सत्तर के दशक में जगजीत जी ने कई ग़ज़लें गायीं। कभी निजी महफिलों में तो कभी स्टेज शो में। वो वक़्त ग्रामोफोन का हुआ करता था। चुनिंदा ग़ज़लें ही रिकार्ड होती थीं। जब कैसेट का युग आया तो भी उस शुरुआती दौर में HMV का एकाधिकार रहा। नतीजा ये हुआ कि जगजीत जी की बहुत सारी ग़ज़लें उनके उसे पहली बार गाने के कई दशकों बाद किसी एलबम का हिस्सा बनीं। आज इफ़्तिख़ार इमाम सिद्दिकी की लिखी जो ग़ज़ल आपको सुनाने जा रहा हूँ वो इसी कोटि की है।
इस ग़ज़ल को लिखने वाले सीमाब अकबराबादी के पोते इफ़्तिख़ार इमाम सिद्दिकी से आपकी मुलाकात मैंने फिल्म अर्थ के लिए लिखी उनकी चर्चित ग़ज़ल तू नहीं तो ज़िदगी में और क्या रह जाएगा के जिक्र के दौरान की थी। दादा की मौत के बाद उनका परिवार आगरा से मुंबई आया और विकट परिस्थितियों में शायर पत्रिका का सालों साल बिना रुके संपादन करता रहा। वे अपने किसी भी साक्षात्कार में फक्र से ये बताना नहीं भूलते कि एक समय वो भी था जब निदा फ़ाज़ली जैसा शायर उन्हें ख़त लिखता था कि उनकी शायरी पत्रिका में छाप दी जाए।
इमाम साहब की ज़िंदगी ने तब दुखद मोड़ लिया जब वर्ष 2002 में चलती ट्रेन पर चढ़ने की कोशिश में वो गिर पड़े और उस दुर्घटना के बाद उमका कमर से नीचे का हिस्सा बेकार हो गया। आज उनकी ज़िंदगी व्हीलचेयर के सहारे ही घिसटती है, फिर भी वो इसी हालत में 'शायर' के संपादन में जुटे रहते हैं। कुछ साल पहले भास्कर को दिए अपने साक्षात्कार में उन्होंने कहा था कि
इमाम साहब की ज़िंदगी ने तब दुखद मोड़ लिया जब वर्ष 2002 में चलती ट्रेन पर चढ़ने की कोशिश में वो गिर पड़े और उस दुर्घटना के बाद उमका कमर से नीचे का हिस्सा बेकार हो गया। आज उनकी ज़िंदगी व्हीलचेयर के सहारे ही घिसटती है, फिर भी वो इसी हालत में 'शायर' के संपादन में जुटे रहते हैं। कुछ साल पहले भास्कर को दिए अपने साक्षात्कार में उन्होंने कहा था कि
"हमारी विरासत शायरी है। हम उसे आगे ले जाने के लिए हर सुबह आंखें खोलते हैं और रात में पलकें झपकाते हैं तो इस यकीन के साथ कि अगली सुबह फिर अदब को मज़बूती देने के लिए सांस लेते हुए उठेंगे। यही हमारी ज़िंदगी है। कई बार कुछ लोग कहते हैं कि जिस साहित्यिक समाज के लिए हमने सब कुछ दांव पर लगा दिया, उसने बेकद्री की है, लेकिन हमें ऐसा कतई नहीं लगता। तमाम संस्थाओं ने मान-सम्मान दिया है, हमारी ग़ज़लें पढ़ी-सुनी हैं, ‘शायर’ को अब तक हाथोहाथ लिया है तो चंद दुखों के आगे लोगों की मोहब्बत को हम कैसे नाकाफी कह दें।
जगजीत सिंह, चित्रा सिंह, पंकज उधास और सुधा मल्होत्रा जैसे गायक और गायिकाओं ने मेरे कलाम गाए, निदा फाज़ली और बशीर बद्र को फ़िल्म इंडस्ट्री से इंट्रोड्यूस कराने का मुझे मौका मिला, कृश्नचंदर, महेंदरनाथ, राजिंदर सिंह बेदी, ख्वाजा अहमद अब्बास से सोहबत रही- और बताइए, दौलत क्या होती है। "
इमाम साहब का ये जज़्बा यूँ ही बना रहे। उनकी मशहूर ग़ज़लों की तो रिकार्डिंग उपलब्ध नहीं पर उनको अगर आप तरन्नुम में गाते सुन लें तो यूँ महसूस होगा कि सफेद बालों के इस वृद्ध इंसान के भीतर रूमानियत से भरा एक युवा दिल आज भी धड़क रहा है।
वैसे तो मुझे उनकी ये पूरी ग़ज़ल ही प्यारी लगती है पर इसके दो शेर खासतौर पर दिल के करीब लगते हैं। पहला तो वो जिसमें इमाम साहब कहते हैं जिसे मिलना ही नहीं उससे मोहब्बत कैसी...सोचता जाऊँ मगर दिल में उतरता देखूँ और दूसरा वो चंद लम्हे जो तेरे कुर्ब के मिल जाते हैं...इन्ही लम्हों को मैं सदियों में बदलता देखूँ।
जिन्हें हम पसंद करते हैं उनके साथ ज़िदगी बीते ना बीते उनका स्थान दिल की गहराइयों में वैसे ही बना रहता है और जब कभी ऐसी शख्सियत से मुलाकात होती है तो उन बेशकीमती पलों को हम हृदय में तह लगाकर रख देते हैं और जब जब मन होता है उन यादों को ओढ़ते बिछाते रहते हैं।
जिन्हें हम पसंद करते हैं उनके साथ ज़िदगी बीते ना बीते उनका स्थान दिल की गहराइयों में वैसे ही बना रहता है और जब कभी ऐसी शख्सियत से मुलाकात होती है तो उन बेशकीमती पलों को हम हृदय में तह लगाकर रख देते हैं और जब जब मन होता है उन यादों को ओढ़ते बिछाते रहते हैं।
तू जो आ जाए तो इस घर को सँवरता देखूँ
एक मुद्दत से जो वीरां है वो बसता देखूँ
ख़्वाब बनकर तू बरसता रहे शबनम शबनम
और बस मैं इसी मौसम को निख़रता देखूँ
जिसे मिलना ही नहीं उससे मोहब्बत कैसी
सोचता जाऊँ मगर दिल में उतरता देखूँ
चंद लम्हे जो तेरे कुर्ब के मिल जाते हैं
इन्ही लम्हों को मैं सदियों में बदलता देखूँ
(कुर्ब : निकटता )
जगजीत जी ने इसी बहर में पाकिस्तान के मशहूर शायर अहमद नदीम कासिमी का भी एक शेर गाया है जो कुछ यूँ है
मैं फ़क़त एक ही तस्वीर कहाँ तक देखूँ 😄 -
स्टेज शो में तब जगजीत बहुत कुछ मेहदी हसन वाली शैली अपनाते थे। यानी ग़ज़ल के अशआरों के बीच श्रोताओं को उनकी शास्त्रीय गायिको सुनने का लुत्फ मिल जाया करता था। जगजीत ने इस ग़ज़ल में राग दुर्गा पर आधारित बंदिश का इस्तेमाल किया है।
जगजीत जी को ग़ज़लों के साथ कई नए तरह के वाद्य यंत्र जैसे वॉयलिन, पियानो, सरोद आदि इस्तेमाल करने का श्रेय दिया जाता है पर नब्बे के दशक के बाद उनके संगीत संयोजन में एक तरह का दोहराव आने लगा। अगर आप उस समय के एलबमों को सुनते हुए बड़े हुए हैं तो उनकी ये ग़ज़ल और उसका संगीत संयोजन आपको ग़ज़ल गायिकी की पारंपरिक शैली की ओर ले जाता मिलेगा। मुझे तो लुत्फ़ आ गया इसे सुन कर। आप भी सुनें।
6 टिप्पणियाँ:
वाह मज़ा आ गया! कुछ और ऐसे मोती ढूंढ निकालिये.
Bahut khoobsurat ghazal hai. Shukriya aapka
ग़ज़ल पसंद करने के लिए शुक्रिया सुमित! संगीत के मोती चुनने की कवायद तो निरंतर ज़ारी है।
मुझे भी जगजीत की पुराने अंदाज़ में गायिकी बेहद पसंद आई गुलशन ।
Bahut shaandaar Gazal hai ye,mere dil ke behad kareeb.Manish ji shikriya aap ka.
अच्छा लगा जानकर शरद कि ये ग़ज़ल आपको भी पसंद है।
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