इब्ने इंशा का आज यानी 15 जून को जन्मदिन है। अगर वो आज हमारे साथ रहते तो उनकी उम्र 92 की होती। इब्ने इंशा मेरे पसंदीदा साहित्यकारों में से एक रहे हैं। शायर इसलिए नहीं कह रहा कि मुझे उनके लिखे व्यंग्य भी बेहद उम्दा लगते हैं। उर्दू की आखिरी किताब पढ़ते वक़्त जितना मैं हँसते हँसते लोटपोट हुआ था उसके बाद वैसी कोई मजेदार किताब पढ़ने को नहीं मिली। उनके यात्रानामों का अभी तक हिंदी में अनुवाद नहीं आया है। जिस दिन आएगा उस दिन चीन जापान से लेकर मध्य पूर्व के उनके यात्रानामों को पढ़ने की तमन्ना है।
जो लोग कविता को पढ़ पढ़ कर रस लेते हैं उनके लिए इब्ने इंशा जैसा कोई शायर नहीं है। इंशा जी की शायरी में जहाँ एक ओर शोखी है, शरारत है तो वहीं दूसरी ओर एक बेकली, तड़प और एक किस्म की फकीरी भी है। अपने दुख के साथ साथ समाज के प्रति अपने दायित्व को उनकी नज़्में बारहा उभारती हैं। ये बच्चा किसका बच्चा है और बगदाद की एक रात उनकी ऍसी ही श्रेणी की लंबी नज़्में हैं।
आजकल के शायरों में अगर चाँद किसी की नज़्मों और गीतों मे बार बार दिखता है तो वो गुलज़ार साहब हैं पर जिनलोगों ने इब्ने इंशा को पढ़ा है वो जानते हैं कि चाँद के तमन्नाइयों में इंशा सबसे ऊपर हैं। बचपन में उनकी शायरी से मेरा परिचय जगजीत सिंह की गाई ग़ज़ल कल चौदहवीं की रात थी, से ही हुआ था। इंशा ने अपनी पहली किताब का भी नाम चाँदनगर रखा। इंशा ने इस बात का जिक्र भी किया है कि उनका घर एक रेलवे स्टेशन के पास था जिसके ऊपर बने पुल पर वो घंटों चर्च के घंटा घर की आवाज़ें सुनते और चाँद को निहारा करते थे। चाहे वो एकांत में रहें या शहर की भीड़ भाड़ में, चाँद से उनकी प्रीति बनी रही। चाँदनगर की प्रस्तावना में अपनी शायरी के बारे में इंशा लिखते हैं...
मैं शुरु से स्वाभाव का रूमानी था पर मैं ऍसे संसार का वासी हूँ जहाँ सब कुछ प्रेममय नहीं है। मेरी लंबी नज़्में मेरे आस पास की घटनाओं का कटु सत्य उजागर करती हैं। हालांकि कई बार ऐसा लेखन मेरी रूमानियत के आड़े आता रहा। फिर भी मैंने कोशिश की चाहे प्रेम हो या जगत की विपदा जब भी लिखूँ मन की भावनाओं को सच्चे और सशक्त रूप में उभारूँ।
अब फर्ज करो को ही लीजिए। कैसी शरारत भरी नज़्म है कि एक ओर तो उनके दिल में दबा प्रेम इस रचना के हर टुकड़े से कुलाँचे मार कर बाहर निकलना चाहता है तो दूसरी ओर अपनी ही भावनाओं को हर दूसरी पंक्ति में वो विपरीत मोड़ पर भी ले जाते हैं ताकि सामने वाले के मन में संशय बना रहे। ये जो इंसानी फितरत है वो थोड़ी बहुत हम सबमें हैं। प्रेम से लबालब भरे पड़े हैं पर जब सीधे पूछ दिया जाए तो कह दें नहीं जी ऐसा भी कुछ नहीं हैं। आपने आखिर क्या सोच लिया और फिर बात को ही घुमा दें? अपनी बात कहते हुए जिस तरह इंशा ने हम सब की मनोभावनाओं पर चुपके से सेंध मारी है,वो उनकी इस रचना को इतनी मकबूलियत दिलाने में सफल रहा।
इब्ने इंशा को उनके जन्मदिन पर याद करने के लिए उनकी बेहद लोकप्रिय नज़्म पढ़ने की कोशिश की है। यूँ तो इब्ने इंशा की इस नज़्म को छाया गाँगुली और हाल फिलहाल में जेब बंगेश ने अपनी आवाज़ से सँवारा है पर जो आनंद इसे बोलते हुए पढ़ने में आता है वो संगीत के साथ सुनने में मुझे तो नहीं आता। आशा है आप भी पूरे भावों के साथ साथ ही में पढ़ेंगे इसको
फ़र्ज़ करो हम अहले वफ़ा हों, फ़र्ज़ करो दीवाने हों
फ़र्ज़ करो ये दोनों बातें झूठी हों अफ़साने हों
फ़र्ज़ करो ये जी की बिपता, जी से जोड़ सुनाई हो
फ़र्ज़ करो अभी और हो इतनी, आधी हमने छुपाई हो
फ़र्ज़ करो तुम्हें ख़ुश करने के ढूंढे हमने बहाने हों
फ़र्ज़ करो ये नैन तुम्हारे सचमुच के मयख़ाने हों
फ़र्ज़ करो ये रोग हो झूठा, झूठी पीत हमारी हो
फ़र्ज़ करो इस पीत के रोग में सांस भी हम पर भारी हो
फ़र्ज़ करो ये जोग बिजोग का हमने ढोंग रचाया हो
फ़र्ज़ करो बस यही हक़ीक़त बाक़ी सब कुछ माया हो
एक शाम मेरे नाम पर इब्ने इंशा
4 टिप्पणियाँ:
सुन्दर प्रस्तुति। कुछ गीत इतने सुन्दर और भावपूर्ण होते है कि उनमें संगीत की जरूरत ही नहीं होती। जैसे ये गीत और "जले तो जलाओ गोरी" मुझे आपके गाए ये दोनों ही गाने बहुत पसंद है,
Swati उनकी नज़्मों में एक ऐसा प्रवाह है जो बहुत कम शायरों में ही मिलता है। बातचीत के अंदाज़ में कहीं उनकी कई रचनाएँ मन को आनंद से भर जाती हैं। इस प्रस्तुति को सराहने के लिए आपका शुक्रिया। :)
इंशा जी की रचनाओं की जो बात उन्हें सबसे अलग बनाती है वो है आम बोलचाल में प्रचलित शब्दों का प्रयोग | उस दौर में जब शायरी में उर्दू पूरी तरह हावी थी, तब उनके द्वारा 'ठेठ बोली' के शब्दों का प्रयोग विस्मित भी करता है और आनंदित भी |
हाँ बिल्कुल सही कहा आपने धवल। अपनी बारतीय पृष्ठभूमि की वज़ह से उन्हें ना केवल हिंदी पर बृज भाषा का भी अच्छा ज्ञान था और इसका इस्तेमाल सहज रूप में वो अपनी शायरी में बारहा करते थे।
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