कलाकार कितनी भी बड़ा क्यूँ ना हो जाए फिर भी जिसकी कला को देखते हुए वो पला बढ़ा है उसके साथ काम करने की चाहत हमेशा दिल में रहती है। सत्तर के दशक में जब जगजीत बतौर ग़ज़ल गायक अपनी पहचान बनाने में लगे थे तो उनके मन में भी एक ख़्वाब पल रहा था और वो ख़्वाब था सुर कोकिला लता जी के साथ गाने का।
जगजीत करीब पन्द्रह सालों तक अपनी इस हसरत को मन में ही दबाए रहे। अस्सी के दशक के आख़िर में 1988 में अपने मित्र और मशहूर संगीतकार मदनमोहन के सुपुत्र संजीव कोहली से उन्होंने गुजारिश की कि वो लता जी से मिलें और उन्हें एक ग़ज़लों के एलबम के लिए राजी करें। लता जी मदनमोहन को बेहद मानती थीं इसलिए जगजीत जी ने सोचा होगा कि वो शायद संजीव के अनुरोध को ना टाल पाएँ।
पर वास्तव में ऐसा हुआ नहीं। जगजीत सिंह की जीवनी से जुड़ी किताब बात निकलेगी तो फिर में सत्या सरन ने लिखा इस प्रसंग का जिक्र करते हुए लिखा है कि
लता ने कोई रुचि नहीं दिखाई, उन्होंने ये पूछा कि उनको जगजीत सिंह के साथ गैर फिल्मी गीत क्यों गाने चाहिए? हालांकि बतौर गायक वो जगजीत सिंह को पसंद करती थीं। इसके आलावा वे उन संगीतकारों के लिए ही गाना चाहती थीं जिनके साथ उनकी अच्छी बनती हो।
लता जी को मनाने में ही दो साल लग गए। एक बार जब इन दो महान कलाकारों का मिलना जुलना शुरु हुआ तो आपस में राब्ता बनते देर ना लगी। लता जी ने जब जगजीत की बनाई रचनाएँ सुनीं तो प्रभावित हुए बिना ना रह सकीं। जगजीत ने भी उन्हें बताया की ये धुनें उन्होंने सिर्फ लता जी के लिए सँभाल के रखी हैं। दोनों का चुटकुला प्रेम इस बंधन को मजबूती देने में एक अहम कड़ी साबित हुआ। संगीत की सिटिंग्स में बकायदा आधे घंटे अलग से इन चुटकुलों के लिए रखे जाने लगे। लता जी की गिरती तबियत, संजीव की अनुपलब्धता की वज़ह से ग़ज़लों की रिकार्डिंग खूब खिंची पर जगजीत जी ने अपना धैर्य बनाए रखा और फिर सजदा आख़िरकार 1991 में सोलह ग़ज़लों के डबल कैसेट एल्बम के रूप में सामने आया जो कि मेरे संग्रह में आज भी वैसे ही रखा है।
मुझे अच्छी तरह याद है कि तब सबसे ज्यादा प्रमोशन जगजीत व लता के युगल स्वरों में गाई निदा फ़ाज़ली की ग़ज़ल हर तरह हर जगह बेशुमार आदमी..फिर भी तनहाइयों का शिकार आदमी को मिला था। भागती दौड़ती जिंदगी को निदा ने चंद शेरों में बड़ी खूबसूरती से क़ैद किया था। खासकर ये अशआर तो मुझे बेहद पसंद आए थे
रोज़ जीता हुआ रोज़ मरता हुआ
हर नए दिन नया इंतज़ार आदमी
ज़िन्दगी का मुक़द्दर सफ़र दर सफ़र
आख़िरी साँस तक बेक़रार आदमी
यूँ तो इस एलबम में मेरी आधा दर्जन ग़ज़लें बेहद ही पसंदीदा है पर चूंकि आज बात लता और जगजीत की युगल गायिकी की हो रही है तो मैं आपको इसी एलबम की एक दूसरी ग़ज़ल ग़म का खज़ाना सुनवाने जा रहा हूँ जिसे नागपुर के शायर शाहिद कबीर ने लिखा था। शाहिद साहब दिल्ली में केंद्र सरकार के मुलाज़िम थे और वहीं अली सरदार जाफरी और नरेश कुमार शाद जैसे शायरों के सम्पर्क में आकर कविता लिखने के लिए प्रेरित हुए। चारों ओर , मिट्टी के मकान और पहचान उनके प्रकाशित ग़ज़ल संग्रह हैं। जगजीत के आलावा तमाम गायकों ने उनकी ग़ज़लें गायीं पर मुझे सबसे ज्यादा आनंद उनकी ग़ज़ल ठुकराओ या तो प्यार करो मैं नशे में हूँ गुनगुनाने में आता है। 😊
जहाँ तक ग़म का खज़ाना का सवाल है ये बिल्कुल सहज सी ग़ज़ल है। दो दिल मिलते हैं, बिछुड़ते हैं और जब फिर मिलते हैं तो उन साथ बिताए दिनों की याद में खो जाते हैं और बस इन्हीं भावनाओं को स्वर देते हुए शायर ने ये ग़ज़ल लिख दी है। इस ग़ज़ल की धुन इतनी प्यारी है कि सुनते ही मज़ा आ जाता है। तो आप भी सुनिए पहले लता और जगजीत की आवाज़ में..
ग़म का खज़ाना तेरा भी है, मेरा भी
ग़म का खज़ाना तेरा भी है, मेरा भी
ये नज़राना तेरा भी है, मेरा भी
अपने ग़म को गीत बनाकर गा लेना
ग़म का खज़ाना तेरा भी है, मेरा भी
ये नज़राना तेरा भी है, मेरा भी
अपने ग़म को गीत बनाकर गा लेना
अपने ग़म को गीत बनाकर गा लेना
राग पुराना तेरा भी है, मेरा भी
राग पुराना तेरा भी है, मेरा भी
ग़म का खज़ाना ....
तू मुझको और मैं तुमको, समझाऊँ क्या
तू मुझको और मैं तुमको समझाऊँ क्या
दिल दीवाना तेरा भी है, मेरा भी
दिल दीवाना तेरा भी है, मेरा भी
ग़म का खज़ाना तेरा भी है, मेरा भी
शहर में गलियों, गलियों जिसका चर्चा है
शहर में गलियों, गलियों जिसका चर्चा है
वो अफ़साना तेरा भी है, मेरा भी
मैखाने की बात ना कर, वाइज़ मुझसे
मैखाने की बात ना कर, वाइज़ मुझसे
आना जाना तेरा भी है, मेरा भी
ग़म का खज़ाना तेरा भी है....
राग पुराना तेरा भी है, मेरा भी
राग पुराना तेरा भी है, मेरा भी
ग़म का खज़ाना ....
तू मुझको और मैं तुमको, समझाऊँ क्या
तू मुझको और मैं तुमको समझाऊँ क्या
दिल दीवाना तेरा भी है, मेरा भी
दिल दीवाना तेरा भी है, मेरा भी
ग़म का खज़ाना तेरा भी है, मेरा भी
शहर में गलियों, गलियों जिसका चर्चा है
शहर में गलियों, गलियों जिसका चर्चा है
वो अफ़साना तेरा भी है, मेरा भी
मैखाने की बात ना कर, वाइज़ मुझसे
मैखाने की बात ना कर, वाइज़ मुझसे
आना जाना तेरा भी है, मेरा भी
ग़म का खज़ाना तेरा भी है....
यूँ तो जगजीत और लता जी की आवाज़ को उसी अंदाज़ में लोगों तक पहुँचा पाना दुसाध्य
कार्य है पर उनकी इस ग़ज़ल को हाल ही में उभरती हुई युवा गायिका प्रतिभा सिंह
बघेल और मोहम्मद अली खाँ ने बखूबी निभाया। हालांकि गीत के बोलों को गाते हुए बोल की छोटी मोटी भूलें हुई हैं उनसे। लाइव कन्सर्ट्स में ऐसी ग़ज़लों को
सुनने का आनंद इसलिए भी बढ़ जाता है क्यूँकि मंच पर बैठे साजिंद भी अपने खूबसूरत
टुकड़ों को मिसरों के बीच बड़ी खूबसूरती से सजा कर पेश करते हैं। अब यहीं देखिए मंच
की बाँयी ओर वॉयलिन पर दीपक पंडित हैं जो जगजीत जी के साथ जाने कितने
कार्यक्रमों में उनकी टीम का हिस्सा रहे। वहीं दाहिनी ओर आज के दौर के जाने
पहचाने बाँसुरी वादक पारस नाथ हैं जिनकी बाँसुरी टीवी पर संगीत कार्यक्रमों से
लेकर फिल्मों मे भी सुनाई देती है।
सजदा का जिक्र अभी खत्म नहीं हुआ है। अगले आलेख बात करेंगे इसी एल्बम की एक और ग़ज़ल के बारे में और जानेंगे कि चित्रा जी को कैसी लगी थी लता जी की गायिकी ?
10 टिप्पणियाँ:
I also like "Aankh se door na ho dil se utar jaayega"..
But my favourite song of this album is "Dard se mera daaman bhar de"☺️
@Alok वैसे दर्द से आपका दामन भरने की इच्छा किसने जगा दी :)
प्रतिभा बघेल बहुत अच्छी गायिका है...अफसोस ये है कि अभी तक बॉलीवुड इनका प्रयोग न कर सका। प्रयोग इसलिए कहा कि आजकल तो बॉलीवुड में गाने किसी गायक विशेष के लिए नहीं बनाए जाते। गाना बनने के बाद गायक का चुनाव किया जाता है।(मेरी जानकारी के अनुसार) उम्मीद करते हैं कि भविष्य में इन्हें फिल्मों में भी कुछ अच्छे गाने का अवसर ज़रूर मिले।
कुछ फिल्मों में उसके गाने आए हैं पर वो गिनती भर के है। पिछले साल शंकर महादेवन ने मणिकर्णिका में उससे दो गाने गवाए और दोनों ही बेहद सराहे गए। राजा जी तो मेरी सूची में पिछले साल के सर्वश्रेष्ठ गीतों में शामिल भी हुआ था। वैसे प्रतिभा की उमराव जान पर आधारित नृत्य नाटिका और हाल के दिनों में ग़ज़ल गायिकी पर उसकी पकड़ की काफी प्रशंसा हो रही है।
आज जो फिल्म इंडस्ट्री की हालत है उसमें नामी से लेकर नए नवेले गायकों को स्वतंत्र संगीत से ही एक आशा है। फिल्मों में संगीत कंपनियों की जो दादागिरी है वो तो सर्वविदित है। ऐसे में गायकों का खर्चा पानी यू ट्यूब और लाइव कंसर्ट से ही चल पा रहा है। कोरोना की वज़ह से ये स्थिति विकट ही होने वाली है।
ये धूप छाओं देखो, ये सुबह शाम देखो सब क्यूं ये हो रहा है, अल्लाह जानता है .....
ये ग़ज़ल इस एलबम की सबसे प्यारी ग़ज़ल है। जगजीत सिंह तो पहले से ही ग़ज़ल सम्राट है यहां लता जी ने उनका साथ बखूबी निभाया। एक बार फिर इसे मोहम्मद अली खां और प्रतिभा जी की आवाज़ में सुनकर अच्छा लगा। बहुत अच्छा गाया दोनों ने। उम्मीद है आगे ऐसे ही और भी ग़ज़लें सुनने की मिलेंगी
ग़ज़लों की बात करें तो मुझे लगता है लता जी ने आशा भोसले के मुकाबले बहुत कम फिल्मी और गैरफिल्मी ग़ज़लें गाई है जबकि उनकी आवाज़ में वो संजीदगी थी जो ग़ज़ल गायक में होनी चाहिए
Swati : इस एल्बम में मेरी कई पसंदीदा ग़ज़लें रही हैं। जैसा कि मुझे जगजीत से जुड़ी उस किताब को पढ़ कर लगा कि लता जी फिल्मों के इतर ग़ज़ल गायिकी के प्रति उतनी उत्साहित नहीं थीं। वैसे भी ये प्रस्ताव उन्हें तब मिला जब उनका स्वास्थ्य पहले जैसा नहीं रह गया था।
फिल्मों में मदनमोहन जी ने अपनी अधिकांश नज़्में लता जी से ही गवाई हैं। आज प्रतिभा व शिल्पा राव जैसी कई गायिकाएं ग़ज़ल के प्रति शुरुआत से ही रुचि ले रही हैं जो एक अच्छी बात है।
हाँ विनय वो ग़ज़ल भी इसी एल्बम का हिस्सा थी। :)
एक दो ख़ामियों को छोड़कर शानदार प्रस्तुति , इस एलबम में कई नगीने हैं , पढाई के दौरान सन 2000 में इस एलबम को सुनने को मौका मिला , इस की एक ग़ज़ल "धुँआ बना के फ़िज़ा में उड़ा दिया मुझको " लता जी का गया हुआ मुझे सबसे करीब लगाता है ।
संभव हो तो मधुरानी जी के बारे में कुछ जानकारी साझा करें ।
धन्यवाद ।
Ranjan मुझे तो इस एलबम की करीब आधा दर्जन ग़ज़लें बेहद पसंद हैं। शानदार एलबम था ये।
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