाट्य पुस्तकों में भी उनका जिक्र नहीं आया था। नेट के इस युग में उनकी कुछ कविताओं को अनायास पढ़ने का मौका मिला तो ऐसा लगा कि बच्चन जी की ही कोई कविता पढ़ रहा हूँ क्यूँकि उनकी कविता में भी उसी किस्म की गेयता महसूस हुई। बाद में मुझे ज्ञात हुआ कि बलबीर सिंह रंग अपने ज़माने के गीत लिखने वाले कवियों में अग्रणी स्थान रखते थे।
बलबीर सिंह रंग पेशे से एक किसान थे पर खेतिहर परिवार के इस सपूत को कविताई करने का चस्का बचपन से लग गया था। 'रंग' जी का जन्म उत्तर प्रदेश के एटा जिले के गाँव नगला कटीला में 14 नवंबर 1911 को हुआ था। उन्होंने ने गीतों के आलावा ग़ज़लों को भी लिखा। अपने काव्य संकलन सिंहासन में अपने किसानी परिवेश के बारे में उन्होंने लिखा है
"मैं परंपरागत किसान हूँ, धरती के प्रति असीम मोह और पूज्य-भावना किसान का जन्मजात गुण है, यही उसकी शक्ति है और यही उसकी निर्बलता। मैं स्वीकार करता हूँ कि मुझमें भी यही संस्कार सबसे प्रबलतम रूप में रहा है, आज भी है । ग्रामीण जीवन की वेदनाएँ, विषमताएँ और हास-विलास दोनों ही मेरी कविता की प्रेरणा और पूँजी है।'
रंग जी के बारे में मशहूर है कि किस तरह मथुरा में आयोजित एक कवि सम्मेलन में मंच संचालक ने अपनी कविता पाठ को आतुर एक नवोदित कवि को नहीं बुलाया तो उस युवा की बेचैनी देखकर रंग जी ने संचालक को उसे मंच पर न्योता देने को कहा। उस नवयुवक की कविताओं को श्रोताओं से भरपूर सराहना मिली और आगे जाकर वो कवि गीतकार शैलेंद्र के नाम से मशहूर हुआ जिसके बारे में हम सब जानते हैं। शैलेंद्र जी भी इस बात को नहीं भूले और वे जब भी मुंबई आए उनका उचित सत्कार किया।
रंग जी का एक लोकप्रिय गीत है जाने क्यों तुमसे मिलने की आशा कम, विश्वास बहुत है। जब भी मैं इस कविता को सुनता था मुझे आशा कम, विश्वास बहुत होने की बात थोड़ी विचित्र लगती थी। ये जो जुमला है उसे क्रिकेट कमेंट्री करने वाले बारहा इस्तेमाल करते हैं पर उलट कर। गेंदबाज ने अपील जरूर की पर उसमें आशा और उत्साह ज्यादा था पर विश्वास कम। उत्साह तो ख़ैर अपील के साथ होता ही है पर आशा इसलिए कि कहीं अंपायर उँगली उठा ही दे। अब रंग जी की बात करूँ तो अगर किसी से मिलने का विश्वास हो तो आशा तो जगेगी ही कम क्यूँ होगी?
इन पंक्तियों की दुविधा तो मैं आज तक सुलझा नहीं पाया हूँ। अगर आपकी कोई अलग सोच हो तो जरूर बाँटिएगा। इस संशय के बावज़ूद भी ये कविता जब भी मैं पढ़ता हूँ तो इसकी लय और इसके हर छंद में अपने प्रिय से कवि के मिलने की प्रबल होती इच्छा मन को छू जाती है। अपने एकतरफा प्रेम का प्रदर्शन कितने प्यारे और सहज बिंबों से किया है रंग जी ने..वहीं कविता के अंत में वे अतीत को बिसार कर नए भविष्य की रचना करने का भाव जगा ही जाते हैं।
सहसा भूली याद तुम्हारी उर में आग लगा जाती है
विरह-ताप भी मधुर मिलन के सोये मेघ जगा जाती है,
मुझको आग और पानी में रहने का अभ्यास बहुत है
जाने क्यों तुमसे मिलने की आशा कम, विश्वास बहुत है
धन्य-धन्य मेरी लघुता को, जिसने तुम्हें महान बनाया,
धन्य तुम्हारी स्नेह-कृपणता, जिसने मुझे उदार बनाया,
मेरी अन्धभक्ति को केवल इतना मन्द प्रकाश बहुत है
जाने क्यों तुमसे मिलने की आशा कम, विश्वास बहुत है
अगणित शलभों के दल एक ज्योति पर जल-जल मरते
एक बूँद की अभिलाषा में कोटि-कोटि चातक तप करते,
शशि के पास सुधा थोड़ी है पर चकोर की प्यास बहुत है
जाने क्यों तुमसे मिलने की आशा कम, विश्वास बहुत है
(चातक, Pied Cuckoo के बारे में ऐसा माना जाता है कि यह वर्षा की पहली बूंदों को ही पीता है वहीं चकोर French Partridge के बारे में ये काल्पनिक मान्यता रही है कि ये पक्षी रात भर चाँद की ओर देखा करता है और चंद्रकिरणों का रस पीकर ही जीवित रहता है। )
मैंने आँखें खोल देख ली हैं नादानी उन्मादों की
मैंने सुनी और समझी हैं कठिन कहानी अवसादों की,
फिर भी जीवन के पृष्ठों में पढ़ने को इतिहास बहुत है
जाने क्यों तुमसे मिलने की आशा कम, विश्वास बहुत है
ओ ! जीवन के थके पखेरू, बढ़े चलो हिम्मत मत हारो,
पंखों में भविष्य बंदी है मत अतीत की ओर निहारो,
क्या चिंता धरती यदि छूटी उड़ने को आकाश बहुत है
जाने क्यों तुमसे मिलने की आशा कम, विश्वास बहुत है
(शब्दार्थ : शशि - चंद्रमा, सुधा - अमृत, उर - हृदय, मेघ - बादल, स्नेह कृपणता - प्रेम का उचित प्रतिकार ना देना, उसमें भी कंजूसी करना, शलभ - कीट पतंगा, पखेरू - पक्षी, अतीत - बीता हुआ)
15 टिप्पणियाँ:
वाह!
धन्यवाद अभिषेक!
शुक्रिया इस सुंदर गीत से परिचित कराने के लिए
सुन्दर
ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 24/03/2019 की बुलेटिन, " नेगेटिव और पॉज़िटिव राजनीति - ब्लॉग बुलेटिन “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
मीना शर्मा व सुशील जोशी जी रंग जी की ये गीत कविता आपको पसंद आई जान कर अच्छा लगा।
हार्दिक आभार शिवम !
शायद कवि का आशय यह हो कि निकट भविष्य में मिलन की कोई उम्मीद तो नहीं दिखती पर अपने प्रेम पर उनका विश्वास उनसे कहता है कि कि अंततः मुलाकात ज़रुर होगी।
अमित प्रेम पर उनका विश्वास उनसे कहता है कि कि अंततः मुलाकात ज़रुर होगी।"
क्या आपको नहीं लगता कि अगर किसी के मन में ऐसा विश्वास हो तो वो आशा का अंकुरण करेगा ही।
अब देखिए कि किसी भी चीज़ के स्वाभाविक रूप से होने का विश्वास ना भी हो तो चमत्कार की आशा रहती है। आशा की किरण जलाए रखना तो मनुष्य का जन्मजात गुण है।
"आशा काम विश्वास बहुत है" मानो कवि नकारात्मकता में सकारात्मकता खोज रहा है, मुझे तो यही समझ आया 😃
बहुत ही अच्छी काव्य रचना। जैसा कि आपने इनकी शायरी का भी उल्लेख किया, तो कुछ पोस्ट कीजिएगा।
Swati दरअसल व्यक्तिगत जीवन में हम इससे उलट वाले भाव से दो चार होते हैं इसलिए आशा कम, विश्वास ज्यादा वाला भाव मेरे लिए गूढ़ ही रहा है।
अब किसी दुसाध्य रोग से पीड़ित मरीज़ की ही बात लीजिए। डाक्टर जब जवाब दे देता है तब बस ऊपरवाले पर ही एक आसरा रहता है कि शायद वो कोई चमत्कार कर दे। यानी डाक्टर को विश्वास तो नहीं है बचने का पर आशा की पतली सी किरण भगवान की कृपा रह जाती है।
इनकी शायरी भी पढ़ी पर जैसा प्रभाव इनके गीतों में लगा वैसा इनकी ग़ज़लों में मुझे महसूस नहीं हुआ।
आशा कम, विश्वास बहुत है....
सुंदर गीत से परिचय के लिए हार्दिक आभार
Vinay Kumar Sharma आपको गीत पसंद आया जान कर प्रसन्नता हुई।
Janakari behad hi aachi hai, aagye bhi aise kuch ankahe ansune lekhakon ko humse jarur milvayen.
Jai Shri Ram
आशा कम, विश्वाश बहुत है।
Half girlfriend से....
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