जिन्दगी यादों का कारवाँ है.खट्टी मीठी भूली बिसरी यादें...क्यूँ ना उन्हें जिन्दा करें अपने प्रिय गीतों, गजलों और कविताओं के माध्यम से!
अगर साहित्य और संगीत की धारा में बहने को तैयार हैं आप तो कीजिए अपनी एक शाम मेरे नाम..
वार्षिक संगीतमाला 2020 की सातवीं पायदान पर है मेरे प्रिय गीतकार गुलज़ार का लिखा गीत। एसिड अटैक पर पिछले साल की जनवरी में एक बेहद संवेदनशील फिल्म आई थी छपाक। फिल्म के प्रदर्शन के समय विवादों के बादल घिर आए जिसने इस जरूरी विषय पर बनी फिल्म के संदेश को आंशिक रूप से ही सही पर ढक लिया।
मेघना गुलज़ार की फिल्मों में उनके पिता ही गीतकार की भूमिका निभाते हैं। मेघना कहती हैं कि ऐसी फिल्मों में गीतों की गुंजाइश कम ही होती है। फिर भी उन्होंने इस फिल्म में गीत रखे क्यूँकि भारतीय फिल्म संस्कृति में गीत फिल्म का चेहरा होते हैं और कई बार तो उनमें ही फिल्म की आत्मा बसती है।
अब छपाक के इस शीर्षक गीत को ही लें। गीत के शानदार मुखड़े में ही पूरी फिल्म का कथा सार छुपा है... कोई चेहरा मिटा के और आँख से हटा के..चंद छींटे उड़ा के जो गया..छपाक से पहचान ले गया। चंद लफ़्जों में इतनी गहरी बात आज के युग में गुलज़ार ही कर सकते हैं। तेज़ाब की चंद बूँदें. किसी की ज़िदगी की गाड़ी को किस तरह बेपटरी कर सकती हैं ये अंदाजा पिछले कुछ साल की नृशंस घटनाओं से हम सब बड़ी आसानी से लगा सकते हैं। ऐसे में गुलज़ार के शब्द दिल में तीर की तरफ चुभते हैं। अंतरे में गुनहगार के व्यक्तित्व का भी वो कितना बढ़िया खाका खींचते हुए लिखते हैं.. बेमानी सा जुनून था बिन आग के धुआँ...ना होश ना ख्याल सोच अंधा कुआँ
कोई चेहरा मिटा के और आँख से हटा के चंद छींटे उड़ा के जो गया छपाक से पहचान ले गया एक चेहरा गिरा जैसे मोहरा गिरा जैसे धूप को ग्रहण लग गया छपाक से पहचान ले गया
ना चाह न चाहत कोई ना कोई ऐसा वादा है ना चाह न चाहत कोई ना कोई ऐसा वादा है हाथ में अँधेरा और आँख में इरादा कोई चेहरा मिटा ..पहचान ले गया
बेमानी सा जुनून था, बिन आग के धुआँ बेमानी सा जुनून था बिन आग के धुआँ ना होश ना ख्याल सोच अंधा कुआँ कोई चेहरा मिटा ..पहचान ले गया
आरज़ू थी शौक थे वो सारे हट गए, कितने सारे जीने के तागे कट गए आरज़ू थी शौक थे वो सारे हट गए कितने सारे जीने के तागे कट गए सब झुलस गया कोई चेहरा मिटा ..पहचान ले गया
शंकर अहसान लॉय ने इस गीत के लिए अरिजीत की आवाज़ का इस्तेमाल किया। गीत के शब्दों में दबी पीड़ा को उभारने के लिए उन्होंने संगीत संयोजन में बाँसुरी और रबाब का प्रयोग किया है। बाँसुरी वादन नवीन ने और रबाब पर तापस राय की उँगलियाँ थिरकी हैं। इस गीत की रिलीज़ के समय संगीतकार शंकर महादेवन ने अपने एक साक्षात्कार में कहा था कि इस गीत को बनाने के लिए गुलज़ार के साथ बैठना अपने आप में एक उपलब्धि थी। छपाक जैसी संवेदनशील फिल्म के साथ जुड़ना हमारे लिए फक्र की बात थी और इसीलिए इसका संगीत हमारे लिए हमेशा कोहिनूर ही बना रहेगा क्यूँकि वर्षों बाद भी इन गीतों की चमक फीकी नहीं पड़ेगी।
फ़िल्म में दीपिका की चीख़ के साथ गीत देखना बड़ा दर्दनाक लगता है। मेरे इस साल के सबसे प्रिय गीतों में एक ये भी है। मुझे लगता है इस फ़िल्म से एक और गीत संगीतमाला में शामिल होना चाहिए!😊
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8 टिप्पणियाँ:
Nice song... Gulzar saab ke geet hamesha hi meaningful hote he...
Swati Gupta हां इसीलिए तो वो हम सब के प्रिय गीतकार हैं।😊
फ़िल्म में दीपिका की चीख़ के साथ गीत देखना बड़ा दर्दनाक लगता है। मेरे इस साल के सबसे प्रिय गीतों में एक ये भी है। मुझे लगता है इस फ़िल्म से एक और गीत संगीतमाला में शामिल होना चाहिए!😊
Manish सही कहा ऐसे किसी भी दृश्य को देखना एक संवदेनशील इंसान के लिए बेहद कष्टप्रद है।
मुझे इस फिल्म का गीत खुलने दो भी पसंद है।
Very emotional
सर मैं भी इसी "खुलने दो" की बात कर रहा था! :)
अरे, इसे मैं और आगे एक्सपेक्ट कर रही थी। मार्च के बाद तो गाने ही नहीं सुने (गुलाबो-सिताबो के अलावा) लेकिन जो सुने उनमें ये बहुत पसंद रहा।
@Kanchan अरे अपनी पसंद के मिलान के रेट के हिसाब से आपको इसे और पीछे करना चाहिए था। :p
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