कई शायर ऐसे रहे हैं जिनकी किसी एक कृति ने उनका नाम हमेशा के लिए हमारे दिलो दिमाग पर नक़्श कर दिया। कफ़ील आज़र का नाम कौन जानता अगर उनकी नज़्म बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी .. को जगजीत जी ने अपनी आवाज़ नहीं दी होती। अथर नफ़ीस साहब वो इश्क़ जो हमसे रूठ गया से हमेशा अपनी याद दिला जाते हैं। प्रेम वारबर्टनी का नाम सिर्फ तभी आता है जब राजेंद्र व नीना मेहता की गाई नज़्म तुम मुझसे मिलने शमा जलाकर ताजमहल में आ जाना का जिक्र होता है। वहीं राजेंद्र नाथ रहबर का नाम तभी ज़हन में उभरता है जब तेरे खुशबू से भरे ख़त मैं जलाता कैसे..... सुनते वक़्त जगजीत की आवाज़ कानों में गूँजती है।
ऐसा नहीं कि इन शायरों ने और कुछ नहीं लिखा। कम या ज्यादा लिखा जरूर पर वे पहचाने अपनी इसी रचना से गए। ऐसे ही एक शायर थे हफ़ीज़ होशियारपुरी साहब जिनका ताल्लुक ज़ाहिरन तौर पर पंजाब के होशियारपुर से था। वही होशियारपुर जहाँ से जैल सिंह और काशी राम जैसी हस्तियाँ राजनीति में अपनी चमक बिखेरती रहीं। स्नातक की पढ़ाई होशियारपुर से पूरी कर हफ़ीज़ लाहौर चले गए। वहाँ तर्कशास्त्र में आगे की पढ़ाई की। हफ़ीज़ साहब के नाना शेख गुलाम मोहम्मद शायरी में खासी रुचि रखते थे। उनकी याददाश्त इतनी अच्छी थी कि हजारों शेर हमेशा उनकी जुबां पर रहते थे। उन्हें ही सुनते सुनते हफ़ीज़ भी दस ग्यारह साल की उम्र से शेर कहने लगे। बाद में लाहौर में पढ़ाई करते समय फ़ैज़ और राशिद जैसे समकालीन बुद्धिजीवियों का असर भी उनकी लेखनी पर पड़ा।
हफ़ीज़ होशियारपुरी |
आज़ादी के आठ बरस पहले उन्होंने कृष्ण चंदर के साथ रेडियो लाहौर में भी काम किया। मंटो भी उनको अपना करीबी मानते थे। मशहूर शायर नासिर काज़मी के तो वो गुरु भी कहे जाते हैं पर इतना सब होते हुए भी उनकी लिखी चंद ग़ज़लें ही मकबूल हुईं और अगर एक ग़ज़ल का नाम लिया जाए जिसकी वज़ह से आम जनता उन्हें आज तक याद रखती है तो वो "मोहब्बत करने वाले कम न होंगे..." ही होगी। जनाब मेहदी हसन ने इस ग़ज़ल के कई शेर अपनी अदायगी में शामिल किये। उनके बाद फरीदा खानम, इकबाल बानो और हाल फिलहाल में पापोन ने भी इसे अपनी आवाज़ से सँवारा है पर मुझे इस ग़ज़ल को हमेशा मेहदी हसन साहब की आवाज़ में ही सुनना पसंद रहा है। जिस तरह से उन्होंने ग़ज़ल के भावों को पढ़कर अपनी गायिकी में उतारा है उसकी जितनी प्रशंसा की जाए कम होगी।
इस ग़ज़ल का मतला तो सब की जुबां पर रहता ही है पर जो शेर मुझे सबसे ज्यादा दिल के करीब लगता है वो ये कि ज़माने भर के ग़म या इक तेरा ग़म... ये ग़म होगा तो कितने ग़म न होंगे.. किसी की याद की कसक भी इतनी प्यारी होती है कि उस ग़म को महसूस करते हुए भी आशिक अपने और ग़म भुला देता है। हफ़ीज़ साहब ने अपनी इसी बात को अपने लिखे एक अन्य शेर में यूँ कहा है
अब उनके ग़म से यूँ महरूम ना हो जाएँ कभी
वो जानते हैं कि इस ग़म से दिल बहलते हैं
चलिए ज़रा होशियारपुरी साहब की इस पूरी ग़ज़ल को पढ़ा जाए। जिन अशआर को मेहदी हसन ने गाया है उन्हें मैंने चिन्हित कर दिया है Bold करके।
मोहब्बत करने वाले कम न होंगे
तेरी महफ़िल में लेकिन हम न होंगे
मैं अक्सर सोचता हूँ फूल कब तक
शरीक-ए-गिर्या-ए-शबनम न होंगे
मैं जानता हूँ तुम हो ही ऐसी कि तुम्हें चाहने वालों की कभी कमी नहीं रहेगी। हाँ पर देखना कि चाहनेवालों की उस महफिल में तुम्हें मेरी कमी हमेशा महसूस होगी। अब ऐसा तो हो नहीं सकता कि सुबह की ओस पूरे पौधे पर गिरे पर उसके रुदन की पीड़ा फूल तक ना पहुँचे?
ज़रा देर-आश्ना चश्म-ए-करम है
सितम ही इश्क़ में पैहम न होंगे
ठीक है जनाब कि उन्होंने मेरी ओर थोड़ी देर से ही अपनी नज़र-ए-इनायत की। मैं क्यूँ मानूँ कि आगे भी वे मुझ पे ऐसे ही सितम ढाते रहेंगे?
दिलों की उलझने बढ़ती रहेंगी
अगर कुछ मशवरे बाहम न होंगे
ज़माने भर के ग़म या इक तेरा ग़म
ये ग़म होगा तो कितने ग़म न होंगे
अगर हमारी बातचीत में यूँ ही खलल पड़ता रहे तो दिल की उलझनें तो बढ़ती ही रहेंगी। लेकिन ये भी है कि इन उलझनों से मन में उठती बेचैनी और दर्द अगर रहा तो इस ग़म की मिठास से बाकी के ग़म तो यूँ ही दफा हो जाएँगे।
कहूँ बेदर्द क्यूँ अहल-ए-जहाँ को
वो मेरे हाल से महरम न होंगे
हमारे दिल में सैल-ए-गिर्या होगा
अगर बा-दीद-ए-पुरनम न होंगे
इस दुनिया को क्यूँ बेदर्द कहूँ मैं? सच तो ये है कि उन्हें मेरे दिल का हाल क्या मालूम ? मैंने कभी अपनी आँखों में सबके सामने नमी आने नहीं दी भले ही दिल में दर्द का सैलाब क्यूँ न बह रहा हो।
अगर तू इत्तेफ़ाक़न मिल भी जाए
तेरी फ़ुर्कत के सदमें कम न होंगे
'हफ़ीज़ ' उनसे मैं जितना बदगुमां हूँ
वो मुझसे इस क़दर बरहम न होंगे
अब तो अगर कहीं मुलाकात हो भी जाए तो जो सदमा तेरी जुदाई में सहा है वो नहीं कम होने वाला। पता नहीं मुझे अब भी क्यूँ ऐसा लगता है कि जितना मैं उन पर अविश्वास करता रहा, शक़ की निगाह से देखता रहा उतनी नाराज़गी उनके मन में मेरे प्रति ना हो।
तो आइए सुनें इस खूबसूरत ग़ज़ल को मेहदी हसन की आवाज़ में..
पिछले महीने एक शाम मेरे नाम की ये महफिल चौदह साल पुरानी हो गई। इस ग़ज़ल से उलट आपसे यही उम्मीद रहेगी कि आपकी इस ब्लॉग के प्रति मोहब्बत भी बरक़रार रहे और इस महफिल में सालों साल आप हमारे साथ शिरकत करते रहें।
10 टिप्पणियाँ:
सही कहा आपने। मेहदी हसन साहब की आवाज़ में ही अच्छी लगती है ये गज़ल।
Swati : हाँ, बिल्कुल। वैसे आपका पसंदीदा शेर कौन सा है इस ग़ज़ल का?
वाह! मेरी पसंदीदा ग़ज़ल. चौदह साल पूरे हुए इसकी बधाई! आप ऐसे ही इस शानदार सफर को आगे बढ़ाते रहिये. मुझे भी साथ साथ इस खूबसूरत राह पे चलते दस साल तो हो ही गये हैं शायद.
सुमित आप जैसे गीत संगीत में रुचि रखने वाले पाठकों का साथ मिलता रहेगा तो ये सफ,र यूँ ही आगे बढ़ता रहेगा। :)
ग़ज़ल का शुरुआती शेर ही बहुत अच्छा है "मोहब्बत करने वाले कम ना होंगे"
इसके अलावा "अगर तू इत्तेफाकन मिल भी जाए,तेरी फुरकत के सदमे कम ना होंगे" बहुत अच्छा है
वैसे मेहदी हसन साहब के आवाज़ की संजीदगी हर ग़ज़ल को खूबसूरत बना देती है
Swati "वैसे मेहदी हसन साहब के आवाज़ की संजीदगी हर ग़ज़ल को खूबसूरत बना देती है" ये भी सही कहा आपने। :)
Sir mza aaa gya ... Bada hi acha mahol or dil ko chu jane walibkuch bate.
यूं तो ये पूरी ग़ज़ल ही बहुत उम्दा है.. पर फ़िर भी मेरा पसंदीदा शेर "अगर तू इत्तफाक़न मिल भी जाए...तेरी फुरकत
के सदमे कम न होंगे"
Free Wave पसंद करने का शुक्रिया! वैसे आपका नाम क्या है?
शुक्रिया दिशा अपनी पसंद का शेर बताने के लिए।
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