आधुनिक हिंदी कविता के प्रशंसकों में शायद ही कोई ऐसा हो जो गोपाल दास नीरज के गीतों, मुक्तक, दोहों और कविताओं से दो चार नहीं हुआ होगा। नीरज हिंदी फिल्मों में भी साठ और सत्तर के दशक में सक्रिय रहे और करीब पाँच दशकों बाद भी उनके गीत आज भी बड़े चाव से गाए व गुनगुनाए जाते हैं। नीरज जी के लिखे सबसे शानदार गीत सचिन देव बर्मन और शंकर जयकिशन जैसे संगीतकारों की झोली में गए। पर हिंदी फिल्म जगत में नीरज की पारी ज्यादा दिन नहीं चल सकी। सचिन दा और जयकिशन की मृत्यु और संगीत के बदलते परिवेश ने फिल्मी गीत लेखन से उनका मन विमुख कर दिया।
उनके सफल दर्जन भर गीतों की बानगी लें तो उसमें हर रस के गीत मौज़ूद थे। प्रेम, (लिखे जो खत तुझे... रँगीला रे..., जीवन की बगिया महकेगी....) शोखी, (ओ मेरी ओ मेरी शर्मीली...., रेशमी उजाला है मखमली अँधेरा....) उदासी, (दिल आज शायर है, कैसे कहें हम..., खिलते हैं गुल यहाँ खिल के बिखरने को...., मेघा छाए आधी रात....) भक्ति, (राधा ने माला जपी श्याम की....) और हास्य (धीरे से जाना खटियन में खटमल...., ऐ भाई ज़रा देख के चलो...) जैसे सारे रंग मौज़ूद तो थे उनकी लेखनी में।
कवियों ने जब जब गीतकार की कमान सँभाली है तो अपनी कविताओं को गीतों में पिरोया है। धर्मवीर भारती की लिखी कविता ये शामें सब की सब शामें क्या इनका कोई अर्थ नहीं.... याद आती है जिसका आांशिक प्रयोग सूरज का सातवाँ घोड़ा में हुआ था। नीरज ने कई बार अपनी कविताओं को गीत में ढाला। उनकी अमर रचना कारवाँ गुजर गया गुबार देखते रहे को फिल्म "नए उमर की नई फ़सल " में हूबह लिया गया। नीरज की एक और कविता थी जिसका कुछ हिस्सा इस्तेमाल हुआ शंकर जयकिशन की फिल्म लाल पत्थर के एक गीत सूनी सूनी साँस के सितार .. में । गीत के अंतरे तो फिल्म के लिहाज से सहज बना दिए गए पर आज उनके उस गीत को सुनवाने से पहले वो कविता सुन लीजिए जो प्रेरणा थी उस गीत की।
नीरज की इस कविता में एक आध्यात्मिक सोच है जिस पर उदासी का मुलम्मा चढ़ा है। वे कहते हैं कि जीवन में कभी भी आपके चारों ओर सब कुछ धनात्मक उर्जा से भरा नहीं होता। जब एक ओर कुछ रिश्ते प्रगाढ़ होते रहते हैं तो वहीं किसी दूसरे संबंध में दरारें पड़ने लगती हैं। कहीं सृजन हो रहा होता है तो साथ ही कई विनाश गाथा रची जा रही होती है। कहीं प्रेम का ज्वार फूट रहा होता है तो कहीं उसी प्रेम को घृणा की दीवार तहस नहस करने को आतुर रहती है।
वैसे भी इस संसार में कुछ भी शाश्वत नहीं है। सुख दुख के इन झोंकों के बीच हम जीवन की नैया खेते रहना ही शायद अमिट सत्य है जिसे जितनी जल्दी हम स्वीकार कर लें उतना ही बेहतर..।
सूनी-सूनी साँस के सितार पर
गीले-गीले आँसुओं के तार पर
एक गीत सुन रही है ज़िन्दगी
एक गीत गा रही है ज़िन्दगी।
चढ़ रहा है सूर्य उधर, चाँद इधर ढल रहा
झर रही है रात यहाँ, प्रात वहाँ खिल रहा
जी रही है एक साँस, एक साँस मर रही
इसलिए मिलन-विरह-विहान में
झर रही है रात यहाँ, प्रात वहाँ खिल रहा
जी रही है एक साँस, एक साँस मर रही
इसलिए मिलन-विरह-विहान में
इक दिया जला रही है ज़िन्दगी
इक दिया बुझा रही है ज़िन्दगी।
इक दिया बुझा रही है ज़िन्दगी।
रोज फ़ूल कर रहा है धूल के लिए श्रंगार
और डालती है रोज धूल फ़ूल पर अंगार
कूल के लिए लहर-लहर विकल मचल रही
किन्तु कर रहा है कूल बूंद-बूंद पर प्रहार
इसलिए घृणा-विदग्ध-प्रीति को
और डालती है रोज धूल फ़ूल पर अंगार
कूल के लिए लहर-लहर विकल मचल रही
किन्तु कर रहा है कूल बूंद-बूंद पर प्रहार
इसलिए घृणा-विदग्ध-प्रीति को
एक क्षण हँसा रही है ज़िन्दगी
एक क्षण रूला रही है ज़िन्दगी।
एक क्षण रूला रही है ज़िन्दगी।
एक दीप के लिए पतंग कोटि मिट रहे
एक मीत के लिए असंख्य मीत छुट रहे
एक बूंद के लिए गले-ढले हजार मेघ
एक अश्रु से सजीव सौ सपन लिपट रहे
इसलिए सृजन-विनाश-सन्धि पर
एक मीत के लिए असंख्य मीत छुट रहे
एक बूंद के लिए गले-ढले हजार मेघ
एक अश्रु से सजीव सौ सपन लिपट रहे
इसलिए सृजन-विनाश-सन्धि पर
एक घर बसा रही है ज़िन्दगी
एक घर मिटा रही है ज़िन्दगी।
एक घर मिटा रही है ज़िन्दगी।
सो रहा है आसमान, रात हो रही खड़ी
जल रही बहार, कली नींद में जड़ी पड़ी
धर रही है उम्र की उमंग कामना शरीर
टूट कर बिखर रही है साँस की लड़ी-लड़ी
इसलिए चिता की धूप-छाँह में
जल रही बहार, कली नींद में जड़ी पड़ी
धर रही है उम्र की उमंग कामना शरीर
टूट कर बिखर रही है साँस की लड़ी-लड़ी
इसलिए चिता की धूप-छाँह में
एक पल सुला रही है ज़िन्दगी
एक पल जगा रही है ज़िन्दगी।
एक पल जगा रही है ज़िन्दगी।
जा रही बहार, आ रही खिजां लिए हुए
जल रही सुबह बुझी हुई शमा लिए
रो रहा है अश्क, आ रही है आँख को हँसी
राह चल रही है गर्दे-कारवां लिए हुए
इसलिए मज़ार की पुकार पर
जल रही सुबह बुझी हुई शमा लिए
रो रहा है अश्क, आ रही है आँख को हँसी
राह चल रही है गर्दे-कारवां लिए हुए
इसलिए मज़ार की पुकार पर
एक बार आ रही है ज़िन्दगी
एक बार जा रही है ज़िन्दगी।
उनकी कविता में कहीं आशा का चढ़ता सूरज है कहीं निराशा की ढलती साँझ है। कहीं फूल धूल पर बिछने को तैयार बैठा है और वही धूल उस फूल की सुंदरता नष्ट करने पर तुली है। लहरें किनारों से मिलने के लिए उतावली हैं और किनारा पास आती लहरों पर प्रहार करने से भी नहीं सकुचा रहा। करोड़ों पतंगे एक दीप की चाह में अपने जीवन की कुर्बानियाँ दे रहे हैं। इष्ट मीत के प्रेम को पाने के लिए हम कितनों के प्रणय निवेदन को अनदेखा कर रहे हैं। इन सोते जागते पलों और बदलते जीवन में कहीं हँसी की खिलखिलाहट है तो कहीं रुदन का विलाप।
नीरज ने फिल्म में अपनी कविता का मूल भाव और मुखड़ा वही रखते हुए अंतरों का सरलीकरण कर दिया। शंकर जयकिशन के साझा सांगीतिक सफ़र का वो आखिरी साल था। दिसंबर 1971 में इस फिल्म के प्रदर्शित होने के तीन महीने पहले जयकिशन लिवर की बीमारी की वजह से दुनिया छोड़ चुके थे। शास्त्रीय रचनाओं में प्रवीण ये संगीत रचना भी संभवतः शंकर की ही होगी। उन्होंने इस गीत को राग जयजयवंती पर आधारित किया था।
शुरुआत और अंत में आशा जी के आलाप गीत को चार चाँद लगाते हैं। उनकी शानदार गायिकी की वज़ह से उस साल के फिल्मफेयर में ये गीत नामित हुआ था। गीत के इंटरल्यूड्स में सितार का बेहतरीन प्रयोग मन को सोहता है।
इस गीत को फिल्माया गया था राखी पर। दृश्य था कि राखी मंच पर अपना गायन प्रस्तुत कर रही हैं और उनके पीछे विभिन्न वाद्य यंत्र लिए वादक मंच पर बैठे हैं। मजे की बात ये कि गीत में पीछे दिखते वाद्यों में शायद ही किसी का प्रयोग हुआ है। बज तबला और सितार रहा है पर वो दिखता नहीं है। अपने पुराने प्रेम को भूलते हुए ज़िदगी में नायिका का नए सिरे से रमना कितना कठिन है। इसलिए नीरज गीत में कहते हैं कि एक सुर मिला रही है ज़िंदगी...एक सुर भुला रही है ज़िंदगी
इस गीत को फिल्माया गया था राखी पर। दृश्य था कि राखी मंच पर अपना गायन प्रस्तुत कर रही हैं और उनके पीछे विभिन्न वाद्य यंत्र लिए वादक मंच पर बैठे हैं। मजे की बात ये कि गीत में पीछे दिखते वाद्यों में शायद ही किसी का प्रयोग हुआ है। बज तबला और सितार रहा है पर वो दिखता नहीं है। अपने पुराने प्रेम को भूलते हुए ज़िदगी में नायिका का नए सिरे से रमना कितना कठिन है। इसलिए नीरज गीत में कहते हैं कि एक सुर मिला रही है ज़िंदगी...एक सुर भुला रही है ज़िंदगी
सूनी सूनी साँस के सितार पर
भीगे भीगे आँसुओं के तार पर
एक गीत सुन रही है ज़िंदगी
एक गीत गा रही है ज़िंदगी
सूनी सूनी साँस के सितार पर ...
प्यार जिसे कहते हैं
खेल है खिलौना है
आज इसे पाना है कल इसे खोना है
सूनी सूनी ...... तार पर
एक सुर मिला रही है ज़िंदगी
एक सुर भुला रही है ज़िंदगी
सूनी सूनी साँस के सितार पर ...
कोई कली गाती है
कोई कली रोती है
कोई आँसू पानी है
कोई आँसू मोती है
सूनी सूनी ....... तार पर
किसी को हँसा रही है ज़िंदगी
किसी को रुला रही है ज़िंदगी
सूनी सूनी साँस के सितार पर .
राखी के आलावा इस फिल्म में थे राज कुमार और विनोद मेहरा और साथ ही थीं हेमा मालिनी एक विलेन के किरदार में
4 टिप्पणियाँ:
सर, आशा जी की आवाज़ तो बेमिसाल है ही, आपका वाचन भीे बहुत खूबसूरत लगा।
Manish ये गीत और नीरज जी की कविता का मेरा पाठ तुम्हें पसंद आया जानकर खुशी हुई। :)
मेरा पसंदीदा गीत
अरे वाह!
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